'पुलिस की अनुशासनहीनता का कारण उसके औपनिवेशिक मूल में निहित': ज‌स्टिस चंद्रू का इंटरव्यू, जिनकी जिंदगी से प्रेरित है जय भीम

Manu Sebastian

8 Nov 2021 2:44 PM GMT

  • पुलिस की अनुशासनहीनता का कारण उसके औपनिवेशिक मूल में निहित: ज‌स्टिस चंद्रू का इंटरव्यू, जिनकी जिंदगी से प्रेरित है जय भीम

    हाशिए के आदिवास‌ी समुदायों के पुलिसिया उत्पीड़न के ईमानदार और ममस्पर्शी चित्रण के लिए तमिल फिल्म "जय भीम" की देश भर में तारीफ हो रही है। यह कोर्ट-रूम ड्रामा वास्तविक मुकदमे पर आधारित है, जिसे मद्रास हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस के चंद्रू ने तब लड़ा था, जब वह एक वकील के रूप में प्रैक्टिस कर रहे थे। फिल्म की सफलता ने सभी का ध्यान जस्टिस चंद्रू की ओर खींचा है, जो अपनी सक्रियता और प्रगतिशील निर्णयों के लिए प्रसिद्ध हैं।

    लाइव लॉ ने हाल ही में जस्टिस चंद्रू से कई समसामयिक मुद्दों समेत फिल्‍म पर बातचीत की।

    लाइव लॉ: यह फिल्म राजकन्नू-पार्वती के मुकदमे पर है, जिसे आपने लड़ा था। मामले में इरुलर जनजाति के एक सदस्य की हिरासत में क्रूर तरीके से मौत हो गई थी। एक वकील के रूप में आपके प्रयासों से राजकन्नू की असहाय विधवा को न्याय सुनिश्चित हो पाया था और दोषी पुलिस अधिकारियों के लिए दंड सुनिश्चित हो सका था। हालांकि देश में हिरासत में प्रताड़ना का सिलसिला आज भी जारी है। पिछले साल जयराज और बेनिक्स की हिरासत में हुई हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया था। लॉकडाउन के दौरा में भी, देश भर में पुलिस प्रताड़ना के मामलों में भारी वृद्धि देखी गई। पुलिस बल को अनुशासित करने के लिए अदालतों द्वारा दिए गए कई निर्णयों और निर्दशों के बावजूद पुलिस प्रताड़ना क्यों जारी है? पुलिस अधिकारियों को इस तरह के अमानवीय कृत्यों में शामिल होने के लिए क्या प्रेरित करता है? क्या हमारी पुलिस व्यवस्था में मौलिक और स्वाभाविक रूप से कुछ गलत है?

    जस्टिस चंद्रू: जैसा कि फिल्म की शुरुआत में दिखाया गया है, यह पुलिस हिरासत में राजकन्नू की मौत के वास्तविक मामले पर आधारित है और वह इरुलर जनजाति से नहीं था। वह कुरवा समुदाय से संबंधित था, जिसे अभी तक एसटी घोषित नहीं किया गया है। फिल्म निर्देशक ने अपने रचनात्मक आजादी के तहत फिल्म का कैनवास इरुला समुदाय (एसटी) और उन असंख्य अत्याचारों पर रखा है, जिनका उन्होंने सामना किया है, जो फिल्म में दिखाए गए अपराधों के समान हैं। उस प्रक्रिया में उन्होंने पीड़ितों को इरुला समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में पेश किया है, और बाहरी लोगों के लिए उनकी जीवन शैली, भोजन की आदतों, आवास आदि का चित्रण किया है।

    सुप्रीम कोर्ट ने डीके बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997 (1) SCC 416 ) प्री-ट्रायल अभियुक्तों के अधिकारों के संबंध में 11 दिशान‌िर्देश जारी किए थे। उस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अवज्ञा करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अवमानना ​​​​कार्रवाई करने और इसका पालन नहीं करने वाले न्यायिक मजिस्ट्रेटों के खिलाफ कार्रवाई करने की भी छूट दी थी। भले ही 24 साल से अधिक समय बीत चुका हो, लेकिन शायद ही किसी को अवमानना ​​का दोषी पाया गया हो।

