माओवादी परचे रखने पर यूएपीएः विचारों पर पहरेदारी का भयानक नमूना

LiveLaw News Network

17 Nov 2019 3:53 AM GMT

  • माओवादी परचे रखने पर यूएपीएः विचारों पर पहरेदारी का भयानक नमूना

    माओवाद की राजनीतिक विचारधारा हमारी संवैधान‌िक शासन पद्घति से सहमति नहीं रखती फिर भी माओवादी होना अपराध नहीं है।

    आर्य सुरेश


    केरल पुलिस ने सीपीआई (एम) के दो कार्यकर्ताओं को माओवाद समर्थक पैम्‍फलेट रखने के आरोप में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) जैसे कठोरतम कानून के तहत गिरफ्तार कर आतंकवादी निरोधी कानून के दुरुपयोग पर नई बहस को हवा देदी है।

    पुलिस ने दावा किया था कि उसने दोनों कार्यकर्ताओं के पास से माओवादी विचारधारा के प्रचार से संबधित 'संदिग्ध पैम्फलेट' बरामद किए थे। पुलिस ने गिरफ्तार युवकों एलन सुहैब और तहा फैज़ल , जिनकी उम्र 20 वर्ष के आसपास है, पर यूएपीए के सेक्शन 20 (जिसमें आतंकी समूह या संगठन का सदस्‍य होने पर सजा का प्रावधान है।), 38 (आतंकी संगठन से संबद्घ होने का अपराध), 39 ( आतंकी संगठन को सहयोग प्रदान करने का अपराध) के तहत मुकदमा दर्ज किया है और अदालत ने उन्हें 15 दिन की हिरासत में भेज दिया है।

    एलन कानून के और तहा पत्रकारिता के छात्र हैं। उन पर आरोप है कि वे केरल के पल्‍लक्कड़ जिले के मंजाकट‍्टी जंगल में हुए चार माओवादी कार्यकर्ताओं के कथ‌ित एनकाउंटर की आलोचना में पैम्फलेट बांट रहे थे।

    ये गिरफ्तारियां, उन न्यायिक फैसलों के विपरीत हैं जिनमें उन स्थितियों की व्याख्या की गई है जिनके तहत किसी व्यक्ति ‌‌गैर कानूनी संगठन का सदस्य माना जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने टाडा कानून के तहत एक व्यक्ति पर लगे आतंकवाद के दोष को रद्द करते हुए कहा था ‌कि ''मात्र किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता, जबतक कि वह व्यक्ति हिंसा का सहारा न ले अथवा लोगों को हिंसा के लिए उकसाए न अथवा हिंसा करके या हिंसा भड़काकर सार्वजनिक अव्यवस्‍था न पैदा करे।''

    अरूप भुयन बनाम स्टेट ऑफ असम के मामले में जस्टिस मारकंडेय काटजू और जस्टिस जीएस मिश्रा की बेंच ने कहा था कि भारतीय कानून में 'संबद्घता द्वारा अपराध' जैसी कोई संकल्पना नहीं है, तात्पर्य यह कि किसी व्यक्ति को मात्र संगति के आधार पर दंडित नहीं किया जा सकता।

    सर्वोच्‍च अदालत ने टाडा कानून के सेक्‍शन 3(5) की व्याख्या करते हुए कहा था कि राजनीतिक या सामाजिक सुधार को प्राप्त करने के लिए हिंसा की वकालत करना मात्र अथवा ऐसी किसी किताब, परचे, ‌जिनमें ऐसी बात कही गई हो, को प्रका‌शित या वितरित या प्रदर्शित करना मात्र गैर कानूनी नहीं है। ये केवल तब गैर कानूनी होता है, जब ये किसी हालिया गैर कानूनी गतिविधि को उकसाने में शामिल हो। अदालत ने माना है कि टाडा के सेक्‍शन 3(5), जो कि गैर कानून संगठन के सदस्यता से संबंधित है, का शब्दशः अनुप्रयोग अनुच्छेद 14 और 19 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करता है।

    पिछली मई में एक कथित माओविस्ट स‌िम्पेथाइजर की जमानत को सुप्रीम कोर्ट ने ये कहकर बरकरार रखा था कि प्र‌तिबंध‌ित संगठन की सदस्यता मात्र होने भर से आंतकी कृत्य में शामिल होने का निष्‍कर्ष नहीं निकाला जा सकता।

