जब महात्मा गांधी ने माफी मांगने से इनकार किया और अवमानना की कार्रवाई का सामना किया

LiveLaw News Network

23 Aug 2020 3:37 AM GMT

  • जब महात्मा गांधी ने माफी मांगने से इनकार किया और अवमानना की कार्रवाई का सामना किया

    अशोक किनी

    अवमानना मामले में एडवोकेट प्रशांत भूषण ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में दिए बयान में महात्मा गांधी के कथन को उद्धृत किया था। महात्मा गांधी के उक्त कथन की काफी चर्चा हुई। दरअसल महात्मा गांधी ने उक्त कथन 1919 में बॉम्बे हाईकोर्ट के समक्ष दिया था। तब गांधी के खिलाफ़ उस कोर्ट ने अवमानना ​​कार्यवाही शुरु की थी।

    आलेख गांधी के खिलाफ चलाए गए अवमानना ​​मामले और उस मामले में फैसले पर चर्चा की गई है।

    मोहनदास करमचंद गांधी और महादेव हरिभाई देसाई "यंग इंडिया" नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक और प्रकाशक थे। अहमदाबाद के ड‌िस्ट्र‌िक्त मजिस्ट्रेट (श्री बीसी कैनेडी) की ओर से बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को लिखे गए एक पत्र को प्रकाशित करने और उस पत्र के बारे में टिप्पणी प्रकाशित करने के कारण उनके खिलाफ अवमानना ​​कार्यवाही शुरू की गई।

    मजिस्ट्रेट कैनेडी द्वारा लिखा गया पत्र अहमदाबाद कोर्ट के वकीलों के बारे में था, जिन्होंने "सत्याग्रह प्रतिज्ञा" पर हस्ताक्षर किए थे और रोलेट एक्ट जैसे कानूनों का पालन करने से सविनय मना किया था। यह पत्र 6 अगस्त 1919 को यंग इंडिया में शीर्षक "O'Dwyerism in Ahmedabad" के साथ प्रकाशित किया गया था। दूसरे पृष्ठ पर आलेख का शीर्षक " Shaking Civil Resistors" था। [पत्र नीचे पढ़ा जा सकता है]





    लगभग दो महीने बाद, हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी को 20 अक्टूबर 1919 को चीफ जस्टिस के कक्ष में उपस्थित होने का अनुरोध करते हुए एक पत्र लिखा और उन्हें पत्र के प्रकाशन और उस पर टिप्पणियों के बारे में अपना स्पष्टीकरण देने को कहा।

    गांधी ने तुरंत तार किया और रजिस्ट्रार जनरल को सूचित किया कि वह पंजाब जा रहे हैं और पूछा कि क्या लिखित स्पष्टीकरण पर्याप्त होगा। रजिस्ट्रार जनरल ने उन्हें जवाब दिया कि चीफ जस्टिस लिखित जवाब के लिए तैयार हैं।

    गांधी ने तब एक स्पष्टीकरण पत्र भेजा, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्होंने अपने अधिकारों के तहत उक्त पत्र को प्रकाशित किया है और उस पर टिप्पणी की है और यह पत्र साधारण तरीके से उनके पास आया था, और वह 'निजी'नहीं था।

    गांधी ने कहा, "मेरा विनम्र विचार है कि उक्त पत्र को प्रकाशित करना और उस पर टिप्पणी करना, एक पत्रकार के रूप में मेरे अधिकारों के तहत था। मेरा विश्वास था कि पत्र सार्वजनिक महत्व का है और उसने सार्वजनिक आलोचना का आह्वान किया है।"

    रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी को फिर से लिखते हुए कहा कि चीफ जस्टिस ने उनके स्पष्टीकरण को संतोषजनक नहीं पाया। फिर उन्होंने 'माफी' का एक प्रारूप दिया और उसे 'यंग इंडिया' के अगले अंक में प्रकाशित करने के लिए कहा [प्रारूप नीचे पढ़ा जा सकता है]




    गांधी ने रजिस्ट्रार जनरल को फिर पत्र लिखा। उन्होंने 'माफी' प्रकाशित करने से इनकार करते हुए खेद व्यक्त किया और अपना 'स्पष्टीकरण' दोहराया। उन्होंने अपने पत्र में कहा, "माननीय, क्या इस स्पष्टीकरण को पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए, मैं सम्मानपूर्वक उस दंड को भुगतना चाहूंगा जो माननीय मुझे देने की कृपा कर सकते हैं।"

    इसके बाद, हाईकोर्ट ने गांधी और देसाई को कारण बताओ नोटिस जारी किया। दोनों अदालत में पेश हुए। गांधी ने अदालत को बताया कि उन्होंने जिला जज पर जज के रूप में नहीं, बल्‍कि एक व्यक्ति के रूप में टिप्पणी की थी।

    "अदालत की अवमानना ​​का पूरा कानून यह है कि किसी को कुछ भी नहीं करना चाहिए, या अदालत की कार्यवाही पर टिप्पणी करना, जबकि मामला विचाराधीन हो। हालांकि यहां जिला मजिस्ट्रेट ने निजी स्तर पर कोई कार्य किया था।",

    उन्होंने यह भी कहा कि इस पत्र पर की गई टिप्पणियों में जज या जजों के खिलाफ मामूली सा भी अनादर नहीं किया गया है।