    पुलिस बल की अनुशासनहीनता का कारण उसके अपने औपनिवेशिक मूल में निहित है। यहां तमिलनाडु में हम अभी भी वर्ष 1888 के मद्रास सिटी पुलिस अधिनियम द्वारा शासित हैं। कानून और व्यवस्था बनाए रखने से अपराध का पता लगाने के मामले तक अभी वे वैज्ञानिक रूप से आगे नहीं बढ़े हैं। आजादी से पहले के दिनों में भी अंग्रेजों ने देश को अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित कर दिया था और उनके पास प्रशासन की अलग-अलग प्रणालियां थीं। इसके अलावा, उन्होंने आपराधिक जनजाति अधिनियम भी बनाया, जिसके तहत बहुत सारे आदिवासी समुदायों को शामिल किया गया था। इस प्रक्रिया से किसी अपराध का पता लगाना आवश्यक नहीं है, क्योंकि यदि किसी क्षेत्र में कोई अपराध होता है तो सभी आदिवासी संदिग्ध हो जाते हैं और जो 24 घंटे के भीतर सर्कल थाने में आत्मसमर्पण नहीं करता है, उसे ही आरोपी माना जाता है।

    स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ इस अधिनियम को खत्म करने के लिए भी लंबा संघर्ष चला, लेकिन यह देश को आजादी मिलने के बाद हो पाया। आपराधिक जनजाति अधिनियम खत्म होने के बाद भी आदिवासियों को उत्पीड़न से मुक्त नहीं किया जा सका। अपने क्षेत्र में किए गए किसी भी अपराध के लिए डीनोटिफाइड ट्राइब्स (डीएनटी) पुलिस की नजर में आज भी संदिग्ध बनी रहती हैं। केवल कुछ गैर-अधिसूचित जनजातियां अपनी उर्ध्वगामी प्रगति के कारण भूमि पर अधिकार कर पाईं हैं। उन्हें नागरिक अधिकार प्राप्त हुए हैं और एक समावेशी समूह बन गए।

    अधिकांश जनजातियों को आज भी संभावित अपराधियों के रूप में माना जाता है और उनके खिलाफ दिन-ब-दिन झूठे मामले दर्ज किए जाते हैं। उनके पास अपने घर की जमीन का पट्टा तक नहीं है, मतदाता सूची में उनका नाम शामिल नहीं है, वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली में शामिल नहीं है। खानाबदोश जीवन के कारण, वे अपने बच्चों को नियमित स्कूलों में नहीं भेज पाते हैं। रोजगार की संभावनाएं काफी हद तक गैर-औपचारिक क्षेत्रों में हैं। इन सभी को इस फिल्म में खूबसूरती से शामिल किया गया है। पहले दृश्य में ही, हालांकि वे जेल से रिहा हो गए थे, पुलिसकर्मी उन्हें अपने क्षेत्रों के अन्य अनसुलझे अपराधों में पकड़ने के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे। इसलिए, जो आवश्यक है वह है पुलिस बल में व्यवहारिक परिवर्तन और अपराध का पता लगाने के लिए उन्नत वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग करना। इन कदमों से ज्यादा आदिवासी लोगों को समावेशी समाज का हिस्सा बनाना होगा और सरकार की योजना प्रणाली को उनकी बुनियादी समस्याओं पर ध्यान देना होगा। पुलिसकर्मी उन्हें अपने क्षेत्रों के अन्य अनसुलझे अपराधों में बुक करने की प्रतीक्षा कर रहे थे। इसलिए, जो आवश्यक है वह है पुलिस बल में व्यवहारिक परिवर्तन और अपराध का पता लगाने में उन्नत वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग करना। साथ ही आदिवासी लोगों को समावेशी समाज का हिस्सा बनाना होगा और सरकार की योजना प्रणाली को उनकी बुनियादी समस्याओं पर ध्यान देना होगा।

