डाइंग डिक्लरेशन केवल तभी दोषसिद्धि का एक मात्र आधार माना जा सकता है, जब कोर्ट इस बात से संतुष्ट हो कि यह सच एवं स्वैच्छिक है : सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया

LiveLaw News Network

10 May 2021 10:42 AM IST

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि कोर्ट को इस बात से अवश्य संतुष्ट होना चाहिए कि डाइंग डिक्लरेशन ( मृत्यु से पूर्व दिया गया बयान ) सच एवं स्वैच्छिक है और तभी इसे बगैर पुष्टि किये दोषसिद्धि का एक मात्र आधार बनाया जा सकता है।

    इस मुकदमे में कर्नाटक हाईकोर्ट ने हत्या के अभियुक्त को ट्रायल कोर्ट द्वारा बरी किये जाने के आदेश को पलट दिया था और अभियुक्त को दोषी ठहराया था। अभियुक्त को दोषी करार दिये जाने के लिए हाईकोर्ट ने मृतक के डाइंग डिक्लरेशन पर भरोसा जताया था।

    अपील की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने निम्नलिखित तथ्यों का संज्ञान लिया :- (i) डाइंग डिक्लरेशन में अलग से जोड़ा जाना, (ii) हथेली में जख्मों को लेकर अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों में विरोधाभास, (iii) मृतक 80 प्रतिशत तक घायल था, ऐसे में वह बात करने या बयान देने की स्थिति में नहीं था, (iv) अभियोजन पक्ष का गवाह नंबर – 2, मृतक के बेटे ने खुद ही कहा है कि उसकी मां ने खुद आत्महत्या की है, क्योंकि वह यह सह नहीं सकती थी कि उसका दूसरा बेटा जेल भेजा गया था, (v) बयान के समर्थन में कोई साक्ष्य का मौजूद न होना, और (vi) अभियोजन के पास मृत्यु पूर्व बयान के अलावा अपीलकर्ताओं के खिलाफ अपराध की पुष्टि के लिए किसी अन्य साक्ष्य का न होना।

    मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की बेंच ने इस विषय पर कुछ पूर्व के दृष्टांतों [ पी वी राधाकृष्णा बनाम कर्नाटक सरकार (2003) 6 एससीसी 443, शाम शंकर कंकरिया बनाम महाराष्ट्र सरकार (2006) 13 एससीसी 165, चाको बनाम केरल सरकार (2003) 1 एससीसी 112, सुरिन्दर कुमार बनाम हरियाणा सरकार (2011) 10 एससीसी 173] का उल्लेख करते हुए कहा :

    15. इसमें कहने की कोई बात नहीं है कि जब डाइंग डिक्लरेशन कानून के दायरे में रिकॉर्ड किया जाता है और इसमें घटना का अकाट्य एवं स्वीकार्य व्याख्या होती है, तो कोर्ट अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए इस पर एक मात्र साक्ष्य के रूप में भरोसा कर सकता है। इसी कारण से साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 32 सुने सुनाये साक्ष्य की स्वीकार्यता के खिलाफ सामान्य नियम का अपवाद है और इसका उपबंध (1) मृतक के बयान को स्वीकार्य बनाता है। 'डाइंग डिक्लरेशन' के रूप में वर्गीकृत ऐसा बयान एक ऐसे व्यक्ति द्वारा अपनी मौत के कारण के रूप में दिया जाता है या उस जख्म के बारे में जिसके कारण उसकी मौत होती है या उन परिस्थितियों के बारे में जिसके तहत वह जख्मी होता है। इस प्रकार डाइंग डिक्लरेशन इस आधार पर साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य किया जाता है कि मौत की आशंका के मद्देनजर उसी तरह की मानवीय भावनाएं पैदा होती हैं जैसा शुद्ध अंत:करण वाला और अपराध बोध से मुक्त व्यक्ति के मन में शपथ लेकर। यह ऐसा बयान है जिसमें व्यक्ति अपनी मौत से पहले अपने अंतिम शब्दों को समाहित करता है, जिन्हें सच माना जाता है, न कि किसी उद्देश्य या दुर्भावना से प्रेरित। इसीलिए डाइंग डिक्लरेशन को आवश्यकता के सिद्धांत पर साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य किया जाता है, क्योंकि इसमें बयान देने वाले के जिन्दा बचने की बहुत कम उम्मीद होती है और इसे यदि विश्वसनीय पाया जाता है तो इसे निश्चित तौर पर दोषसिद्धि का आधार बनाया जा सकता है।

    16. ....यद्यपि न तो कोई नियम है न ही कोई कानून कि डाइंग डिक्लरेशन पर बिना किसी पुष्टि के विचार नहीं किया जा सकता, फिर भी कोर्ट को इस बात को लेकर संतुष्ट होना ही चाहिए कि मृत्यु पूर्व घोषणा सच एवं स्वैच्छिक है और तभी इसे बगैर पुष्टि के दोषसिद्धि का एक मात्र आधार माना जा सकता है।

    बेंच ने 'सम्पत बाबसो काले एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार 2019 (4) एससीसी 739' मामले में कहा,

    "यह देखा गया है कि पीड़ित के बयान देने के लिए बेहतर मनोस्थिति में होने की पुष्टि बयान के पहले नहीं, बल्कि बयान के बाद की गयी थी। सामान्य तौर पर यह उल्टा होना चाहिए था।"

    कोर्ट ने कहा कि इस मामले में अभियोजन के पास डाइंग डिक्लरेशन रिकॉर्ड करने के लिए न्यायिक / कार्यकारी मजिस्ट्रेट बुलाने का पर्याप्त समय था। साथ ही, पुलिस अधिकारी ने स्वीकार किया है कि उसने बयान रिकॉर्ड करने से पहले डॉक्टर से इस बात की अनुमति नहीं ली थी कि क्या घायल व्यक्ति बयान देने के लिए बेहतर मनोस्थिति में था या नहीं।

    बेंच ने अभियुक्त की दोषसिद्धि यह कहते हुए दरकिनार कर दी,

    "22. ....यह सामान्य ज्ञान है कि ऐसे अधिकारी सभी जरूरी पूर्व शर्तों पर अमल करते हुए डाइंग डिक्लरेशन रिकॉर्ड करने के लिए न्यायिक तौर पर प्रशिक्षित होते हैं। इन शर्तों में मेडिकल ऑफिसर से यह प्रमाण पत्र या मंजूरी हासिल करना भी शामिल है कि पीड़ित व्यक्ति पूर्ण रूप से बयान देने की मनोस्थिति में था। हम यह जोड़ना चाहते हैं कि कानून के तहत अनिवार्य तौर पर डाइंग डिक्लरेशन रिकॉर्ड करने के लिए न्यायिक या कार्यकारी मजिस्ट्रेट की उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है या यह कि न्यायिक या कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा जब तक रिकॉर्ड नहीं किया जाता तब तक उस पर इकलौते साक्ष्य के तौर पर भरोसा नहीं किया जा सकता। यह केवल समझदारी है और यदि तथ्यों एवं परिस्थितियों की अनुमति है तो अभियोजन के केस को और अधिक मजबूती देने के लिए डाइंग डिक्लरेशन को प्राथमिकता के आधार पर न्यायिक या कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा रिकॉर्ड किया जा सकता है।"

    केस : जयम्मा बनाम कर्नाटक सरकार [ क्रिमिनल अपील 758 / 2010 ]

    कोरम : सीजेआई न्यायमूर्ति एन वी रमना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस

    साइटेशन : एलएल 2021 एससी 251

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