साक्ष्य अधिनियम, धारा 114 - गवाही के लिए व्यक्तिगत तौर पर पेश नहीं होने वाली पार्टी के खिलाफ विपरीत निष्कर्ष निकाला जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट
LiveLaw News Network
18 Dec 2020 11:08 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि गवाही देने के लिए व्यक्तिगत तौर पर पेश नहीं होने वाली पार्टी के खिलाफ विपरीत निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
न्यायमूर्ति रोहिंगटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की खंडपीठ ने यह टिप्पणी ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट के एक निर्णय के खिलाफ अपील को मंजूर करते हुए की। ट्रायल कोर्ट ने वादी की स्थायी निषेधाज्ञा की राहत संबंधी याचिका ठुकरा दी थी, जिसे हाईकोर्ट ने भी सही ठहराया था। उसके बाद वादी ने शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था।
कोर्ट ने अपील में इस बात का संज्ञान लिया कि मूल बचाव पक्ष मुकदमे में गवाही देने और क्रॉस एक्ज़ामिनेशन के लिए व्यक्तिगत तौर पर उपस्थित नहीं हुआ और उसके बदले पावर ऑफ अटॉर्नी के आधार पर उसके छोटे भाई ने गवाही दी।
बेंच ने कहा,
"इस बात को लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था कि मूल बचाव पक्ष गवाही देने के लिए व्यक्तिगत तौर पर क्यों उपस्थित नहीं हो सका था। हमें इस बात का कोई कारण नजर नहीं आता कि ऐसी परिस्थितियों में बचाव पक्ष के खिलाफ विपरीत निष्कर्ष क्यों न निकाला जाये।"
इस संदर्भ में, कोर्ट ने 'ईश्वर भाई सी. पटेल बनाम हरिहर बहेरा, (1993) 3 एससीसी 457' मामले में दिये गये फैसले का संज्ञान लिया। इस मामले में, पार्टी के विटनेस बॉक्स में न पहुंचने और क्रॉस एक्ज़ामिनेशन के लिए खुद उपस्थित न होने के लिए साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 (जी) में वर्णित सिद्धांतों के आधार पर विपरीत निष्कर्ष निकाला गया है।
कोर्ट ने इस बात का भी संज्ञान लिया कि वादियों ने अपने पास रखे वैसे दस्तावेज प्रस्तुत किये थे, जो 30 साल पुराने थे, साथ ही मूल कॉपी न पेश करने का असली कारण भी पेश किया था। कोर्ट ने कहा कि उन दस्तावेजों और कारणों को यह कहते हुए खारिज करने का कोई कारण नजर नहीं आता जिसमें कहा गया था कि सार्वजनिक प्राधिकार द्वारा निष्पादित दस्तावेज वैधानिक अधिकारों के उचित तरीके से इस्तेमाल से जारी नहीं किये गये थे।
बेंच ने आगे कहा,
"हमारा मानना है कि यह निष्कर्ष भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 114(ई) के नजरिये से स्पष्ट तौर पर विकृत है, जिसमें कहा गया है कि यह माना जायेगा कि सभी आधिकारिक कार्य नियमित तौर पर निपटाये गये हैं। इसे लेकर विवाद खड़ा करने वाले व्यक्ति पर ही इसमें गड़बड़ी साबित करने का दारोमदार होता है।"
कोर्ट ने 'लखी बरुआ बनाम पद्मा कांता कलिता, (1996) 8 एससीसी 357' मामले में दिये गये फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें उचित कस्टडी में रखे गये तीस साल पुराने दस्तावेज की स्वीकार्यता के सवाल का निपटारा किया गया था।
बेंच ने, रिकॉर्ड पर लिये गये साक्ष्य की जांच करते हुए कहा कि विवादित सम्पत्ति के स्वामित्व का मसला बचाव पक्ष की ओर से विवादित नहीं है और इसलिए वादियों ने अपनी विवादित प्रॉपर्टी पर कानूनी कब्जा पर्याप्त रूप से स्थापित किया है।
केस का नाम : इकबाल बशिष्ठ बनाम एन. सुब्बालक्ष्मी [सिविल अपील नं. 1725 / 2020]
कोरम : न्यायमूर्ति रोहिंगटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी
वकील : सीनियर एडवोकेट प्रभु एस. पाटिल, एडवोकेट पुरुषोत्तम शर्मा त्रिपाठी
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