    लाइव लॉ: आम तौर पर व्यावसायिक फिल्में पुलिस हिंसा को बहादुरी के रूप में महिमामंडित करती हैं। जनता ट्रिगर हैप्पी एनकाउंटर का जश्न मनाती है, जैसा कि हैदराबाद एनकाउंटर में देखा गया है। "जय भीम" असहाय पीड़ितों के नजरिए से पुलिस हिंसा के क्रूर पक्ष को उजागर करने के अपने प्रयास में उल्लेखनीय है। क्या आपको लगता है कि इस तरह की फिल्में आम जनता को पुलिस व्यवस्था के बारे में अधिक यथार्थवादी समझ रखने के लिए प्रोत्साहित करेंगी, और उन्हें पुलिस से अधिक जवाबदेही लेने के लिए प्रोत्साहित करेंगी, बजाय कि उनकी ज्यादतियों को महिमा मंडित करने के?

    जस्टिस चंद्रू: निश्चित रूप से जय भीम जैसी फिल्में पुलिस बल और अदालती व्यवस्था को समझने में उनकी मदद करेगी। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिस के महिमामंडन का कारण काफी हद तक न्याय वितरण प्रणाली में देरी है। यदि अपराधियों को समय पर सजा दी जाती है तो पीड़ितों का न्यायपालिका पर विश्वास बढ़ेगा।

    लाइव लॉ: आप छात्र जीवन से ही राजनीतिक रूप से सक्रियता में रहे। कानूनी प्रैक्टिस के दौरान भी अपने वाम-राजनीति के साथ जुड़ाव जारी रखा। क्या आपको लगता है कि आपकी राजनीतिक सक्रियता ने आपको एक वकील के रूप में और बाद में एक जज के रूप में आम जनता की समस्याओं को बेहतर तरीके से समझने में मदद की? क्या आपको लगता है कि अधिवक्ताओं को अराजनीतिक नहीं होना चाहिए? क्या जजों में मजबूत राजनीतिक जागरूकता होना जरूरी है?

    जस्टिस चंद्रू: मैं लगभग 20 वर्षों तक वामपंथी आंदोलन का कार्यकर्ता था। मैंने एक छात्र कार्यकर्ता, पूर्णकालिक कार्यकर्ता, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में कार्य किया। राजनीतिक गतिविधियों से मैंने जो अनुभव प्राप्त किया उसने मुझे व्यवस्था की पर्याप्त समझ दी, जिसने मुझे एक वकील और एक जज के रूप में कार्य करने की पर्याप्त समझ दी थी। मुझे नहीं लगता कि राजनीतिक लोकतंत्र में कोई भी अराजनीतिक हो सकता है। राजनीतिक लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए राजनीति की सही समझ एक आवश्यक आधार है।

    अगर एक वकील राजनीति को समझता है तो उसके लिए कानून के कामकाज और कानून को संचालित करने वाली राजनीतिक मशीन को समझना आसान होगा। इसी तरह, एक जज जो राजनीतिक स्थिति से अनभिज्ञ है, कई मामलों में विशेष रूप से पृष्ठभूमि की स्थिति पर उसके गुमराह होने की संभावना है।



    लाइव लॉ: एक वकील के रूप में आपने जो मुकदमे लड़े हैं, क्या उनमें पुलिस हिंसा के मामलों में कोई पैटर्न देखा है, जिससे केवल कुछ समुदाय ही निशाना बनते हों और शिकार बनते हैं? क्या आपको लगता है कि राज्य-प्रायोजित हिंसा शून्य में काम नहीं करती बल्कि मौजूदा पदानुक्रमित असमानताओं और सामाजिक पूर्वाग्रहों को कायम रखती है?

