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अतिरिक्त-न्यायिक-स्वीकारोक्ति का प्रामाणिक महत्व उस व्यक्ति पर भी निर्भर करता है, जिसे यह दिया गया है: सुप्रीम कोर्ट

Avanish Pathak
17 March 2023 10:06 AM GMT
अतिरिक्त-न्यायिक-स्वीकारोक्ति का प्रामाणिक महत्व उस व्यक्ति पर भी निर्भर करता है, जिसे यह दिया गया है: सुप्रीम कोर्ट
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सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक व्यक्ति को बरी कर दिया, जबकि उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दोहरे हत्याकांड का दोषी ठहराया गया था। कोर्ट ने अपने फैसले में साक्ष्य के उन मूल्यों और परिस्थितियों पर रोशनी डाली, जिनमें अतिरिक्त-न्यायिक-स्वीकारोक्ति को स्वीकार किया जा सकता है।

जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस राजेश बिंदल की पीठ ने कहा,

"अतिरिक्त न्यायिक-स्वीकारोक्ति के बारे में अभियोजन पक्ष का मामला भरोसा पैदा नहीं करता है। इसके अलावा, ऐसी कोई अन्य परिस्थिति रिकॉर्ड पर दर्ज नहीं की गई, जिससे अभियोजन पक्ष के मामले की पुष्टि हो सके या समर्थ‌न हो सके। इसलिए, हमारे सुविचारित मत में, अतिरिक्त-न्यायिक-स्वीकारोक्ति के रूप में अपीलकर्ता का साक्ष्य खारिज किए जाने योग्य हैं। बेशक, अपीलकर्ता के खिलाफ कोई अन्य सबूत नहीं है।"

अपीलार्थी के खिलाफ आरोप था कि उसने अन्य लोगों के साथ मिलकर दो लड़कों की हत्या की थी, जिनके लापता होने की सूचना दी गई थी। अपीलकर्ता पर आईपीसी की धारा 302 के सा‌थ पठित धारा 34 के तहत अपराध का आरोप लगाया गया था और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता की सजा की पुष्टि की, जबकि शेष चार अभियुक्तों को बरी कर दिया गया। अपीलकर्ता की दोषसिद्धि अतिरिक्त-न्यायिक-स्वीकारोक्ति पर आधारित थी।

कोर्ट ने शुरुआत में कहा कि अतिरिक्त-न्यायिक-स्वीकारोक्ति, एक कमजोर सबूत है, हालांकि यह कायम रह सकता है, बशर्ते कि यह स्वैच्छिक हो। अतिरिक्त-न्यायिक-स्वीकारोक्ति का साक्ष्य मूल्य उस व्यक्ति पर भी निर्भर करता है, जिसे यह दिया गया है।

कोर्ट ने कहा,

"आम तौर पर, यह एक कमजोर सबूत होता है। हालांकि, अतिरिक्त-न्यायिक-स्वीकारोक्ति के आधार पर दोषसिद्धि कायम रखी जा सकती है, बशर्ते कि स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक और सच्ची साबित हो। यह किसी भी प्रलोभन से मुक्त होना चाहिए। इस तरह की स्वीकारोक्ति का प्रमाणिक मूल्य उस व्यक्ति पर भी निर्भर करता है, जिसे यह दिया गया है। स्वाभाविक मानव आचरण यह है कि आमतौर पर एक व्यक्ति अपने अपरा‌धि कृत्य के बारे में केवल ऐसे व्यक्ति को बताएगा, जिसमें उसका अटूट विश्वास है।"

कोर्ट ने कहा,

"आम तौर पर, एक व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति के सामने स्वीकारोक्ति नहीं करेगे, जो उसके लिए पूरी तरह से अजनबी है"

"इसके अलावा, न्यायालय को उन परिस्थितियों को, जिसमें स्वीकारोक्‍ति की गई है, उन्हें ध्यान में रखते हुए उससे संतुष्ट होना चाहिए। नियम के रूप में, पुष्टि की आवश्यकता नहीं है। हालांकि, अगर एक अतिरिक्त-न्यायिक-स्वीकारोक्ति की पुष्टि रिकॉर्ड पर मौजूद अन्य सबूतों से होती है, तो यह अधिक विश्वसनीय हो जाती है।"

मौजूदा मामले में सबूतों का विश्लेषण करने के बाद, अदालत ने अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों की विभिन्न विसंगतियों पर प्रकाश डाला।

कोर्ट ने कहा, तीन गवाहों में से केवल पीडब्‍ल्यू-7 ने कहा कि अपीलकर्ता ने उसके घर में इकबालिया बयान दिया। पीडब्‍ल्यू-7 के कथन के अनुसार, 20 जून, 1989 (जिस दिन एफआईआर दर्ज की गई थी) की दोपहर में, उसे पीडब्‍ल्यू-5 ने बताया था कि अपीलकर्ता ने दोनों लड़कों की हत्या कर दी है।

कोर्ट ने कहा, "इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि पीडब्लू-7 ने पुलिस से संपर्क क्यों नहीं किया। गवाह का यह आचरण अप्राकृतिक है।

पीडब्लू-8 को हालांकि अपीलकर्ता द्वारा 6 जून, 1989 को किए गए कथित कबूलनामे के बारे में जानकारी थी, उन्होंने पुलिस से शिकायत नहीं की। पुलिस को रिपोर्ट करने की चूक बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वह मृतक बुल्ला के चाचा थे।

कोर्ट ने कहा, "उनकी चुप्पी अभियोजन पक्ष के मामले के बारे में अधिक संदेह पैदा करती है।"

इसे ध्यान में रखते हुए, अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष का समर्थन करने वाले इन तीन गवाहों में से किसी ने भी यह नहीं कहा कि अपीलकर्ता या तो उनका रिश्तेदार या करीबी परिचित था। वास्तव में, उन्होंने यह भी नहीं कहा कि वे व्यक्तिगत रूप से अपीलकर्ता को जानते थे।

कोर्ट ने कहा,

"यह दिखाने के लिए रिकॉर्ड में कुछ भी नहीं है कि अपीलकर्ता और इन तीन गवाहों के बीच संबंध ऐसा था कि अपीलकर्ता को इन तीन गवाहों पर पूरा भरोसा था और इसलिए, उसने उनसे अपनी बात कही।"

अपीलकर्ता द्वारा उनके सामने हत्या करने की कथित अतिरिक्त-न्यायिक-स्वीकारोक्ति के बाद भी, पीडब्ल्यू-7 से पीडब्ल्यू-9 ने पुलिस को रिपोर्ट नहीं की।

कोर्ट ने कहा,

"अभियोजन का मामला यह है कि पुलिस को सूचित किए बिना, वे अपीलकर्ता के साथ भागीरथ के मैदान में गए जहां शवों को दफनाया गया था। पीडब्ल्यू-7 से पीडब्ल्यू-9 तक का यह आचरण असामान्य और अप्राकृतिक है। पीडब्ल्यू-7 से पीडब्ल्यू-9 तक उस स्थान के बारे में सुन‌िश्चित नहीं हैं, जहां कथित स्वीकारोक्ति की गई थी।

इन आधारों पर खंडपीठ ने अपील स्वीकार कर ली और आक्षेपित फैसलों को रद्द कर दिया।

केस टाइटल: पवन कुमार चौरसिया बनाम बिहार राज्य | आपराधिक अपील संख्या 2230/2010

साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (एससी) 197

आदेश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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