साक्ष्य अधिनियम - धारा 106 के तहत भार को निभा पाने में विफलता अप्रासंगिक है, यदि अभियोजन परिस्थितियों की कड़ी जोड़ने में असमर्थ है: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

16 Sep 2021 5:16 AM GMT

  • साक्ष्य अधिनियम - धारा 106 के तहत भार को निभा पाने में विफलता अप्रासंगिक है, यदि अभियोजन परिस्थितियों की कड़ी जोड़ने में असमर्थ है: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 106 के तहत अभियुक्त के भार को निभा पाने में विफलता परिस्थितिजन्य साक्ष्य द्वारा संचालित मामले में प्रासंगिक नहीं है, यदि अभियोजन पक्ष परिस्थितियों की एक कड़ी स्थापित करने में असमर्थ है।

    जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस अभय एस. ओका की पीठ ने टिप्पणी की,

    "जब कोई मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर टिका होता है, यदि अभियुक्त साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के आधार पर उस पर तथ्यों को साबित करने के बोझ के निर्वहन में उचित स्पष्टीकरण देने में विफल रहता है, तो ऐसी विफलता परिस्थितियों की कड़ी के लिए एक अतिरिक्त लिंक प्रदान कर सकती है। परिस्थितिजन्य साक्ष्य द्वारा संचालित मामले में, यदि अभियोजन द्वारा स्थापित की जाने वाली परिस्थितियों की कड़ी स्थापित नहीं की जाती है, तो अभियुक्त द्वारा साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत भार का निर्वहन करने में विफलता बिल्कुल भी प्रासंगिक नहीं है। यदि कड़ी नहीं मिल रही है, तो बचाव का झूठ आरोपी को दोषी ठहराने का कोई आधार नहीं होता है। "

    साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 में कहा गया है कि किसी व्यक्ति की विशेष जानकारी के दायरे में चीजों को साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होता है।

    106. विशेष रूप से जानकारी के भीतर तथ्य को साबित करने का भार - जब कोई तथ्य विशेष रूप से किसी व्यक्ति की जानकारी के दायरे में होता है, तो उस तथ्य को साबित करने का भार उस पर होता है।

    अभियोजन का मामला इस प्रकार है:

    नागेंद्र साह (मौजूदा मामले में अपीलकर्ता) की पत्नी की 18 नवंबर, 2011 को जलने से मौत हो गई और महेश साह द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर अप्राकृतिक मौत का मामला दर्ज किया गया। हालांकि, चूंकि शव परीक्षण के बाद मौत का कारण "हाथ और कुंद पदार्थ से गर्दन के आसपास दबाव के कारण श्वासावरोध" था, इसलिए अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी। जब मामला सत्र न्यायालय को सौंपा गया, तो धारा 201 के तहत आरोप भी जोड़ा गया और उसके बाद अपीलकर्ता के खिलाफ धारा 302 और 201 के तहत आरोप तय किए गए।

    साह को निचली अदालत द्वारा धारा 302 और 201 के तहत दोषी ठहराया गया था और धारा 302 के तहत अपराध के लिए आजीवन कारावास और 5,000 रुपये का जुर्माना और धारा 201 के तहत अपराध के लिए 3 साल के कठोर कारावास और 5000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई थी। दोनों सजा साथ-साथ चलनी थी और दोनों में से किसी भी जुर्माने का भुगतान न करने की स्थिति में निचली अदालत ने साह को तीन महीने के अतिरिक्त् कठोर कारावास की सजा भुगतने का निर्देश दिया था।

    ट्रायल कोर्ट के फैसले से व्यथित साह ने पटना हाईकोर्ट के समक्ष एक अपील दायर की थी, जिसे 22 अप्रैल, 2019 को खारिज कर दिया गया था। इसके बाद साह ने निचली अदालत के फैसले का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

    वकीलों की दलीलें

    अपीलकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि आधिकारिक गवाहों को छोड़कर किसी भी गवाह ने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन नहीं किया था और उसकी सजा पूरी तरह से पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उल्लिखित मौत के कारण पर आधारित थी। 'बालाजी गुंथु धुले बनाम महाराष्ट्र राज्य (2012) 11 एससीसी 685' में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा जताते हुए, वकील ने आगे कहा कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट को छोड़कर निचली अदालतों ने उसे दोषी ठहराने के लिए किसी अन्य सामग्री पर भरोसा नहीं किया।

    उनका यह भी तर्क था कि उनके अपराध को स्थापित करने वाली घटनाओं की एक पूरी कड़ी स्थापित नहीं की गई थी, क्योंकि न तो मृतक की मां और न ही महेश साह ने अभियोजन का समर्थन किया था।

    बिहार सरकार की ओर से पेश होते वकील ने दलील दी कि अपीलकर्ता का बचाव कि मृतका की मृत्यु दुर्घटनावश आग से जलने के कारण हुई, पोस्टमार्टम रिपोर्ट के आधार पर पूरी तरह से गलत था। यह भी उनका तर्क था कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 106 इस मामले में लागू की गई थी क्योंकि मृतक और अपीलकर्ता एक ही छत के नीचे रह रहे थे और उसके बाद यह साबित करने का बोझ अपीलकर्ता पर ही था कि मृत्यु कैसे हुई थी?

    राज्य सराकर के वकील ने यह भी तर्क दिया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत उस पर तथ्यें को साबित करने के बोझ का निर्वहन करने में अपीलकर्ता की विफलता बहुत महत्वपूर्ण थी और यह मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित था।

    न्यायालय की टिप्पणी

    'शरद बृद्धिचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र सरकार ((1984) 4 एससीसी 116)' मामले में दिये गये फैसले पर भरोसा करते हुए, कोर्ट ने कहा कि यह न केवल अपीलकर्ता था जो उस घर में रह रहा था जहां घटना हुई थी, बल्कि उसके माता-पिता भी वहां मौजूद थे और फैसला सुनाया कि यह नहीं कहा जा सकता है कि स्थापित तथ्य किसी अन्य परिकल्पना के अस्तित्व से इंकार नहीं करते हैं।

    साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 की प्रयोज्यता पर, न्यायमूर्ति ओका द्वारा लिखित निर्णय ने कहा:

    "साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 उन मामलों पर लागू होगी जहां अभियोजन पक्ष उन तथ्यों को स्थापित करने में सफल रहा है जिनसे कुछ अन्य तथ्यों के अस्तित्व के बारे में उचित निष्कर्ष निकाला जा सकता है जो आरोपी की विशेष जानकारी के दायरे में हैं। जब आरोपी उक्त अन्य तथ्यों के अस्तित्व के बारे में उचित स्पष्टीकरण देने में विफल रहता है, कोर्ट हमेशा एक उपयुक्त निष्कर्ष निकाल सकता है।"

    पीठ ने आरोपियों को आईपीसी की धारा 302 और 201 के तहत आरोपों से बरी करते हुए और हाईकोर्ट के 22 अप्रैल, 2019 के आदेश को रद्द करते हुए कहा कि,

    "अभियोजन द्वारा स्थापित परिस्थितियां अपीलकर्ता-अभियुक्त के अपराध के संबंध में केवल एक संभावित निष्कर्ष की ओर नहीं ले जाती हैं।"

    केस शीर्षक: नागेंद्र साह बनाम बिहार सरकार

    केस नंबर: आपराधिक अपील संख्या 1903/2019

    साइटेशन: एलएल 2021 एससी 457

    कोरम: जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस अभय एस ओक

    जजमेंट डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें




    Next Story