नागरिकता संशोधन कानून असंवैधानिक, क्योंकि यह धर्म के आधार पर व्यक्तियों के बीच अंतर करता हैः जस्टिस गोपाल गौड़ा

LiveLaw News Network

22 March 2021 2:35 AM GMT

  • नागरिकता संशोधन कानून असंवैधानिक, क्योंकि यह धर्म के आधार पर व्यक्तियों के बीच अंतर करता हैः जस्टिस गोपाल गौड़ा

    सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज, जस्टिस वी गोपाल गौड़ा ने शुक्रवार को कहा, "एसआर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 1994 में दिए फैसले में कहा था कि संसद या राज्यों की विधायिका धर्म के आधार कोई भी कानून लागू नहीं कर सकती हैं। मेरा मानना है कि सीएए, जो व्यक्तियों को धर्म के आधार पर अलग करता है, बोम्मई के अनुसार, असंवैधानिक है।"

    वह सीनियर एडवोकेट डॉ केएस चौहान की किताब 'नागरिकता, अधिकार और संवैधानिक मर्यादा' के विमोचन समरोह में बोल रहे थे। किताब को मोहन लॉ हाउस ने छापा है। कार्यक्रम में पूर्व उप राष्‍ट्रपति हामिद अंसारी भी मौजूद थे।

    उन्होंने असम की मौजूदा तथ्यात्मक स्थिति की ओर इशारा किया, जहां 2019 में NRC की कार्रवाई की गई थी। बाद में वह एक फैक्ट फाइंडिंग कमेटी के चेयरमैन के रूप में वहां गए थे।

    उन्होंने बताया, "लाखों लोग हैं, जो कई दशक पहले प्रवासी के रूप में असम आए, लेकिन वह आज साबित अपनी नागरिकता साबित नहीं कर सकते। NRC और NPR एक व्यक्ति को स्थिति प्रदान करने और उस व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को निर्धारित करने के लिए शक्ति प्रदान करता है, जो पहले से ही भारत में निवास कर रहा है! इसलिए एक व्यक्ति जो कोई नहीं है, वह, वह व्यक्ति है, जो अध‌िनियम के तहत नाम, जन्म और मृत्यु का पंजीकरण करता है, अधिनियम, एक जांच आयोजित करने के लिए नामित किया गया है! यह उन व्यक्तियों की दुर्दशा है, जिनकी नागरिकता निर्धारित की जा रही है!"

    "यह वह व्यक्ति है, जिसे (अपने दावे) को स्थापित करना चाहिए, यह वह व्यक्ति है, जिसे अपना जन्म प्रमाण पत्र पेश करना चाहिए, यह वह है जिसे यह साबित करना होगा कि उसके माता-पिता में से एक इस देश में पैदा हुए थे! और यह सब कई दशकों बाद करना होगा! एक ऐसा देश, जहां 50% से अधिक आबादी निरक्षर है और अपना रिकॉर्ड नहीं रखती है!"

    "गणतंत्र भारत में 70 वर्षों बाद, आप कानून में संशोधन करते हैं और कहते हैं कि अन्य देशों के व्यक्ति, जिनका उत्पीड़न हो रहा हैं और यहां आकर रह रहे हैं, उन्हें नागरिक के रूप में मान्यता दी जाएगी, जबकि भारतीय मूल के व्यक्ति जो श्रीलंका में हैं आदि, जो यहां हैं, उन्हें कोई नागरिकता अधिकार नहीं दिया जाएगा।"

    यह देखते हुए कि मिनर्वा मिल्स के 1980 के संविधान पीठ के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि न्यायाधीश समाज की वास्तविकताओं के संरक्षक हैं, जस्टिस गौड़ा ने "मानवाधिकार रक्षकों, कानून के छात्रों, कानूनी बिरादरी और अदालतों से अनुरोध किया कि उन्हें बचाने के लिए आगे आएं।"

    ज‌स्ट‌िस गौड़ा ने बताया कि संविधान निर्माता डॉ बीआर अंबेडकर ने संविधान सभा में धर्म के आधार पर नागरिकता देने के विचार को अस्वीकार करने के लिए तीखी बहस की थी, "डॉ बीआर अंबेडकर ने स्वीकार किया कि कोई अन्य अनुच्छेद नहीं है, जिसने मसौदा समिति को इतनी परेशानी दी हो, यह देखते हुए कि इस तरह के प्रारूप कैसे तैयार किए गए और कितने सभी मामलों को कवर करने के प्रयास में नष्ट हो गए।

    जस्टिस गौड़ा ने कहा कि भारत के पहले प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि नागरिकता के लिए धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण को अपनाना उदारता नहीं, बल्कि केवल कुछ गुमराह और पिछड़े देशों को छोड़ दिया जाए तो वही है, जो बाकी देश कर रहे हैं।

    एक अन्य सदस्य अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर ने कहा था कि नागरिकता प्रदान करने में, हम उन लोगों के बीच अंतर कर सकते हैं जो दूसरे देश को अपने घर के रूप में चुनते हैं और जो इस देश के साथ अपना संबंध बनाए रखते हैं, लेकिन धर्म के आधार पर ऐसा नहीं कर सकते हैं।

    उन्होंने कहा, "नागरिकता एक राष्ट्र-राज्य की आधारश‌िला है। यह एक अनिवार्य डीएनए है, जो एक लोकतंत्र को जीवन और जीवन शक्ति का अधिकार देता है। नागरिकता की कोई भी हानि लोकतंत्र को खराब करती है। यह स्थिति, अधिकार और पहचान की अंतरगता है, जो एक लोकतंत्र में नागरिकता की प्रभावशीलता को निर्धारित करती है।"

    जस्टिस गौड़ा मौजूदा समय को एक ऐसे समय के रूप में परिभाषित किया, जब "देशवासियों को भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है और कानून का शासन दांव पर है और नागरिकता अधिकार की समस्याएं बहुत बड़ी हैं।"

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