प्रतिवादी अपना स्वामित्व स्थापित नहीं कर सके, केवल इसलिए कब्जे का फैसला वादी के पक्ष में नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट
Avanish Pathak
10 Jan 2023 3:46 PM IST
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वादी के पक्ष में कब्जे का हुक्मनाम केवल इसलिए पारित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि प्रतिवादी संपत्ति में अपने अधिकार, स्वामित्व और हित को पूरी तरह से स्थापित करने में सक्षम नहीं थे।
जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस जेके माहेश्वरी की पीठ ने कहा कि बचाव पक्ष की कमजोरी मुकदमे में आदेश पारित करने का आधार नहीं हो सकती है। अदालत ने कहा कि प्रतिवादियों को तब तक बेदखल नहीं किया जा सकता जब तक कि वादी ने वादी की संपत्ति पर बेहतर स्वामित्व और अधिकार स्थापित नहीं किया हो।
1986 में स्मृति देबबर्मा ने एक एटॉर्नी के रूप में महारानी चंद्रतारा देवी की ओर से स्वामित्व वाद दायर किया, जिसमें यह घोषणा करने की प्रार्थना की गई कि महारानी चंद्रतारा देवी 'खोश महल' के रूप में जानी जाने वाली संपत्ति की मालिक हैं।
1996 में ट्रायल कोर्ट ने यह कहते हुए मुकदमे का फैसला सुनाया कि वादी का उक्त संपत्ति में अधिकार, स्वामित्व और हित था। प्रतिवादियों की अपीलों को स्वीकार करते हुए, गुवाहाटी हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को उलट दिया।
अपील में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने इस निष्कर्ष से सहमति व्यक्त की कि वादी साक्ष्य और रिकॉर्ड पर रखे गए दस्तावेजों के आधार पर विषय संपत्ति के संबंध में कानूनी स्वामित्व और टाइटल स्थापित करने के लिए सबूत के बोझ का निर्वहन नहीं कर पाया।
इस संदर्भ में पीठ ने कहा,
"प्रतिवादियों को तब तक बेदखल नहीं किया जा सकता जब तक कि वादी ने शेड्यूल 'ए' प्रॉपर्टी पर एक बेहतर स्वामितव और अधिकार स्थापित नहीं किया है....वादी के पक्ष में कब्जे के हुक्मनो को इस आधार पर पारित नहीं की जा सकती है कि प्रतिवादी शेड्यूल 'ए' संपत्ति में अपने अधिकार, स्वामित्व और हित को पूरी तरह से स्थापित नहीं कर पाया।"
अदालत ने कहा कि स्वामित्व स्थापित करने के लिए सबूत का बोझ वादी पर है, क्योंकि यह बोझ उस पक्ष पर है जो किसी विशेष स्थिति के अस्तित्व का दावा करता है, जिसके आधार पर वह राहत का दावा करता है।
अदालत ने अपील खारिज करते हुए कहा,
"यह साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 के संदर्भ में अनिवार्य है, जिसमें कहा गया है कि तथ्य को साबित करने का बोझ उस पक्ष पर है जो सकारात्मक रूप से दावा करता है और न कि उस पक्ष पर जो इसे अस्वीकार कर रहा है।
यह नियम सार्वभौमिक नहीं हो सकता है और इसमें अपवाद हैं, लेकिन वर्तमान मामले की तथ्यात्मक पृष्ठभूमि में, सामान्य सिद्धांत लागू होता है।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 102 के संदर्भ में, यदि दोनों पक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहते हैं, तो मुकदमा विफल होना चाहिए।
सबूत का दायित्व, निःसंदेह बदलाव और स्थानांतरण साक्ष्य के मूल्यांकन में एक सतत प्रक्रिया है, लेकिन यह तब होता है जब स्वामित्व और कब्जे के मुकदमे में वादी प्रतिवादी पर जिम्मेदारी स्थानांतरित करने की उच्च संभावना बनाने में सक्षम होता है। ऐसे साक्ष्य की अनुपस्थिति में, सबूत का भार वादी पर होता है और उसे तभी छोड़ा जा सकता है जब वह अपना स्वामित्व सिद्ध करने में सक्षम हो। बचाव पक्ष की कमजोरी मुकदमे को डिक्री करने का औचित्य नहीं हो सकती।
वादी शेड्यृल 'ए' प्रस्ताव के संबंध में सफल हो सकता था अगर उसने शेड्यूल 'ए' संपत्ति के स्वामित्व को साबित करने के लिए बोझ का निर्वहन किया था, जो पूरी तरह से उसके ऊपर पड़ता है। यह साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 और 102 का सही प्रभाव होगा।",
केस डिटेलः स्मृति देबबर्मा (डी) बनाम प्रभा रंजन देबबर्मा | 2022 लाइवलॉ (SC) 19 | CA 878 Of 2009 | 4 जनवरी 2023 | जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस जेके माहेश्वरी
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