COVID 19 के दौर में मकान मालिक-किरायेदार विवादः मुश्किलें और हल

LiveLaw News Network

31 May 2020 7:30 AM GMT

  • COVID 19 के दौर में मकान मालिक-किरायेदार विवादः मुश्किलें और हल

    अनघ मिश्र

    ऐसा लगता है कि दुनिया एक विकट स्थिति का सामना कर रही है, जिसका प्रभाव न केवल आर्थिक, राजनीतिक और संगठनात्मक मोर्चों पर दिखाई दे रहा है, बल्कि हमारे पारस्परिक और सामाजिक संबंधों पर भी गहरा प्रभाव पड़ रहा है। भारत में COVID-19 महामारी का आर्थिक प्रभाव काफी निराशाजनक है। विश्व बैंक और क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने वित्त वर्ष 2021 के लिए भारत की विकास दर को कम कर दिया है। यह भारत के आर्थिक उदारीकरण के तीन दशकों की न्‍यूनतम विकास दर है।

    केंद्र सरकार ने बीते दो महीनों में कोरोनोवायरस के प्रसाार को रोकने के लिए कई कदम उठाए, जिनमें दो महीने का राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन महत्वपूर्ण है, जिसके चलते सभी आर्थिक गतिविधियों पर ताला लग गया। मॉल और शॉपिंग सेंटर बंद हैं, जिनके निकट भविष्य में खुलने की न्यूनतम संभावना है।

    इसके अलावा, सभी प्रमुख शहरों में, जिनमें प्रवासी मजदूरों की आबादी अपेक्षाकृत ज्यादा है- वहां सर्वाधिक कठिन सवाल, किरायेदारों-वाणिज्यिक और आवासीय, दोनों प्रकार की संपत्त‌ियों के किरायेदारों, के किराए का है। 24 मार्च को लागू किए गए लॉकडाउन के पहले चरण के बाद से ही यह सवाल उठ रहा है कि क्या देश भर के किरायेदारों को लॉकडाउन की अवधि के लिए किराए का भुगतान करने से छूट दी जाएगी।

    यह आलेख किराए से संबंधित कानूनों की प्रयोज्यता और मौजूदा समस्‍या का प्रशंसनीय समाधान ढूंढ़ने का एक प्रयास है, विशेष रूप से माननीय सुप्रीम कोर्ट के हाल के एक फैसले की रोशनी में, जिसमें उन्होंने वकीलों द्वारा किराए का भुगतान न करने से संबंधित जनहित याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया था।

    दुकानदारों-व्याप‌ारिक संस्‍थानों पर दोहरा दबाव

    आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 10 (2) (एल) के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग कर गृह मंत्रालय ने 29 मार्च 2020 को दिए गए ज्ञापन में सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों को उचित कार्रवाई और आवश्यक आदेश जारी करने का निर्देश दिया था, जिनमें अन्य बातों के साथ, एक महीने की अवधि के लिए श्रमिक वर्ग के लिए किराए की माफी का निर्देश भी शामिल था, हालांकि उक्त आदेश में वाणिज्यिक संपत्त‌ियों के लिए किराए के निलंबन/ छूट पर कोई निर्देश नहीं दिया गया था।

    उक्त आदेश की रोशनी में, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और दिल्ली जैसी कई राज्य सरकारों ने कम से कम तीन महीने के लिए किराए की अदायगी को स्थगित करने के लिए परिपत्र जारी किए, और कहा कि उक्त अवधि के लिए किरायेदारों को किराए की संपत्त‌ियों से बाहर न निकाला जाए।

    हालांकि, व्यावसाय‌िक संपत्त‌ियों के किराये के भुगतान पर सरकार की ओर से अस्पष्टता के कारण, विभिन्न खुदरा दुकानों और व्यापारिक संस्थानों पर एक और बिक्री और आमदनी में कमी का दबाव पड़ा और दूसरी ओर उन पर किराए और कर्मचारियों की तनख्वहों के भुगतान का भी दबाव पड़ा।

    कानूनी प्रावधान

    किसी पट्टाधारी/किरायेदार-जमींदार का संबंध एक अनुबंधात्मक संबंध है, जो सहमति पर आधारित होता है। यह रिश्ता जमींदार और किरायेदारों के बीच किए गए आपसी वादों से संचालित होता है, जिसे लीज डीड या रेंट एग्रीमेंट के रूप में दास्तावेज़ीकृत कर लिया जाता है। ये एग्रीमेंट भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 के सभी प्रावधानों के तहत कवर होते हैं। यह एग्रीमेंट/डीड काफी हद तक भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 के विभिन्न प्रावधानों के जरिए संचालित होते हैं, जिनमें प्रस्ताव, स्वीकृति, विचार, उल्लंघन और अनुबंध की विफलता से संबंधित प्रावधान शामिल हैं। यह अनुबंध‌ित पक्षों का निरपेक्ष डोमेन है कि वे समझौते के सभी बोधगम्य वर्तमान और प्रत्याशित स्थितियों और बहिष्करणों से सहमत हो.....

