सुप्रीम कोर्ट ने POCSO दोषी की पीड़िता को क्रॉस एक्जामिनेशन के लिए वापस बुलाने की याचिका खारिज की

Shahadat

24 Sept 2025 9:55 AM IST

  • सुप्रीम कोर्ट ने POCSO दोषी की पीड़िता को क्रॉस एक्जामिनेशन के लिए वापस बुलाने की याचिका खारिज की

    सुप्रीम कोर्ट ने 11 साल की बच्ची से बलात्कार के दोषी व्यक्ति द्वारा दायर याचिका खारिज की, जिसमें उसने क्रॉस एक्जामिनेशन के लिए पीड़िता को वापस बुलाने की मांग की। कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट द्वारा उसकी दोषसिद्धि हाईकोर्ट ने बरकरार रखी। कोर्ट ने कहा कि इस तरह की राहत देने से बाल दुर्व्यवहार पीड़ितों को दोबारा आघात पहुंचेगा और न्याय व्यवस्था कमज़ोर होगी।

    कोर्ट ने कहा,

    "अदालतों का यह कर्तव्य है कि वे यह सुनिश्चित करें कि बाल दुर्व्यवहार पीड़ितों को उसी न्याय व्यवस्था द्वारा दोबारा आघात न पहुंचाया जाए, जिसकी ओर वे सुरक्षा की गुहार लगाते हैं। ऐसे गंभीर मामलों में खासकर जब पूरी सुनवाई के बाद अपराध सिद्ध हो चुका हो और अपील में पुष्टि हो चुकी हो, ऐसी तकनीकी दलील को स्वीकार करने से न्याय प्रशासन में जनता का विश्वास कम होने का खतरा है। इससे यह गलत संदेश/संकेत जाता है कि प्रक्रियात्मक हथकंडे मूल निष्कर्षों पर भारी पड़ते हैं। इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।"

    जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ ने आगे कहा -

    “स्पष्ट रूप से कहा जाए: अपराध सिद्ध होने और पुष्टि हो जाने के बाद इस प्रकार के मामले में राहत देना न केवल कानून की गरिमा को कम करेगा, बल्कि इस देश के प्रत्येक बच्चे से किए गए संवैधानिक वादे के साथ विश्वासघात भी होगा। इस न्यायालय के सुविचारित दृष्टिकोण से यह नारीत्व की पवित्रता का न्यायिक अपमान होगा। हर उस माँ के लिए आघात होगा जो अपने बच्चे को न्याय में विश्वास करना सिखाती है।”

    अपीलकर्ता अर्जुन सोनार को तेजू के पूर्वी सत्र खंड स्थित स्पेशल POCSO कोर्ट ने POCSO Act की धारा 12 के साथ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 और 506 के तहत दोषी ठहराया और 20 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने 1 जुलाई, 2024 को दोषसिद्धि बरकरार रखी। इसलिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    सुप्रीम कोर्ट ने सोनार के इस तर्क को खारिज कर दिया कि उसे प्रभावी कानूनी सहायता इसलिए नहीं दी गई, क्योंकि उसके वकील ने पीड़िता से क्रॉस एक्जामिनेशन नहीं की थी। अदालत ने पाया कि लड़की ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 164 के तहत विस्तृत और सुसंगत बयान दिया, जिसकी पुष्टि हाल ही में हुए जबरन यौन संबंध के संकेतों की पुष्टि करने वाले मेडिकल साक्ष्यों से हुई।

    इसके अलावा, अदालत ने यह भी कहा कि उसके जन्म प्रमाण पत्र से पता चला है कि घटना के समय उसकी उम्र 12 वर्ष से कम थी। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बचाव पक्ष के वकील द्वारा पीड़िता से क्रॉस एक्जामिनेशन न करने के फैसले से कार्यवाही प्रभावित नहीं हुई। अदालत ने CFSL रिपोर्ट देर से दाखिल करने संबंधी दलीलों को भी खारिज कर दिया और कहा कि रिपोर्ट सुसंगत मौखिक और मेडिकल साक्ष्यों का खंडन नहीं करती।

