नॉन-कंपाउंडेबल मामलों में दी गई सजा कम करने के लिए आरोपी और पीड़ित के बीच समझौता एकमात्र आधार नहीं हो सकता: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

21 Sep 2021 5:37 AM GMT

  • नॉन-कंपाउंडेबल मामलों में दी गई सजा कम करने के लिए आरोपी और पीड़ित के बीच समझौता एकमात्र आधार नहीं हो सकता: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नॉन-कंपाउंडेबल अपराधों में दी गई सजा कम करने के लिए आरोपी और पीड़ित के बीच समझौता एकमात्र आधार नहीं हो सकता है।

    न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति अभय एस. ओका की पीठ ने कहा कि उक्त उद्देश्य के लिए मामले की गम्भीरता को बढ़ाने और कम करने वाले कारकों की भी जांच की जानी चाहिए।

    अपीलकर्ता के खिलाफ मामला यह था कि 13 दिसंबर 1993 को उसने पीड़िता के घुटने के नीचे दाहिने पैर पर तलवार से हमला किया था और क्रूर प्रहार के कारण वह लगभग क्षत-विक्षत हो गया। दरांती के प्रहार से बचने का प्रयास करते हुए घायल ने अपना दाहिना हाथ उठाकर बचने की कोशिश की और प्रहार उसके दाहिने हाथ को कोहनी के नीचे लगा जिससे वह अलग हो गया और काफी खून बह रहा था।

    यदि तत्काल चिकित्सा व्यवस्था मुहैया नहीं कराई जाती तो उसके बिना पीड़ित जख्म के कारण मर जाता। ट्रायल कोर्ट ने उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 326 के तहत दोषी ठहराया और 7 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। हाईकोर्ट ने दोषसिद्धि को बरकरार रखा लेकिन अपराधी की सजा को कम करके 5 साल के सश्रम कारावास में बदल दिया और उसे पीड़ित को आर्थिक मुआवजे के रूप में 2 लाख रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया।

    सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील में, एक समझौता हलफनामा दायर किया गया था, जिसमें आरोपी और पीड़ित ने कहा था कि उन्होंने अपने विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया है और परिवारों के संबंध बहुत सौहार्दपूर्ण हैं और वे अब एक-दूसरे के परिवार के साथ वैवाहिक संबंध हो जाने के बाद नजदीकी तौर पर जुड़ गये हैं। उक्त घटना गलतफहमी के कारण और पल भर में घटित हुई है।

    समझौता हलफनामे पर विचार करते हुए, पीठ ने कहा कि 'तथ्य का बयान यांत्रिक रूप में पूरी तरह से अनावश्यक है और पहले के संबंधों, यदि कोई हो, या कब इस तरह के सौहार्दपूर्ण संबंध बने या बाद में किस तरह के पारिवारिक संबंध विकसित हुए हैं, इन सभी के बारे में कुछ भी नहीं पता चलता है। ऐसे तथ्य पूरी तरह से गायब हैं और चीजें स्टेरियोटाइप हैं।'

    कोर्ट ने निम्नलिखित अवलोकन किए:

    गलत करने वाले को सजा देना ही आपराधिक न्याय डिलीवरी प्रणाली का मुख्य केंद्र है

    28. गलत करने वाले को सजा देना आपराधिक न्याय डिलीवरी प्रणाली का मुख्य केंद्र है, लेकिन हमें ट्रायल कोर्ट का आकलन करने के लिए कोई भी विधायी या न्यायिक रूप से निर्धारित दिशा-निर्देश नहीं मिलते हैं, जो मुकदमे का सामना करने वाले अभियुक्त को आरोपों का दोषी ठहराकर न्यायसंगत सजा देता है। फिर भी, यदि कोई इस न्यायालय के निर्णयों को पढ़ता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह न्यायालय सजा में विवेक का प्रयोग करते हुए विभिन्न कारकों के संयोजन को ध्यान में रखता है, जैसे आनुपातिकता, प्रतिरोध, पुनर्वास आदि।

    मामले की गम्भीरता को बढ़ाने और कम करने वाले कारकों की जांच की जानी चाहिए

    29. यदि समझौता घटना के बाद के चरण में या दोषसिद्धि के बाद भी किया जाता है, तो वास्तव में अभियुक्त और पीड़ित के परिवारों में कड़वाहट से बचने के लिए किए जा रहे अपराध की प्रकृति के अनुरूप सजा में हस्तक्षेप करने वाले कारकों में से एक हो सकता है। और यदि संभव हो तो उनके रिश्ते को बहाल करना हमेशा बेहतर होगा, लेकिन समझौता एक अकेले आधार के रूप में नहीं लिया जा सकता है जब तक कि मामले की गम्भीरता को बढ़ाने और कम करने वाले कारक भी समर्थन नहीं करते हैं और सजा में संशोधन अभियुक्त के अनुकूल होते हैं, जिसकी हमेशा मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के दायरे में जांच की जानी चाहिए।

    कोर्ट ने कहा कि मौजूदा मामले में, घायल पीड़ित को जीवन भर के लिए अपंग बना दिया गया है और वह कृत्रिम हाथ और पैर के साथ अपने दैनिक कामों को अंजाम देता है। उसने शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को खो दिया है और वह स्थायी रूप से दिव्यांग हो गया है। कोर्ट ने कहा कि हमारे विचार से ऐसी क्रूरता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है जो न केवल व्यक्ति के खिलाफ है, बल्कि ऐसा अपराध समाज के खिलाफ है, जिससे सख्ती से निपटा जाना चाहिए।

    कोर्ट ने अपील खारिज करते हुए कहा,

    "हम उस तरह के समझौते से अपनी संतुष्टि दर्ज करने में सक्षम नहीं हैं जो अब किया गया है और घटना के 28 वर्षों के बाद रिकॉर्ड पर लाया गया है। यह कोर्ट पीड़ित को इतने लंबे समय तक झेलने वाले कष्टों से बेखबर नहीं हो सकता है। 13 दिसंबर, 1993 की कथित घटना के कारण पीड़ित जीवन भर के लिए अपंग हो गया, उसके पैर और हाथ को काट दिया गया है और तब से वह जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है और कृत्रिम हाथ एवं पैर के साथ अपनी दिनचर्या का काम कर रहा है, उसने शरीर के महत्वपूर्ण अंग खो दिये हैं और वह स्थायी रूप से अक्षम हो गया है और अपीलकर्ता का ऐसा कार्य अक्षम्य है।"

    साइटेशन : एलएल 2021 एससी 478

    केस का नाम: भगवान नारायण गायकवाड़ बनाम महाराष्ट्र सरकार

    केस नं. / तिथि: सीआरए 1039/2021, 20 सितंबर 2021

    कोरम: जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस अभय एस. ओका

    वकील: वरिष्ठ अधिवक्ता महेश जेठमलानी, सरकार के लिए अधिवक्ता सचिन पाटिल

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