ओपेन डिस्टेंस लर्निंग और पारंपरिक संस्थानों के जरिए प्राप्त बीसीए डिग्रियों के बीच अंतर करना अनुच्छेद 14 का उल्लंघनः दिल्ली हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
4 Feb 2020 3:39 PM IST

दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि बीसीए की डिग्री, ओपन डिस्टेंस लर्निंग इंस्टीट्यूशन से प्राप्त की गई हो या पारंपरिक संस्थान/ कॉलेज से, एक ही बराबर मानी जाएगी।
30 जनवरी को दिए आदेश में जस्टिस राजीव शकधर ने कहा,"उन छात्रों के बीच वर्गीकरण, जिन्होंने ओडीएल संस्थानों से बीसीए डिग्री प्राप्त की है और जिन्होंने पारंपरिक विश्वविद्यालयों से डिग्री प्राप्त की है, किसी भी समझदार भिन्नता पर आधारित नहीं है। ऐसा वर्गीकरण स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण है। यह अनुचित रूप से उन छात्रों को उच्च शिक्षा से बाहर करता है, जिन्होंने ओडीएल संस्थानों से बीसीए डिग्री प्राप्त की है।"
कोर्ट ने उक्त टिप्पणियां उन छात्रों द्वारा दायर की गई दो याचिकाओं का निस्तारण करते हुए की, जिन्हें गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय ने एमसीए प्रोग्राम में शामिल होने से 'रोक' दिया क्योंकि उन्होंने ओडीएल संस्थानों से बीसीए की डिग्री प्राप्त की थी।
हाईकोर्ट ने युनिवर्सिटी के आदेश को रद्द करते हुए कहा कि "किसी व्याक्ति को उच्च शिक्षा से मात्र इस आधार पर वंचित करना कि उसने अपनी अर्हता डिग्री अनौपचारिक क्षेत्र से प्राप्त की है, बिलकुल अनुचित है।"
मामले में अब्दुल मोतीन बनाम मणिशंकर मैती, (2018) 16 SCC 533 के फैसले पर भरोसा कायम किया गया।
यूजीसी ने भी हाईकोर्ट के समक्ष इसी प्रकार की प्रस्तुती दी थी। उनकी चिंता थी कि ऐसे स्टूडेंट्स, जिन्होंने औपचारिक शिक्षण संस्थानों से शिक्षा प्राप्त नहीं की है, उन्हें उच्च शिक्षा और नौकरी दोनों से हाथ धोना पड़ रहा है।
कोर्ट ने कहा चूंकि एमसीए के लिए स्टूडेंट्स का चयन प्रवेश परीक्षा के जरिए किया गया था, इसलिए विश्वविद्यालय उनके ज्ञान का परीक्षण कर चुका था, और इस प्रकर, "इस बात का कोई सुराग नहीं दिया गया कि पारंपरिक विश्वविद्यालय से प्राप्त बीसीए डिग्री गुणात्मक स्तर से ओडीएल संस्थानों/कॉलेजों से प्राप्त डिग्री से बेहतर कैसे है?"
कोर्ट ने कहा कि 2019 की प्रवेश परीक्षा के लिए बीसीए डिग्री को पात्रता मानदंड के रूप में निर्धारित किया गया था, और यह निर्धारित नहीं किया कि डिग्री पारंपरिक विश्वविद्यालय से ही प्राप्त की जाना चाहिए।
कोर्ट ने आगे कहा कि विश्वविद्यालय ने अपने एडमिशन ब्रोशर में 'फुलटाइम' शब्द का प्रयोग किया है, हालांकि उसे परिभाषित नहीं किया है, साथ ही स्पष्ट रूप से यह भी नहीं बताया है कि जिन छात्रों ने ओडीएल संस्थानों से बीसीए डिग्री प्राप्त की है, वे एमसीए कार्यक्रम के लिए आवेदन करने के पात्र हैं या नहीं।
नोटिफिकेशन में दी एक व्याख्या और भ्रम पैदा करता है कि जिन छात्रों ने ओडीएल संस्थानों से शिक्षा प्राप्त की है, उन्हें अपने स्टडी सेंटर को डॉक्यूमेंटरी एविडेंस भी प्रस्तुत करना होगा।
कोर्ट ने विश्वविद्यालय के इस तर्क को खारिज कर दिया कि ओडीएल संस्थान, फुल टाइम कोर्स के बाद अर्जित होने वाली अर्हता को पूरा नहीं करते।
कोर्ट ने कहा कि 'फुलटाइम कोर्स' शब्द से प्रवेश प्रक्रिया पर कोई असर नहीं पड़ता है।
कोर्ट ने अंतिम रूप से स्पष्ट किया कि कोर्ट आम तौर पर उन निकायों के फैसलों में हस्तक्षेप नहीं करती, जिनके पास उस क्षेत्र की विशेषज्ञता होती है। हालांकि, उनके फैसले "न्यायसंगत" हों, खासकर उन मामलों में जहां उनके फैसलों का निष्पक्षता और औचित्य से संबंध हो।
इस संबंध में, कोर्ट ने राजस्थान राज्य बनाम लता अरुण, (2002) 6 एससीसी 252 मामले में में उच्चतम न्यायालय के शब्दों को दोहराया।
"एक उपयुक्त मामले में अदालत इस बात की जांच कर सकती है कि क्या नीतिगत निर्णय या प्रशासनिक आदेश निष्पक्ष, तर्कसंगत और उचित आधार पर आधारित है या नहीं। क्या मामले के सभी प्रासंगिक पहलुओं पर विचार किया गया है; क्या अधिकार का उपयोग किया गया ग़लत इरादे से किया गया है? क्या फैसला भर्ती उम्मीदवारों को उचित प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से कार्य करता है या यह अप्रासंगिक और तर्कहीन विचारों पर आधारित है या किसी व्यक्ति या उम्मीदवारों के समूह को लाभान्वित करने का इरादा रखता है।"
मामले का विवरण:
केस टाइटल: मो करीम बनाम गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय व अन्य (एक और जुड़े मामले के साथ)
केस नं : WP (C) 10522/2019
कोरम: जस्टिस राजीव शकधर
प्रतिनिधि: एडवोकेट अंकित यादव और विवेक बी सहारया (याचिकाकर्ता के लिए); एडवोकेट जसबीर बिधूड़ी (विश्वविद्यालय के लिए); एडवोकट अपूर्व कुरुप (यूजीसी के लिए)
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