    संक्षिप्त में ये कि सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट रूप से मानना है कि किसी व्यक्ति को मात्र एक प्रतिबं‌धित संगठन से संबद्घता या सदस्यता के आधार पर अपराधी नहीं ठहाराया जा सकता।

    यदि ऐसा है तो, तार्किक रूप से ऐसे आदेश का अर्थ ये भी है कि प्रतिबंध‌ित संगठन की विचारधारा से जुड़ा साहित्य या किताबें रखना अपराध नहीं है। हालांकि ऐसा लगता है कि केरल की पुलिस या तो इन कानूनी सिद्घांतों से वाकिफ नहीं या इन्हें मानने की इच्छा नहीं रखती।

    क्या माओवादी साहित्य रखना अपराध है?

    इस संदर्भ में केरल उच्‍च न्यायालय द्वारा श्‍याम बालाकृष्‍णन मामले ‌‌‌दिया गया ऐतिहासिक फैसला बहुत ही प्रासंगिक है, जिसमें जस्टिस मुहम्‍मद मुस्ताक ने कहा था कि:

    'हालांकि माओवाद की राजनीतिक विचारधारा हमारी संवैधान‌िक शासन पद्घति से सहमति नहीं रखती फिर भी माओवादी होना अपराध नहीं है। मानव‌ीय आकांक्षाओं के संदर्भ में चिंतन करना मनुष्य का मौलिक अधिकार है। विचारों की स्वतंत्रता और चेतना की स्वाधीनता कुदरती अधिकार हैं और किसी भी व्यक्ति द्वारा इनका त्याग नहीं किया जा सकता और ऐसी स्वतंत्रता मनुष्य के म‌‌स्त‌िष्‍क और आत्मा में सन्‍न‌िहित है। हालांकि ये आजादी तब गैर-कानूनी हो जाती है, जब ये राज्य के सकारात्मक कानूनों का विरोध करती है। यदि माओवादी संगठन कानून के तहत प्रतिबंधित संगठन है, तब माओवादी संगठन की गतिविधियों में हस्तक्षेप किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति या संगठन घृणा फैलाता है और हिंसा का सहारा लेता है, ऐसी स्थिति में कानूनी एजेंसियां ऐसे व्यक्ति या संगठन को रोक सकती हैं अथवा उनके खिलाफ एक्‍शन ले सकती हैं। यदि किसी व्यक्ति की सोच या विचार कानून के तहत निर्धारित सार्वजनिक मूल्यों के खिलाफ हो जाएं, उसी स्थिति में व्यक्तिगत गतिविधियां गैर कानूनी हो जाती हैं। इसलिए जब तक कि पुलिस किसी व्यक्ति के ग‌तिविधियों के गैर कानूनी होने के पक्ष में ठोस राय न बना ले, मात्र माओवादी होने के आधार पर उसे हिरासत में नहीं ले सकती है।'

    उपरोक्त मामले में कोर्ट ने उस याचिककर्ता को, जिसे संदिग्ध रूप से माओवा‌दियों से संपर्क होने के आरोप में हिरासत में लिया गया था, 10 लाख रुपए का मुआवजा देने का आदेश भी दिया था।

    उसी मामले में केरल सरकार की अपील खार‌िज करते हुए केरल हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस जयशंकरन नांबियार की बेंच ने कहा कि-

    'किसी व्यक्ति का किसी विशेष विचारधारा को मानने आजादी हमारे संव‌िधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त उसकी व्यक्तिगत आजादी के मौलिक अधिकार का एक पहलू है, जिसमें उसे अपनी पसंद की विचारधारा के चयन का अबाध अ‌‌धिकार है। इसके मुताबिक, मात्र ऐसी आशंका के आधार पर कि याचिकाकर्ता माओवादी विचारधारा को मानता है, राज्य के अधिकारी उसे प्रताड़ित नहीं कर सकते।'

    केरल सरकार की अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में दिए गए निर्देश पर रोक लगा दी है।

    विचारों पर पहरेदारी?

