उपभोक्ता आयोग अत्यधिक विवादित तथ्यों, आपराधिक या अत्याचारी कृत्यों से जुड़ी शिकायतों पर फैसला नहीं कर सकते: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

29 March 2023 12:06 PM IST

  • उपभोक्ता आयोग अत्यधिक विवादित तथ्यों, आपराधिक या अत्याचारी कृत्यों से जुड़ी शिकायतों पर फैसला नहीं कर सकते: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दोहराया कि उपभोक्ता अदालतें तथ्यों के अत्यधिक विवादित प्रश्नों या कपटपूर्ण कृत्यों या धोखाधड़ी जैसे आपराधिक मामलों से संबंधित शिकायतों का फैसला नहीं कर सकती। इसने कहा कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत "सेवा में कमी" की अवधारणा को आपराधिक या अत्याचारपूर्ण कृत्यों से अलग किया जाना चाहिए।

    जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस बेला त्रिवेदी की खंडपीठ ने समझाया,

    "आयोग के समक्ष कार्यवाही प्रकृति में संक्षिप्त होने के कारण तथ्यों के अत्यधिक विवादित प्रश्नों या कपटपूर्ण कृत्यों या धोखाधड़ी जैसे आपराधिक मामलों से संबंधित शिकायतों को उक्त अधिनियम के तहत फोरम/आयोग द्वारा तय नहीं किया जा सकता। "सेवा में कमी", जैसा कि अच्छी तरह से तय किया गया है, उसको आपराधिक कृत्यों या अत्याचारपूर्ण कृत्यों से अलग करना होगा। अधिनियम की धारा 2(1)(जी) के अनुसार, सेवा में प्रदर्शन की गुणवत्ता, प्रकृति और तरीके में इरादतन गलती, अपूर्णता, कमी या अपर्याप्तता के संबंध में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। सेवा में कमी को साबित करने का भार हमेशा आरोप लगाने वाले व्यक्ति पर होगा।"

    उपभोक्ता आयोगों के आदेशों के खिलाफ सिटी यूनियन बैंक द्वारा दायर अपील पर कोर्ट फैसला कर रहा था।

    मामले में मलेशिया के एनआरआई द्वारा तीन फ्लैटों की खरीद के लिए तीन ड्राफ्ट जारी किए गए। तीन में से एक ड्राफ्ट 5 लाख रुपये की राशि का था और दो ड्राफ्ट 3 तीन लाख और 6 लाख रुपये के लिए थे। बाद वाले सेट को "डी-क्यूब कंस्ट्रक्शन" के नाम से जारी किया गया न कि "डी-क्यूब कंस्ट्रक्शन्स (प्रा) लिमिटेड के नाम से। अकाउंड "डी-क्यूब कंस्ट्रक्शन" आर तुलसीराम द्वारा खोला गया, जबकि वह "डी-क्यूब कंस्ट्रक्शन (पी) लिमिटेड" के निदेशकों में से एक था। अपीलकर्ता बैंक को "डी-क्यूब कंस्ट्रक्शन" के नाम से चालू खाता खोलने के लिए "अनापत्ति" देने के लिए "डी-क्यूब कंस्ट्रक्शन (पी) लिमिटेड" से पत्र प्राप्त हुआ।

    उक्त कंपनी के निदेशकों के बीच कुछ विवाद चल रहे थे, विवादित दो ड्राफ्ट जो "डी-क्यूब कंस्ट्रक्शन" के नाम पर थे, "डी-क्यूब कंस्ट्रक्शन" के खाते में जमा किए गए थे। प्रतिवादी शिकायतकर्ता द्वारा जानकारी मांगने के बाद भी अपीलकर्ता बैंक ने उसे उपलब्ध नहीं कराया।

    इसके बाद प्रतिवादी को इंडियन ओवरसीज बैंक से पता चला कि डिमांड ड्राफ्ट दूसरे अपीलकर्ता बैंक से समाशोधन के लिए प्रस्तुत किया गया और इसका भुगतान सिटी यूनियन बैंक, राम नगर शाखा को किया गया। प्रतिवादी ने एक बार फिर अपीलकर्ता बैंक से यह सूचित करने का अनुरोध किया कि उक्त दो ड्राफ्ट की राशि कुछ अन्य खातों में जमा की गई और इसलिए इसे उसके करंट अकाउंट में फिर से जमा किया जाना है।

    इसके बाद ही प्रतिवादी को दो अलग-अलग खातों के बारे में पता चला। अपीलकर्ता की ओर से मिलीभगत और लापरवाही का आरोप लगाते हुए उन्होंने राज्य आयोग के समक्ष शिकायत दर्ज की।

    "सेवा में कमी" के आधार पर जुर्माना के साथ शिकायत की अनुमति देते हुए राज्य आयोग ने अपीलकर्ताओं को प्रतिवादी को 8 लाख रुपये मुआवजे और मानसिक पीड़ा, हानि और कठिनाई के लिए एक लाख रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया। उक्त निर्देश से व्यथित होकर अपीलकर्ताओं ने राष्ट्रीय मंच के समक्ष अपील दायर की, जो खारिज कर दी गई।

    इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।

    प्रतिवादी-शिकायतकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि जब दो प्लेटफॉर्म ने लगातार अपीलकर्ताओं को सेवा में कमी के लिए उत्तरदायी ठहराया तो न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

    साथ ही उन्होंने प्रस्तुत किया कि बैंक अपने कर्मचारियों के कृत्यों के लिए अप्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी होगा। यह नहीं कहा जा सकता कि उक्त अधिनियम की धारा 2(जी) के अर्थ के भीतर अपीलकर्ता-बैंक की ओर से सेवा में कमी के रूप में इसे परिभाषित करने के लिए कोई इरादतन चूक या अपूर्णता या कमी थी।

    खंडपीठ ने देखा कि भले ही शिकायत में आरोपों को उनके अंकित मूल्य पर लिया गया हो, यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि अपीलकर्ता बैंक के कर्मचारियों की ओर से कर्तव्य के निर्वहन में "कोई जानबूझकर गलती, अपूर्णता, कमी या अपर्याप्तता" नहीं थी, जिसे उक्त अधिनियम की धारा 2(1)(जी) के तहत "सेवा में कमी" कहा जा सके।

    अदालत ने कहा,

    "जैसा कि रिकॉर्ड से पता चलता है कि कंपनी के निदेशकों में से एक के बीच कुछ विवाद चल रहे थे, यदि कथित रूप से धोखाधड़ी की गई थी तो बैंक के कर्मचारियों को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, यदि उन्होंने सद्भावनापूर्ण कार्य किया और उचित प्रक्रिया का पालन किया।"

    न्यायालय के अनुसार, प्रतिवादी-शिकायतकर्ता अधिनियम की धारा 2(1)(जी) के तहत अपीलकर्ता-बैंक के कर्मचारियों की ओर से सेवा में कमी को साबित करने के अपने दायित्व का निर्वहन करने में बुरी तरह विफल रहा।

    अदालत ने उपभोक्ता अदालतों द्वारा पारित दो आदेशों को निरस्त करने की कार्यवाही की।

    केस टाइटल:अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक, सिटी यूनियन बैंक लिमिटेड और अन्य बनाम आर. चंद्रमोहन| सिविल अपील नंबर 7289/2009

    साइटेशन : लाइवलॉ (एससी) 251/2023

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