    जस्टिस चंद्रू: मैंने मानवाधिकारों से संबंधित मामलों को निपटाया है, यह निश्चित रूप से राज्य के वास्तविक चरित्र को दिखाता है और यह कि यह कितनी हिंसक मशीन है। वर्दीधारी बलों द्वारा की गई संगठित हिंसा का एक निश्चित पैटर्न है और यह पहले से ही हाशिए पर मौजूद कमजोर लोगों को अपने अधीन करना है। यह निश्चित रूप से मौजूदा असमानताओं और पूर्वाग्रहों को कायम रखेगा।

    लाइव लॉ: फिल्म में एक दिलचस्प दृश्य है, जहां एडवोकेट चंद्रू ने एक आदिवासी युवक के मामले में बहस करने के लिए अदालत के बहिष्कार के आह्वान को खारिज कर दिया, जिसे अवैध रूप से हिरासत में लिया गया था। अन्य अधिवक्ताओं को सुनवाई में शामिल होने के उनके निर्णय की सराहना नहीं करते हुए दिखाया गया है। सुप्रीम कोर्ट की अदालत-बहिष्कार की निंदा से पहले ही आपने 1990 के दशक में अदालत की सुनवाई में शामिल होने के बहिष्कार के आह्वान को टाल दिया था। आपका यह एक साहसिक और शक्तिशाली बयान था कि अदालतें वकीलों के लिए नहीं बल्कि वादियों के लिए होती हैं। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने कोर्ट-बहिष्कार की इस प्रथा को गंभीरता से लिया है, और हड़ताल का आह्वान करने के लिए एक बार एसोसिएशन को अवमानना ​​नोटिस जारी किया है। इस संबंध में आपके क्या विचार हैं? क्या अधिवक्ताओं को अदालत-बहिष्कार के बजाय शिकायत निवारण के वैकल्पिक साधनों के बारे में सोचना चाहिए?

    जस्टिस चंद्रू : वर्ष 1976 से, जिस वर्ष मैं एनरॉल हुआ था, मैं एक लॉयर एक्टिव‌िस्ट था, जिसने मद्रास हाईकोर्ट के वकीलों के कई आंदोलनों का नेतृत्व किया। मैंने कई अदालती बहिष्कार किए, धरना और जुलूस निकाले। मैं 1983 से 1988 तक बार काउंसिल का निर्वाचित सदस्य भी था। मैं मद्रास हाई कोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन का पदाधिकारी और श्रम कानून प्रैक्टिशनर्स एसोसिएशन का संस्थापक सचिव भी था। मैं कुछ समय के लिए ऑल इंडिया लॉयर्स एसोसिएशन का तमिलनाडु महासचिव था।

