एडवोकेट अपर्णा भट ने सीजेआई और सुप्रीम कोर्ट की महिला जजों को पत्र लिखकर कहा, जजों को सलाह दें कि महिला विरोध छोड़ें और फैसलों में महिलाओं के बारे में रूढ़िवादी धारणाओं का प्रदर्शन न करें

LiveLaw News Network

27 Jun 2020 10:54 AM GMT

  • एडवोकेट अपर्णा भट ने सीजेआई और सुप्रीम कोर्ट की महिला जजों को पत्र लिखकर कहा, जजों को सलाह दें कि महिला विरोध छोड़ें और फैसलों में महिलाओं के बारे में रूढ़िवादी धारणाओं का प्रदर्शन न करें

    कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जस्टिस कृष्ण एस दीक्षित की रेप के एक मामले में की गई टिप्‍प‌‌‌ण‌ी को सेंसर करने की मांग की गई है। रेप के मामले में दायर अग्र‌िम जमानत की एक याचिका पर सुनवाई में जस्टिस दीक्षित के समक्ष रेप पीड़िता ने कहा था कि रेप की वारदात के बाद वह सो गई थी, जिस पर जस्टिस दीक्षित ने टिप्पणी की थी कि हमारी महिलाएं रेप के बाद ऐसे व्यवहार नहीं करतीं। भारतीय महिलाओं के लिए यह अशोभनीय है। भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे और महिला न्यायाधीशों आर भानुमती, इंदु मल्होत्रा, और इंदिरा बनर्जी को इस संबंध में एक पत्र भेजा गया है।

    अग्रिम जमानत के लिए दायर एक याचिका की सुनवाई करते हुए ज‌स्टिस दीक्षित ने कहा था, "शिकायतकर्ता का स्पष्टीकरण कि दुराचार के बाद वह थक गई थी और सो गई थी, एक भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है; एक भारतीय महिला दुराचार के बाद ऐसे व्यवहार नहीं करती है।"

    अधिवक्ता अपर्णा भट ‌की ओर से लिखे गए पत्र में माननीय न्यायाधीशों को सूचित किया गया है कि दिल्ली सरकार ने उनके कार्यालय को "बलात्कार पीड़ितों के लिए 24 घंटे की बहु-विषयक सहायता सेवा" और एक हेल्पलाइन संचालित करने के लिए नियुक्त किया था, जिसमें उन्होंने 2005 से 2011 के तक काम किया। यौन उत्पीड़न के पीड़ितों / सर्वाइवर्स के साथ काम करने का नतीजा है कि वह उन चुनौतियों की गवाह हैं, जो रेप जैसे मामलों में पुलिस, डॉक्टरों, अधिकारियों, अभियोजकों और न्यायाधीशों की ओर से पेश की जाती है।

    "मैंने देखा है कि वयस्क महिलाएं, जब उन पुरुषों के खिलाफ आरोप लगाती है, जिनके साथ वे अतीत में रिश्ते में रह चुकी हैं, शायद ही कभी उन्हें सिस्टम की समानुभूति मिलती है। हालांकि, कई सालों तक, ट्रायल कोर्ट में ऐसे कई न्यायाधीशों के साथ काम करने का मौका मिला है, जिन्होंने ऐेसे मामलों के संचालन में अत्यधिक संवेदनशीलता का प्रदर्शन किया है, और यह सुनिश्चित किया है कि क्रॉस-एग्जामिनेशन की आड़ में चरित्र हनन की कार्रवाई न हो।"

    भट ने कहा है कि "जिस तरह से उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने बलात्कार के एक मामले में अभियुक्त की अग्रिम जमानत देते हुए जघन्य अपराध का जिक्र किया है," उसने उन्हें यह पत्र लिखने के लिए मजबूर किया है।

    उन्होंने तुकाराम व अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (मथुरा बलात्कार का मामला) का हवाला दिया है, जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि "क्योंकि वह [रेप सर्वाइवर] सेक्स की आदी थी, उसने शायद पुलिस को (वे ड्यूटी पर नशे में थे) संभोग के लिए उकसाया होगा।", और जोर देकर कहा है कि न्यायिक संस्था मथुरा केस के भूत से पीछा छुड़ाकर बहुत आगे आ चुकी है।

    उन्होंने मोहम्मद इकबाल बनाम झारखंड राज्य के मामले का भी हवाला दिया है, जिसमें कहा गया था कि बलात्कार को केवल यौन अपराध नहीं माना जा सकता है, बल्‍कि एक ऐसे अपराध के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें आक्रामकता शामिल है जो अभियोजन पक्ष का वर्चस्व स्‍थापित करती है; यह एक महिला की शारीरिक अखंडता का घोर उल्लंघन है और उसकी शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कल्याण को प्रभावित करता है।

    न्यायमूर्ति दीक्षित के आदेश में कहा गया है कि आरोपी बलात्कार पीड़िता के साथ स्वेच्छा से गया था और पीड़िता ने उसके साथ शराब पीने पर भी आपत्ति नहीं जताई थी। यह नोट किया गया था कि रेप सर्वाइवर का स्पष्टीकरण पर्याप्त नहीं है; यह वास्तव में "एक भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है कि वह रेप के बाद "थक जाए" और सो जाए।

    भट ने अपने पत्र में आदेश में इस्तेमाल की गई भाषा पर आपत्ति की है।

    "क्या बलात्कार पीड़ितों के लिए कोई प्रोटाकॉल है, जिसे उन्हें घटना के बाद पालन करना है, और जो कानून में लिखा है, जिसे मैं नहीं जानती हूं? क्या 'भारतीय महिलाएं' एक विशिष्ट वर्ग हैं, जिनके लिए बलात्‍कर के बाद के बेजोड़ मानक तय हैं?" हमारी महिलाएं कौन हैं?"

    पत्र में यह डिस्क्लेमर जोड़ने के बाद की वह मामले के गुणों या विद्वान न्यायाधीश के आदेश पर टिप्पणी नहीं कर रही हैं, भट का मानना ​​है कि वह एक महिला के रूप में अपनी क्षमता के अनुसार पत्र लिख रही हैं।

    पत्र के निष्कर्ष में, भट ने दावा किया है कि, हालांकि मामले का फैसला साक्ष्य के आधार, यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि मामले में की गई ‌टिप्‍पण‌ियों का सेंसर कर दिया जाए।

    उल्‍लेखनीय है कि 22 जून को, कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति कृष्ण एस दीक्षित की एकल पीठ ने सीआरपीसी की धारा 438 के तहत एक याचिका पर सुनवाई की, जिसमें अग्रिम जमानत मांगी गई थी। अभियुक्त को पिछले दो वर्षों से अभियोजन पक्ष द्वारा नौकरी पर रखा गया था और यह आरोप लगाया गया था कि उसने शादी के झूठे बहाने उसके साथ यौन संबंध बनाए थे। सुनवाई के दौरान, अदालत ने अभियोजन पक्ष के मामले की वास्तविकता के पर अपनी राय व्यक्त की थी और अग्रिम जमानत की अनुमति दी थी।

    अदालत की टिप्पाण‌ियों पर महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, लेखकों और पत्रकारों के एक समूह ने भी जस्टिस कृष्ण दीक्षित को पत्र लिखकर आदेश से 'दुराआग्रहपूर्ण और महिला विरोधी' टिप्पणी को हटाने का आग्रह किया है।

    पूरा पत्र पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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