सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिपल मर्डर मामले में दोषसिद्धि को खारिज करते हुए 'सामान्य इरादे' और 'सामान्य उद्देश्य' के बीच अंतर स्पष्ट किया

Avanish Pathak

11 Oct 2023 4:48 PM IST

  • सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिपल मर्डर मामले में दोषसिद्धि को खारिज करते हुए सामान्य इरादे और सामान्य उद्देश्य के बीच अंतर स्पष्ट किया

    सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में "सामान्य इरादे" और "सामान्य उद्देश्य" के बीच मौजूद महत्वपूर्ण अंतर पर फिर विचार किया। इनका उल्लेख भारतीय दंड संहिता की धारा 34 और 149 में किया गया है।

    कोर्ट ने चित्तरमल बनाम राजस्थान राज्य पर भरोसा किया, जिसने पहले आईपीसी की धारा 149 सहपठित धारा 302 से आईपीसी की धारा 34 सहपठित धारा 302 में आरोपों के परिवर्तन पर विचार किया था।

    कोर्ट ने कहा,

    "सामान्य इरादे और सामान्य उद्देश्य के बीच एक स्पष्ट अंतर किया गया है। सामान्य इरादा एक साथ कार्रवाई को दिखाता है और आवश्यक पूर्व-निर्धारित योजना को दिखाता है, जिसमें सभी मस्तिष्कों मे आपसी मेल मौजूद होता है, जबकि सामान्य उद्देश्य के लिए आवश्यक रूप से म‌‌स्तिष्कों के आपसी मेल की पूर्व आवश्यकता नहीं होती है और ना एक साथ कार्रवाई की आवश्यकता होती है।"

    कोर्ट ने कहा,

    दोनों धाराओं के बीच पर्याप्त अंतर है, फिर भी वे कुछ हद तक ओवरलैप करती हैं और यह प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर तय किया जाने वाला प्रश्न है कि क्या धारा 149 के तहत आरोप धारा 34 द्वारा कवर किए गए आधार पर ओवरलैप होते हैं। इस प्रकार, यदि कई व्यक्ति, पांच या अधिक की संख्या में, कोई कार्य करते हैं और ऐसा करने का इरादा रखते हैं, तो धारा 34 और धारा 149 दोनों लागू हो सकती हैं।

    यदि सामान्य उद्देश्य में आवश्यक रूप से समान इरादा शामिल नहीं है, तो धारा 149 के स्थान पर धारा 34 के प्रतिस्थापन से अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह हो सकता है और इसलिए, इसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।"

    जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस पंकज मिथल की पीठ मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रही थी।

    हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 34 और धारा 201 सहपठित धारा 302 के तहत ट्रिपल मर्डर के मामले में दोषी ठहराया था। उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

    यह मामला उमा प्रसाद, विनोद कुमार और मुनाऊ, जिन्हें अनंत किशोर खरे के नाम से भी जाना जाता था, के कथित तिहरे हत्याकांड पर केंद्रित था।

    अभियोजन पक्ष के अनुसार, घटना 2 जून 1987 को हुई थी, जब विनोद कुमार इलाज के लिए मुनाऊ को नौगांव गांव ले गए थे। जब वे लौट कर नहीं आए तो दोनों के पिता उमा प्रसाद खरे ने नवल किशोर और मनुआ चाम्मेर को उनकी तलाश के लिए भेजा।

    उमा प्रसाद स्वयं खोज दल में शामिल हो गये। जैसे ही वे हनुमान मंदिर पहुंचे, अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि आरोपी आग्नेयास्त्रों और अन्य हथियारों से लैस होकर मंदिर के पास एकत्र हो गए थे। अपीलकर्ता, जिसकी पहचान आरोपी नंबर 2 के रूप में की गई है, और आरोपी नंबर 16 कथित तौर पर भाले से लैस थे। अपीलार्थी पर उमा प्रसाद के शव को घसीटकर कुएं में फेंकने का आरोप था।

    अभियोजन पक्ष ने आगे आरोप लगाया कि सभी आरोपियों ने विनोद कुमार खरे और मुनाऊ खरे को मारने की योजना बनाई थी। लगभग 15 मिनट के बाद, गोलियों की आवाज सुनी गई और विनोद कुमार खरे और मुनाऊ खरे की कथित तौर पर हत्या कर दी गई। हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने सभी आरोपियों को आरोपों के इस हिस्से से बरी कर दिया, और वह फैसला अंतिम रहा।

    अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसने आंशिक रूप से उनकी अपील को स्वीकार कर लिया, आईपीसी की धारा 302 के तहत उनकी सजा को आईपीसी की धारा 148 और/या 149 सहपठित धारा 302 सहपठित आईपीसी की धारा 34 के साथ बदल दिया। आईपीसी की धारा 201 के तहत अपीलकर्ता की सजा को बरकरार रखा गया।

    इससे दुखी होकर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    मौजूदा मामले में, अदालत ने दो प्रमुख गवाहों, पीडब्लू-1 और पीडब्लू-2 द्वारा प्रदान किए गए सबूतों की सावधानीपूर्वक जांच की। यह नोट किया गया कि "सामान्य इरादे" की उपस्थिति का कोई सबूत नहीं था और अकेले मृत व्यक्ति उमा प्रसाद को रोकने का कार्य आईपीसी की धारा 34 को लागू करने के लिए अपर्याप्त था।

    अदालत ने जोर देकर कहा,

    “मृतक उमा प्रसाद पर हमले में अभियोजन पक्ष के किसी भी गवाह द्वारा अपीलकर्ता को कोई भी प्रत्यक्ष कृत्य के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है। इस मामले में मन के पूर्व मेल का अनुमान लगाना मुश्किल है। सामान्य इरादे के अस्तित्व को साबित करने के लिए कोई सामग्री नहीं है जो आईपीसी की धारा 34 का आवश्यक घटक है। इस मामले में, एक सामान्य उद्देश्य और एक सामान्य इरादे के बीच कोई ओवरलैप नहीं है। इसलिए, धारा 34 सहपठित धारा 302 के तहत अपीलकर्ता की दोषसिद्धि को रद्द करना होगा।

    अदालत ने माना कि दो सुसंगत प्रत्यक्षदर्शियों, पीडब्लू-1 और पीडब्लू-2 द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य, आईपीसी की धारा 201 के तहत अपीलकर्ता को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त आधार प्रदान करते हैं, जो एक अपराध में सबूतों के गायब होने से संबंधित है।

    अदालत के फैसले में यह भी कहा गया कि अपीलकर्ता पहले ही आईपीसी की धारा 201 के तहत अपराध के लिए पांच साल की कठोर कारावास की सजा काट चुका है। इस प्रकार, न्यायालय ने अपीलकर्ता के बेल बांड रद्द कर दिए और उसे मुक्त कर दिया।

    केस टाइटल: चंद्र प्रताप सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य

    साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (एससी) 870

    फैसले को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

    Next Story