    हालांकि, अदालतों का बहिष्कार जारी रहना काउंटर प्रोडक्टिव बन गया और वादियों को अदालत से संपर्क करने के अधिकारों से वंचित कर दिया है। कानूनी पेशे को दिया गया एकाधिकार का दर्जा किसी अन्य सामाजिक कार्यकर्ता को वंचित और कमजोर वर्ग की ओर से अदालत जाने से रोकता था। लगभग दो दशकों की प्रैक्टिस के बाद मैंने महसूस किया कि वकीलों की हड़तालें काउंटर प्रोडक्टिव हो गई हैं और कानूनी पेशे के भविष्य के लिए अत्यधिक संवेदनशील और हानिकारक भी हैं। इसलिए, मैं सार्वजनिक रूप से घोषणा करता हूं कि अदालतें वादियों के लिए हैं न कि वकीलों के लिए। यदि वकील चाहते हैं कि उनकी शिकायतों का समाधान किया जाए तो वे अदालतों को बंद किए बिना अन्य तरीकों से भी विरोध कर सकते हैं और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए कानून का सहारा भी ले सकते हैं। यह शायद बार द्वारा अच्छी तरह से नहीं लिया गया था। मैंने अदालतों के बहिष्कार की अवधि के दौरान भी अदालतों में पेश होना शुरू कर दिया, खासकर जब मानवाधिकारों के उल्लंघन से संबंधित मामले होते थे। जब मैंने सीपीसी संशोधनों के दौरान अदालत के बहिष्कार के खिलाफ इंडियन एक्सप्रेस में सार्वजनिक रूप से एक लेख लिखा, तो मुझे उस एसोसिएशन से भी निकाल दिया गया जिसका मैं एक बार नेतृत्व कर चुका था। इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक बार मैंने हड़ताल का आह्वान करते हुए बार काउंसिल के खिलाफ एक रिट याचिका दायर की और निषेधाज्ञा प्राप्त की। पीठ में मेरी पदोन्नति के बाद, वकीलों और पुलिस के बीच मतभेदों को सुलझाने के लिए एक स्थायी समिति बनाने से संबंधित एक मामला मेरे और मुख्य न्यायाधीश के सामने आया। मुख्य न्यायाधीश ने मुझे आदेश लिखने के लिए कहा और मैंने अपने आदेश में तमिलनाडु के अधिवक्ताओं द्वारा किए गए विभिन्न बहिष्कारों के मूल और विवरणों का विस्तार से पता लगाया।

    जब मैंने फैसला चीफ जस्टिस एपी शाह के हस्ताक्षर के लिए भेजा तो उन्होंने पढ़ने के बाद मुझसे पूछा कि मुझे विभिन्न हड़तालों का इतना सूक्ष्म विवरण कहां से मिला। मैंने उनसे कहा कि मैं उन हड़तालों के पार्श्व लेखक था और मैंने जो निर्णय लिखा था वह मेरे पिछले पापों के लिए एक प्रकार का प्रतिशोध है। वह हंसे, मुझसे सहमत हुए और आदेश पर हस्ताक्षर कर दिया। यद्यपि हमने विवाद को सुलझाने के लिए एक समिति का गठन किया था, लेकिन आज तक किसी भी लायर्स एसोसिएशन ने कोई शिकायत नहीं की और समिति केवल कागजों पर है।

    मेरी सोच का यह कायापलट हालांकि 1993 में नहीं था, लेकिन फिल्म के निर्देशक वकील चंद्रू के असली चरित्र को दर्ज करने और उस विशेष दृश्य में लाने के लिए दिखाना चाहते थे। फिल्म में सूर्या को एक वकील के रूप में अभिनय करते हुए दिखाया गया था, जो वकीलों के आंदोलन स्थल को छोड़कर एक हिरासत में लिए गए आदिवासी व्यक्ति के अदालती मामले में भाग लेने के लिए एक बैरिकेड्स पर कूद गया था। वकील नाराजगी दिखाते हैं और उस पर चिल्लाते भी हैं। इसके बावजूद, वह अदालत में जाता है और पीड़िता के लिए आदेश प्राप्त करता है। उसने हाथ में सफेद पट्टी भी पहनी हुई है, ताकि यह पता चले कि वकील विरोध कर रहे हैं। एक जज के रूप में मैंने बहिष्कार अवधि के दौरान लॉयर्स एसोसिएशन द्वारा दायर किसी भी याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया और शर्त रखी थी कि जब तक हड़ताल की कार्रवाई वापस नहीं ली जाती, तब तक अदालत उस मामले की सुनवाई नहीं करेगी।

    लाइव लॉ: फिल्म में एक दृश्य है जहां एडवोकेट चंद्रू स्कूल के एक समारोह में टिप्पणी कर रहे हैं "गांधी और नेहरू जैसे सभी महत्वपूर्ण नेता यहां हैं। अकेले अंबेडकर यहां कैसे नहीं हैं?" अफसोस की बात है कि हमारे स्कूल और कॉलेज के सिलेबस में, यहां तक ​​कि लॉ कॉलेजों में भी अंबेडकर के विचारों की चर्चा कम ही होती है। क्या आपको लगता है कि बहुत कम उम्र में ही छात्रों को डॉ. अंबेडकर के बारे में पढ़ाने से उन्हें प्रगतिशील विचारों और सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ बेहतर नागरिक बनने में मदद मिल सकती है?