    महात्मा गांधी ने अपने बयान में कहा था, "मेरे खिलाफ जारी किए गए अदालत के आदेश के संदर्भ में मेरा कहना है: - आदेश जारी करने से पहले माननीय न्यायालय के रजिस्ट्रार और मेरे बीच कुछ पत्राचार हुआ है। 11 दिसंबर को मैंने रजिस्ट्रार को एक पत्र लिखा था, जिसमें पर्याप्त रूप से मेरे आचरण की व्याख्या की गई थी। इसलिए, मैं उस पत्र की एक प्रति संलग्न कर रहा हूं। मुझे खेद है कि माननीय चीफ जस्टिस द्वारा दी गई सलाह को स्वीकार करना मेरे लिए संभव नहीं है। इसके अलावा, मैं सलाह को स्वीकार करने में असमर्थ हूं क्योंकि मैं यह नहीं समझता कि मैंने मिस्टर कैनेडी के पत्र को प्रकाशित करके या उसके विषय में टिप्पणी करके कोई कानूनी या नैतिक उल्लंघन किया है।

    मुझे यकीन है कि माननीय न्यायालय मुझे तब तक माफी मांगने को नहीं कहेगा, जब तक कि यह सच्‍ची हो और एक ऐसी कार्रवाई के लिए खेद व्यक्त करती हो, जिसे मैंने एक पत्रकार का विशेषाधिकार और कर्तव्य माना है।

    मैं इसलिए हर्ष और सम्मान के साथ उस सजा को स्वीकार करूंगा कि, जिसे माननीय न्यायालय कानून की महिमा के पु‌ष्टि के लिए मुझपर लगाकर खुश होगा। मैं श्री महादेव देसाई को प्रकाशक के रूप में दिए गए नोटिस के संदर्भ में मैं कहना चाहता हूं कि उन्होंने इसे केवल मेरे अनुरोध और सलाह पर प्रकाशित किया था।"

    देसाई का बयान था, "अदालती आदेश के संदर्भ में, मैं यह बताने की विनती करता हूं कि मैंने यंग इंडिया के संपादक द्वारा दिए गए बयान को पढ़ा है और खुद को उनकी ओर से दिगए गए तर्क और उनकी कार्रवाई के औचित्य से संबद्ध किया है। इसलिए मैं सम्मानपूर्वक किसी भी दंड का पालन करूंगा कि, ‌जिसे माननीय न्यायालय मुझे देने की कृपा करेंगे।"

    जस्टिस मार्टन, हेवार्ड, काजीजी की तीन जजों की पीठ ने अवमानना ​​मामले का फैसला किया। जस्टिस मार्टन ने पत्र के प्रकाशन को अवमानना ​​करार दिया। उन्होंने कहा कि "एक पत्रकार की वैध स्वतंत्रता के रूप में उत्तरदाताओं के मन में कुछ अजीब गलत धारणाएं हैं।"

    जज ने कहा,

    "हमारे पास बड़ी शक्तियां हैं और उचित मामलों में अपराधी को ऐसी अवधि के लिए जेल में डाल सकते हैं जैसा कि हम उचित समझते हैं और ऐसी राशि का जुर्माना लगा सकते हैं जैसा कि हम सही मानते हैं। लेकिन जिस तरह हमारी शक्तियां बड़ी हैं, हमें चाहिए, मुझे लगता है कि, उन्हें विवेक और संयम के साथ उपयोग करें, यह याद रखना है कि हमारा एकमात्र उद्देश्य सार्वजनिक लाभ के लिए न्याय के उचित प्रशासन को लागू करना है।

    वर्तमान मामले में, न्यायालय ने बहुत गंभीरता से विचार किया है कि क्या उत्तरदाताओं में से एक पर, यदि दोनों पर नहीं, पर्याप्त जुर्माना नहीं लगाना चाहिए। हालांकि मुझे लगता है कि न्यायालय के लिए कानून को उन शब्दों में बताना पर्याप्त होगा, जिससे, मुझे उम्मीद है कि भविष्य में संदेह के लिए कोई जगह नहीं होगी, और उत्तरदाताओं को गंभीर रूप से फटकार लगाने और भविष्य के आचरण के संदर्भ में सावधानी बरतने तक आदेश को सीमित रखना चाहिए।"

    अन्य जजों ने जस्टिस मार्टन की जांच और निष्कर्ष के साथ सहमति व्यक्त की। जस्टिस हेवार्ड ने लिखा,

    "उन्होंने औपचारिक रूप से माफी मांगने में असमर्थता व्यक्त की है, हालांकि, उन्होंने किसी भी सजा के लिए खुद को प्रस्तुत करने की अपनी तत्परता का प्रदर्शन किया है। यह संभव है कि संपादक, प्रतिवादी गांधी, को एहसास नहीं था कि वह कानून तोड़ रहे हैं और ..यदि ऐसा था, तो यह प्रकाशक, देसाई ने महसूस नहीं किया। उत्तरदाताओं ने खुद को कानून तोड़ने वाले के रूप में नहीं बल्कि कानून के निष्क्रिय प्रतिरोधी के रूप में पेश किया है। इसलिए, यह पर्याप्त होगा, मेरी राय में, इन मामलों में...उनकी कार्यवाही के लिए उन्हें कड़ी फटकार लगाई जाए..।

    संक्षेप में, हाईकोर्ट ने आरोपों को प्रमाणित पाया था, फिर भी गांधी और देसाई को कड़ी फटकार लगाते हुए अवमानना ​​के मामले को बंद करने का फैसला किया और दोनों को उनके भविष्य के आचरण के प्रति आगाह किया।

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