    हालांकि, जब किसी पट्टे को विधिवत निष्पादित किया जाता है, यद्यप‌ि वह भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 के तहत एक अनुबंध होता है, तो उसमें संपत्ति का एक अंतर्निहित हस्तांतरण शामिल होता है, इस प्रकार संपत्ति अधिनियम, 1881 के हस्तांतरण के प्रावधान लागू होता है।

    यह समझ लेना उचित होगा कि force majeure शब्द का अर्थ क्या होता है, किस घटना को force majeure कहा जा सकता है। लैटिन शब्द force majeure का शाब्दिक अर्थ है श्रेष्ठ बल, यानी एक ऐसी घटना का होना जो किसी पक्ष के नियंत्रण से बाहर हो और जो उस पक्ष को अनुबंध के तहत अपने दायित्वों को निभाने से रोकती हो।

    यह एक स्टैंडर्ड क्लॉज है, जो हमेशा कमोबेश हर समझौते का हिस्सा बनता है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय कानून के तहत force majeure क्लॉज को अंतर्निहित नहीं किया जा सकता है, इसे अनुबंध के तहत स्पष्ट रूप से कहा जाना चाहिए और इस पर पक्षों के बीच सहमति होनी चाहिए, और उक्त क्लॉज का लाभ पूरी तरह से क्लॉज के शब्दों और उसकी व्याख्या पर निर्भर करता है।

    एक और महत्वपूर्ण पहलू, जिसे ध्यान में रखा जाना चाहिए, वह यह है कि एक force majeure घटना, समझौते के तहत दायित्वों का निर्वहन न करने पर पूर्ण सुरक्षा प्रदान नहीं करती है, और देनदारियों को खत्म नहीं करती है। इस प्रकार, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि force majeure घटना किरायेदार को उसकी देनदारी से मुक्त नहीं करती है, बल्‍कि केवल स्थगित करती है।

    इसके अलावा, धारा 32 और धारा 56, जिनमें force majeure और डॉक्ट्राइन ऑफ फ्रस्ट्रेशन शामिल है, को समझ लेना भी उचित होगा।

    माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एनर्जी वॉचडॉग बनाम सीईआरसी (2017) 14 एससीसी 80 के मामले में सभी प्रमुख कानूनों की सावधानीपूर्वक जांच करने के बाद स्पष्ट रूप से डॉक्ट्राइन ऑफ फ्रस्ट्रेशन को खारिज कर दिया था और कहा था कि उक्त सिद्धांत समझौते में force majeure क्लॉज की अनुप‌स्थिति की ‌स्थिति में ही लागू होगा। इसके अलावा, को पार्टियों को अनुबंध के तहत दायित्वों से मुक्‍ति केवल इस आधार पर नहीं दी जा सकती कि अप्रत्याशित घटनाओं के कारण वे दायित्वों के निर्वहन में सक्षम नहीं हैं।

    भारतीय अनुबंध अधिनियम बनाम संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम

    अधिकांश लीस डीड / रेंट एग्रीमेंट्स force majeure क्लॉज पर मौन होते हैं और इस प्रकार यह डॉक्ट्राइन ऑफ फ्रस्ट्रेशन की प्रयोज्यता पर स्थितियों की कल्पना करने के लिए स्पष्ट होगा, जहां ‌लीस डीड से force majeure क्लॉज अनुपस्थित हो।

    कॉट्रेक्ट एक्ट की धारा 56 के अनुसार - "किसी भी कार्य को करने के लिए अनुबंध, जो अनुबंध किए जाने के बाद असंभव हो जाता है, शून्य हो जाता है, जब अधिनियम असंभव हो जाता है।"

    संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 108 (ई) - "अगर आग, तूफान, बाढ़, किसी सेना, भीड़ या अन्य लोगों की हिंसा से संपत्ति का कोई भी हिस्सा पूरी तरह नष्ट या स्थायी रूप से नष्ट हो गया हो या काफी हद तक नष्ट हो गया हो, जिस उद्देश्य के लिए इसे दिया गया था, उस उद्देश्य के लिए उपयुक्त न हो तो पट्टा, पट्टेदार के विकल्प पर, शून्य हो जाएगा, आदि। "