    जस्टिस चंद्रू: मैं दृढ़ता से महसूस करता हूं कि अंबेडकर जैसे नेताओं के संबंध में जनता और विशेष रूप से छात्रों को पर्याप्त रूप से बताया नहीं गया है। पाठ्य पुस्तकें उन्हें परोक्ष तरीके से दिखाती हैं और अधिकांश लोग उन्हें अनुसूचित जाति के नेता के रूप में समझते हैं न कि भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में। इस परोक्ष इतिहास को बदलने के लिए उसे वस्तुनिष्ठ तरीके से स्कूली बच्चों के सामने लाना होगा। डॉ. अंबेडकर की चुनी हुई कृतियों को पढ़कर मुझे स्वयं कई नए विचार प्राप्त हुए और जब भी धर्म और जाति सेसंबंधित कोई मामला मेरे सामने आया तो मैं उसका उपयोग करने में सक्षम था। अपनी सेवानिवृत्ति के बाद, मैंने इन मामलों को इकट्ठा किया और इन मामलों की पृष्ठभूमि पर एक पुस्तक लिखी और पुस्तक का शीर्षक "माई जजमेंट इन द लाइट ऑफ अंबेडकर" रखा। यह अफसोस की बात है कि लॉ कॉलेजों में वे अंबेडकर के लेखन को प्री-लॉ के दिनों में भी एक पठन सामग्री के रूप में नहीं देते हैं।

    लाइव लॉ: राजकन्नू मामले में, आपने हाईकोर्ट को गवाहों से जिरह की अनुमति देने के लिए राजी करके, बंदी प्रत्यक्षीकरण क्षेत्राधिकार में एक नई मिसाल कायम करने में मदद की। आपने राजन मामले में केरल हाईकोर्ट की मिसाल का हवाला दिया। इस मामले ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सबसे पोषित मौलिक अधिकार को हासिल करने में बंदी प्रत्यक्षीकरण क्षेत्राधिकार की शक्ति को दिखाया। हालांकि, हाल ही में, हम तकनीकी कारणों का हवाला देते हुए न्यायालय के गिरते बंदी प्रत्यक्षीकरण क्षेत्राधिकार की एक निरंतर प्रवृत्ति को देखते हैं। कश्मीर बंदी के मामलों में हमने देखा कि सुप्रीम कोर्ट भी अपनी भूमिका को छोड़ रहा है। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?

    जस्टिस चंद्रू: बंदी प्रत्यक्षीकरण आम आदमी के हाथों में संभावित हथियारों में से एक है, जो राज्य द्वारा या किसी निहित स्वार्थ द्वारा उत्पीड़ित होने पर इसका उपयोग कारावास से मुक्ति पाने के लिए कर सकता है। जस्टिस कृष्णा अय्यर द्वारा दी गई विस्तृत व्याख्या के कारण, बंदी प्रत्यक्षीकरण की अवधारणा को व्यापक बनाया गया है। सुनील बत्रा द्वितीय मामले पर एक नजर डालने से पता चलता है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण का उपयोग न केवल जबरन कारावास के तहत कुछ निकायों को रिहा करने के लिए किया जा सकता है, यहां तक ​​कि जेल सुधारों के लिए भी, कैदियों की स्थिति बंदी प्रत्यक्षीकरण का एक जवाब हो सकता है। दुर्भाग्य से कृष्ण अय्यर, चिन्नप्पा रेड्डी जैसे प्रख्यात न्यायविदों द्वारा 80 के दशक की शुरुआत में की गई इस तरह की विस्तृत व्याख्याओं के बाद, 40 साल बाद भी लोगों को अदालतों से आदेश प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कश्मीर सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में लिए गए लोगों का हालिया अनुभव, यहां तक ​​कि सुप्रीम कोर्ट भी आदेश पारित करने से कतरा रहा था और बिना किसी त्वरित समाधान के मामलों में देरी कर रहा था। महबूबा की बेटी को श्रीनगर में अपनी मां से मिलने के लिए सुप्रीम कोर्ट से इजाजत लेनी पड़ी। सीपीएम नेता सीताराम येचुरी को अपनी पार्टी के विधायक तारिगामी से मिलने के लिए कोर्ट में इजाजत लेनी पड़ी थी। जम्मू-कश्मीर के कई मामलों की सुनवाई अभी सुप्रीम कोर्ट में होनी है। इन सबने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं की शक्ति और न्याय प्रदान करने में इसकी प्रभावशीलता को कम कर दिया।

