राज्यपाल को विधेयकों को अंतहीन काल तक अपने पास रखने का अधिकार नहीं है, लेकिन समय-सीमा तय नहीं की जा सकती: केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा
Shahadat
11 Sept 2025 1:26 PM IST

राष्ट्रपति संदर्भ की सुनवाई के आखिरी दिन सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि राज्यपाल विधेयकों पर अंतहीन रूप से नहीं बैठ सकते।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि चूंकि अनुच्छेद 200 में "जितनी जल्दी हो सके" शब्द का प्रयोग किया गया, इसलिए राज्यपाल विधेयकों पर "सदाबहार या तीन या चार साल तक" नहीं बैठ सकते। साथ ही सॉलिसिटर जनरल ने न्यायालय द्वारा "सीधे-सादे फॉर्मूले" के रूप में निश्चित समय-सीमा निर्धारित करने का विरोध किया।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पांच जजों की पीठ के समक्ष कहा,
"यद्यपि विधेयकों पर लगातार बैठने जैसी चरम स्थिति को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है, लेकिन कोई सीधी-साधी समय-सीमा भी नहीं हो सकती। यह सब विधेयक के विषय पर निर्भर करता है।"
उन्होंने कहा कि कम से कम 2005 के अनुभवजन्य आंकड़ों के अनुसार, 90% विधेयकों को एक महीने के भीतर मंजूरी मिल जाती है। केवल असाधारण मामलों में ही विधेयक के जटिल या विवादास्पद विषय के कारण देरी होती है। उन्होंने आगे कहा कि तमिलनाडु के मामले में भी कुछ विवादास्पद विधेयकों को छोड़कर, अधिकांश विधेयकों को शीघ्र मंजूरी मिल गई।
सॉलिसिटर जनरल ने कहा,
"जितनी जल्दी हो सके - सबसे पहले, मैं यह स्पष्ट कर दूं कि इसका मतलब अंतहीन नहीं हो सकता। माननीय जज ने मुझे आंकड़े देने से रोका। हालांकि पिछले 50 सालों से 90% विधेयकों पर एक महीने के भीतर ही मंज़ूरी दे दी जाती है और तमिलनाडु में भी... ऐसा नहीं हो सकता कि राज्यपाल को विधेयकों पर अंतहीन रूप से बैठने का अधिकार हो। हर विधेयक के संदर्भ-विशिष्ट मुद्दे होते हैं, इसके लिए कार्यपालिका से परामर्श और सहयोग की आवश्यकता हो सकती है। कभी-कभी लोकप्रिय धारणा के कारण विधायिका उसे पारित करने के लिए बाध्य होती है। हालांकि कार्यपालिका राज्यपाल से अनुरोध करती है कि हमने इसे पारित कर दिया है, आप रुकें... ऐसी कई आकस्मिकताएं हैं और संवैधानिक सहयोग और परामर्श ही कारगर रहा है। समय-सीमा लागू करना आत्मघाती होगा, इसके अलावा यह स्वीकार्य नहीं है। इस पर लगातार बैठे रहना संभव नहीं है। हालांकि यह सीधा-सादा फॉर्मूला शायद स्वीकार्य न हो।"
सॉलिसिटर जनरल ने तर्क दिया कि विधेयकों को मंज़ूरी देने की समय-सीमा निर्दिष्ट न करना "संवैधानिक चुप्पी" के रूप में देखा जाना चाहिए। समय-सीमा निर्दिष्ट न करना सचेत संवैधानिक निर्णय था।
सॉलिसिटर जनरल ने यह भी कहा कि संवैधानिक पदाधिकारी, यानी न्यायालय किसी अन्य संवैधानिक पदाधिकारी (राज्यपाल) को परमादेश रिट जारी नहीं कर सकता।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) गवई ने जवाब में कहा,
"कोई भी प्राधिकारी चाहे कितना भी ऊंचा क्यों न हो, कानून उससे ऊपर है।"
चीफ जस्टिस ने पूछा कि यदि कोई संवैधानिक पदाधिकारी अपने कार्य नहीं कर रहा है तो क्या मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में न्यायालय कार्य करने में असमर्थ होगा। उन्होंने यह भी कहा कि वह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत में दृढ़ विश्वास रखते हैं।
चीफ जस्टिस ने पूछा,
"मैं सार्वजनिक रूप से कहता हूं कि मैं शक्तियों के पृथक्करण में दृढ़ता से विश्वास करता हूं और यद्यपि न्यायिक पुनर्विचार होनी चाहिए, न्यायिक आतंकवाद नहीं होना चाहिए। लेकिन यदि एक संवैधानिक पदाधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में विफल रहता है तो क्या संविधान का संरक्षक निष्क्रिय बैठा रहेगा? विवेकाधिकार रखने वाले किसी संवैधानिक उच्च पदाधिकारी को परमादेश जारी करना, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होगा।"
सीजेआई बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है।