    अदालत ने माना कि साक्ष्यों के मूल्यांकन में किसी भी स्पष्ट अवैधता या विकृतता के अभाव में संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत हस्तक्षेप का कोई मामला नहीं बनता। अदालत ने कहा कि मुकदमे की समाप्ति और दोषसिद्धि के समवर्ती निष्कर्षों के बाद एक बाल पीड़ित को वापस बुलाना गंभीर चिंता का विषय है।

    अदालत ने कहा,

    "अदालतों को सतर्क रहना चाहिए कि प्रक्रियागत प्रस्तुतियां उत्पीड़न की रणनीति न बन जाएं।"

    अदालत ने कहा कि उसकी न्यायिक अंतरात्मा उन अपीलों में लापरवाही बरतने की अनुमति नहीं देती, जहां दोषसिद्धि पूरी सुनवाई के बाद की गई हो, अपील में पुष्टि की गई हो और पीड़िता की गवाही स्पष्ट, ठोस और विधिवत पुष्टि की गई हो।

    अदालत ने ज़ोर देकर कहा,

    "इस अदालत ने बार-बार यह माना कि POCSO Act के तहत गंभीर अपराधों में विशेष रूप से पारिवारिक विश्वासघात से जुड़े अपराधों में नियमित रूप से राहत नहीं दी जा सकती, जब दो अदालतों ने एक साथ दोष सिद्ध किया हो और निष्कर्षों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत विकृत हस्तक्षेप नहीं दिखाया गया हो। यह न तो उचित है और न ही न्यायोचित है।"

    अदालत ने इस बात पर ज़ोर दिया कि कानूनी प्रक्रिया, प्रक्रियागत खामियों की आड़ में अन्याय को जारी रखने का ज़रिया नहीं बन सकती। अदालत ने कहा कि बच्चों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा से जुड़े मामलों में अभियुक्त की सुविधा सर्वोपरि नहीं है, बल्कि पीड़िता की गवाही की सत्यनिष्ठा, क़ानूनी निष्कर्षों की अंतिमता और द्वितीयक उत्पीड़न को रोकने की आवश्यकता है।

    अदालत ने कहा,

    “एक बार मुक़दमा समाप्त हो जाने और गवाही दर्ज हो जाने के बाद क़ानून के अनुसार, पीड़िता को दोबारा पूछताछ के लिए बुलाने के किसी भी प्रयास को अत्यधिक सावधानी से किया जाना चाहिए। अनिवार्य क़ानूनी आवश्यकता के अभाव में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसे प्रयासों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए और जहां भी आवश्यक हो उन्हें शुरुआत में ही रोक दिया जाना चाहिए, खासकर जब वे पीड़िता को फिर से आघात पहुंचाने का ख़तरा पैदा करते हों।”

    अदालत ने अपील खारिज करते हुए पाया कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट के समवर्ती निष्कर्षों में कोई कमज़ोरी या विकृति नहीं है। इसने अरुणाचल प्रदेश राज्य को पीड़ित को मुआवजे के रूप में ₹10,50,000 का भुगतान करने का भी निर्देश दिया, जिसे अरुणाचल प्रदेश राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण की निगरानी में पांच वर्षों के लिए सावधि जमा में जमा किया जाना है।

    अदालत ने कहा,

    "यह अदालत दोहराता है कि न्याय केवल दोषसिद्धि तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि जहां कानून इसकी अनुमति देता है, वहां इसमें क्षतिपूर्ति भी शामिल होनी चाहिए। उपरोक्त मुआवजा प्रदान करते हुए हम बाल पीड़ितों के अधिकारों और सम्मान की रक्षा करने और यह सुनिश्चित करने की संवैधानिक प्रतिबद्धता की पुष्टि करते हैं कि दिया गया न्याय ठोस, करुणामय और पूर्ण हो।"

    Case Title – Arjun Sonar v. State of Arunachal Pradesh

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