    लाइव लॉ: सूक्ष्म तरीके से, फिल्म अंबेडकर के आदर्श वाक्य "शिक्षित, संगठित और आंदोलन" पर प्रकाश डालती है। लेकिन इन दिनों, हम गैर-सरकारी संगठनों और प्र‌तिरोध आंदोलनों पर अधिक दबाव के साथ, असंतोष की ‌अभिव्यक्ति के स्पेश को सिकुड़ते हुए देख रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं के माध्यम से ही राजकन्नू का मामला आप तक पहुंचा। लेकिन 'सक्रियता' को इन दिनों एक खतरनाक गतिविधि के रूप में देखा जाता है और हम सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ देशद्रोह और यूएपीए के आह्वान को देखते हैं। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?

    जस्टिस चंद्रू: भीमा कोरेगांव मामले में यूएपीए के तहत पिछले 3 साल से 13 बुद्धिजीवियों की हिरासत वास्तव में न्यायिक व्यवस्था की कमजोरी और निरंकुश सरकार की ताकत को दर्शाती है। अंबेडकर के प्रसिद्ध उद्धरण "शिक्ष‌ित, संगठित और आंदोलन" को चित्रित करने वाली फिल्म केवल इस बात पर जोर देने के लिए है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग साक्षर बनें ताकि उनके स्वाभिमान और सम्मान की गारंटी हो। इसलिए फिल्म के पहले चरण में आदिवासी महिला को कोर्ट की याचिका पर हस्ताक्षर करने के बजाय अंगूठे का निशान लगाते हुए दिखाया गया था। इसके विपरीत, फिल्म के अंत में, उनकी बेटी आत्मविश्वास से वकील के सामने एक कुर्सी पर बैठ गई और एक अखबार पढ़ रही थी। संदेश यह था कि ऐसे लोग यह समझकर शिक्षित हो रहे हैं कि साक्षरता से ही वे आगे बढ़ सकते हैं।



    लाइव लॉ: हमने फिल्म की एक समीक्षा प्रकाशित की है , जिसे एक कानून के छात्र ने लिखा था। हमें कई कानून के छात्रों द्वारा संदेश मिल रहे हैं कि वे आपकी कहानी को स्क्रीन पर देखने के बाद मुकदमे लड़ने और दलितों की मदद करने के लिए प्रेरित महसूस करते हैं। क्या आपके पास उनके लिए कोई संदेश है?

    जस्टिस चंद्रू: मुझे खुशी है कि फिल्म की कहानी के अलावा और नायक वकील को अदालतों में सफल देखने के बाद, ऐसे कई युवा हैं जो कानून की प्रैक्टिस को गंभीरता से लेना चाहते हैं। मैंने पड़ोस के स्कूल के अंतिम वर्ष के छात्रों से भी सुना कि वे अगले साल लॉ स्कूल में शामिल होने जा रहे हैं। युवा वकीलों को मेरा एकमात्र संदेश यह है कि उन्हें पूरी तरह से प्रशिक्षित होना चाहिए और वंचितों की भलाई के लिए कौशल का उपयोग करना चाहिए।

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