भोपाल गैस त्रासदी मामले में केंद्र की क्यूरेटिव पिटीशन की अगले सप्ताह सुनवाई करेगी संवैधानिक बेंच

LiveLaw News Network

25 Jan 2020 9:54 AM GMT

  • भोपाल गैस त्रासदी मामले में केंद्र की क्यूरेटिव पिटीशन की अगले सप्ताह सुनवाई करेगी संवैधानिक बेंच

    सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ 28 जनवरी, 2020 से निम्नलिखित मामलों की सुनवाई करेगी।

    भोपाल गैस त्रासदी -सुरक्षा याचिका

    भारत के संघ एम/एस यूनिअन कार्बाइड कॉर्पोरशन

    यह मामला 2011 में केंद्र द्वारा भोपाल गैस त्रासद‌ी के पीड़ितों को अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड ( जो अब डॉव केमिकल्स के स्वामित्व में है) से अतिरिक्त मुआवजे दिलाने के लिए दायर एक क्यूरेटिव पिटीशन से संबंधित है।

    दिसंबर 2010 में दायर याचिका में 7413 करोड़ रुपये के अतिरिक्त मुआवजे की मांग की गई थी, साथ ही सुप्रीम कोर्ट के 14 फरवरी, 1989 के फैसले के पुनर्परीक्षण की मांग की गई थी, जिसमें क्षतिपूर्ति की रा‌शि 470 मिलियन अमेरिकी डॉलर (750 करोड़ रुपये) तय की गई ‌थी। 15 फरवरी और 4 मई के आदेशों में भुगतान और समझौते के तरीकों का ‌निर्धारण किया गया था।

    केंद्र सरकार के अनुसार, पहले का समझौता भोपाल गैस त्रासदी में हुए नुकसान, मृतकों और घायलों की संख्या की गलत धाराणाओं पर आधारित था। उस समझौते में दुर्घटना से हुए पर्यावरणीय नुकसान को भी ध्यान में नहीं रखा गया था। पुराना समझौता 3,000 मौतों और 70,000 घायलों आंकड़े पर आधारित था, जबकि क्यूरेटिव पिटीशन में मृतकों की संख्या 5,295 और घायलों की संख्या 527,894 होने का दावा किया गया है।

    उपभोक्ता मामले: विरोधी का पक्ष दायर करने के लिए 30 दिनों की समय सीमा का आरंभिक बिंदु?

    न्यू इंडिया एस्योरेंश कंपनी लिमिटेड बनाम हिल्ली मल्टीपरपज कोल्ड स्टोरेज प्रा लिमिटेड

    इन मामलों में संदर्भित मुद्दा है:

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 13 के तहत निर्धारित 30 दिनों की समय सीमा का प्रारंभ बिंदु क्या है?

    रिफरिंग बेंच ने कहा है कि जेजे मर्चेंट के मामले में की गई घोषणा, कि 30 दिनों की अवधि की गणना न्यायिक इकाई द्वारा श‌िकायत की स्व‌ीकृति की सूचना प्राप्त होने की तारीख से किया जाना चाहिए, का एक्ट के पाठ में कोई आधार नहीं है।

    बेंच के अनुसार, ऐसी नोटिस प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर बयान दर्ज करने की जिद किसी महत्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकती है, जबकि लिखित बयान दाखिल होने के बाद मामले को न्याय‌िक इकाई द्वारा तुरंत उठाए जाने की कोई संभावना नहीं है।

    क्या राज्य पीजी मेडिकल कोर्सेज में प्रवेश की विधि और तरीकों पर कानून बना सकता है?

    तमिलनाडु मेडिकल ऑफिसर्स एसोसिएशन बनाम भारत संघ

    तीन जजों की बेंच ने उत्तर प्रदेश राज्य बनाम दिनेश सिंह चौहान के मामले में दिए कोऑर्डिनेटेड बेंच द्वारा दिए गए फैसले पर संदेह जताया है। इन रिट याचिकाओं में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या किसा राज्य को स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश के तरीके और विधि पर कानून बनाने की अपनी शक्ति से वंचित जा सकता है।

    संदर्भित आदेश में पाया गया कि दिनेश सिंह चौहान मामले में सातवीं अनुसूची की विधायी सूचियों में प्रविष्टियों पर, विशेष रूप से संघ सूची की प्रवि‌ष्टि 66 और समवर्ती सूची के प्रविष्टि 25 पर विचार नहीं किया गया था।

    याचिकाओं में एक घोषणा की मांग की गई है कि पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन रेगुलेशन, 2000 [विशेष रूप से, रेगुलेशन 9 (iv)और 9 (vii)] का रेगुलेशन 9, डिग्री कोर्स में प्रवेश के इच्छुक इन-सर्विस उम्मीदवारों के लिए प्रवेश का एक अलग स्रोत प्रदान करने के लिए, एंट्री 25, लिस्ट 3 के तहत राज्यों की शक्ति को छीन नहीं सकता है।

    वैकल्पिक रूप से, याचिकाओं में यह प्रार्थना की गई है कि, अगर पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल रेगुलेशन्स 2000 के रेगुलेशन 9 के बारे में समझा जाता है कि वह राज्यों को प्रवेश के लिए एक अलग स्रोत प्रदान करने की अनुमति नहीं देता है, तो एक परम आदेश या किसी अन्य उपयुक्त रिट/आदेश/निर्देश की अधिसूचना जारी करके, नियम 9 (विशेष रूप से, रेगुलेशन 9 (iv) और 9 (vii) को मनमाना, भेदभावपूर्ण और अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 (1)(g)का उल्लंघनकारी घोषित किया जाए। भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 के प्रावधानों का उल्लंघन भी माना जाए।

    बेंच मामले याचिकाकर्ताओं द्वारा मांगी गई अंतरिम राहत से इनकार कर चुकी है।

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