    उपर्युक्त प्रावधानों के अध्‍ययन से कतई यह संदेह नहीं है कि भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 56 किसी कृत्य की असंभाव्यता को संदर्भित करती है, जबकि संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 108 (ई) संपत्ति को नष्ट होने या उपयोग के लिए अनुपयुक्त होने का उल्लेख करती है, यह संकेत देता है कि अनुबंध अधिनियम के दायरा, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की तुलना में अधिक व्यापक है।

    माननीय सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1952 में, किदार लाल सील व अन्य बनाम हरि लाल सील 1952 AIR 47 के मामले में अनुबंध अधिनियम की धारा 43 और संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 82 के तहत एक मॉर्टेगेज डीड से उत्पन्न योगदान से संबंधित मामले को समाप्त करते हुए कहा था-

    "जब किसी विशेष मामले के निस्तारण के लिए सामान्य कानून और विशेष कानून है, तो विशेष, सामान्य को बाहर कर देता है।"

    माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रस्तावित पूर्वोक्त अनुपात के आलोक में, यथोचित रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चूंकि संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम में धारा 108 (ई) के तहत लीस से संबंधित एक विशेष प्रावधान है, इसलिए अनुबंध अधिनियम की धारा 56 के तहत दिए गए सामान्य प्रावधान की प्रयोज्यता समाप्त हो जाएगी। हालांकि धारा 108 (ई) के प्रावधानों की शाब्दिक व्याख्या पर, COVID​​-19 के परिदृश्य में यह अप्रभावी प्रतीत होता है क्योंकि न तो लीस पर दी गई संपत्त‌ि को नष्ट किया गया है और न ही उपयोग के प्रयोजनों के लिए अयोग्य हुई है।

    इस प्रकार की अनिश्चित परिस्थितियों में, हालांकि पट्टे की संपत्ति पर पट्टाधारी का अधिकार जारी रहता है, हालांकि यह एक निश्चित अवधि के लिए, जब तक कि पट्टाधारी अनिनियंत्र‌ित परिस्थितियों के कारण पट्टे से पर्याप्त लाभ प्राप्त करने अक्षम हो। इसके अलावा, ऐसी स्थिति में पट्टेदार परिसर पर कब्जा जारी नहीं रख सकता है या यह नहीं कह सकता है कि पट्टा जारी रहेगा लेकिन वह किराए का भुगतान नहीं करेगा।

    समाधान

    वर्तमान तथ्यात्मक स्थिति और स्थापित कानूनी स्थिति के विश्लेषण के बाद, आसन्न विवादों का संभावित समाधान पार्ट‌ियों के पास ही मौजूद लगता है, जिन्हें अधिक यथार्थवादी होने की आवश्यकता है और इन परिस्थित‌ियों को समझने की आवश्यकता है। इन स्थित‌ियों का हल पार्ट‌ियों और कार्यपालिका में पास है, न कि न्यायपालिका के पास।

    पार्टियों (जमींदारों/पट्टाकारों और किरायेदारों/ पट्टाधारियों) यथार्थवादी होने की आवश्यकता है, और मुकदमेबाजी की लागत, अदालती खर्च आदि को देखते हुए अधिक व्यावहारिक होने की आवश्यकता है।

    एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि मौजूदा महामारी का दौर खत्म होने के बाद मंद का दौर आ सकता है, सभी कारोबारी गतिविधियां धीमी पड़ सकती हैं, वर्क फ्रॉम होम का कल्चर आम हो सकता है। ऐसे में संभव है कि आवासीय और वाणिज्यिक कार्य स्‍थलों की मांग कम हो जाएंगी, और उस स्थिति में मकान मालिकों के ‌लिए वर्तमान किराये की दर पर नए किरायेदारों की तलाश करना बहुत मुश्किल होगा।

    इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सबसे अच्छा समाधान यह है कि किराये के मामलों को बातचीत से सुलझाया जाए ओर बातचीत से समझौता न हो तो मध्यस्थों की मदद ली जाए। अंतरिम उपाय के रूप में महामारी को देखते हुए अगले छह महीनों के लिए किराये को कम किया जाए और महामारी के बाद दोबार हालात के अनुसार फैसला लिया जाए।

    इसके अलावा, अगर पट्टाधारी/ किरायेदार दिवालिया हो गया है या किराए के भुगतान में कठिनाई हो रही है और पट्टाकर्ता उसे परेशान कर रहा है तो वह पुलिस हेल्पलाइन डायल 100 का विकल्प इस्तेमाल कर सकता है। कुछ राज्य सरकारों ने निर्देश जारी किए हैं इन चुनौतीपूर्ण समय में किरायेदारों को को जबर्दस्ती न निकाला जाए।

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