    किसी व्‍यक्ति पर मात्र इस आधार पर कि, वो किन किताबों को पढ़ता है और कैसे परचे रखता, यूएपीए लगा देने जैसे कृत्यों से आश्चर्यजनक रूप से विचारों पर पहरा लगाने की बू आती है।

    राज्य के दमनकारी औजार एक व्यक्ति के दीमाग में पहुंच कर उसकी सोच और विचारों का नियंत्रित करें, ऐसी कल्पना हमारे संव‌िधान ने बिलकुल नहीं की थी। जबकि हमारा संविधान व्यक्ति को आधारभूत इकाई मानता है।

    सुप्रीम कोर्ट ने 1983 के एक निर्णय में ये स्पष्ट भी किया था, जहां उसने कहा था-

    'हिंदुस्तान पुलिस स्टेट नहीं बल्‍कि लोकतांत्रिक गणराज्य है।'

    जस्ट‌िस ‌चिन्‍नप्‍पा रेड्डी ने इसी फैसले में टिप्‍पणी की थी कि मौलिक अधिकारों के तहत प्रदान विचारों की स्वतंत्रता ही है, जो भारत को किसी तानाशाह मुल्क या पुलिस स्टेट से अलग करती है।

    2011 में आए स्टेट ऑफ केरल बनाम रनीफ के केस के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाईकोर्ट द्वारा यूएपीए के तहत आरोपी एक व्य‌क्ति को दी गई जमानत को बरकरार रखा था, उस व्यक्ति पर आरोप था ‌कि वो एक गैर कानूनी संगठन से जुड़ा है, हालांकि वो सक्रिय नहीं है।

    उस मामले में अभियोग पक्ष ने कहा था कि आरोपी के पास जिहाद से जुड़ा सहित्य मौजूद है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा ‌था कि प्रथम दृष्‍टया ऐसा कोई सबूत नहीं है, जिसके आधार पर आरोपी की जमानत पर यूएपीए कानून के सेक्‍शन 43(D)(5) के तहत रोक लगाई जाए।

    यूएपीए के ही मामले में डॉक्टर ‌‌बिनायक सेन को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मात्र माओवादी साहित्य रखने भर से कोई अपराधी नहीं हो जाता।

    विश्वनाथ बनाम स्टेट ऑफ गुजरात के यूएपीए के एक अन्‍य मामले में, जिसका आधार भी माओवादी प्रचार साहित्य रखना ही था, गुजरात हाई कोर्ट ने कहा था किः

    'बिना किसी परोक्ष कृत्य अथवा वास्तव में ऐसे विचारों के क्रियान्वयन के मात्र ऐसी सामग्री का रखना किसी अपराध का आधार नहीं है।'

    नागरिक अधिकारों का समर्थक होने के नाते, पुलिस का यूएपीए का अविवेकपूर्ण इस्तेमाल और ऐसी मामलों में अब तक के न्याय‌िक फैसलों की स्पष्ट अनदेखी बहुत तनाव देती है।

    मौलिक अधिकारों पर सतत हमले

    ये ध्यान देने योग्य है कि यूएपीए के तहत जमानत पाना बहुत ही कठिन है। इस कानून के तहत ऐसे प्रावधान है, जो पुलिस को किसी व्यक्ति को 180 दिन बिना आरोप पत्र दाखिल किए कस्टडी में रखने का अधिकार देते हैं। इसका मतलब ये है कि पुलिस किसी व्यक्ति को मात्र कोई किताब या परचा रखने के आधार पर लगभग 6 महीने बिना किसी ट्रायल के हिरासत में रख सकती है। ऐसे उदाहरण हैं, जब लोगों पर मात्र क्रांतिकारी साहित्य रखने के आधार पर पुलिस ने यूएपीए लगा दिया। ये बहुत खतरनाक है और उतना ही बेतुका है ‌जितना किसी को हिटलर की आत्मकथा 'मीन कॉम्‍फ' रखने के आधार पर नाजी ठहरा देना।

    किसी व्यक्ति को मात्र भाषण या विचार के आधार पर अपराधी या आतंकी ठहरा देना, संविधान के उस मूल सिद्घांत के ख‌िलाफ है, जिसके मुताबिक किसी भाषण पर तभी सजा हो सकती है, जब उससे सीधे रूप से या निकट भविष्य में हिंसा भड़के। ये मुद्दा कठोर कानूनों के तहत पुलिस को दी गई अपार शक्तियों के खतरों पर भी रोशनी डालता है।

    आलेख का समापन संविधान सभा की बहस में की गई प्रोफेसर केटी शाह की एक टिप्‍पणी से करना ठीक होगा, 'न‌िरंकुश शासक और तानाशाह ‌की हमेशा यही कामना होती है कि जब उनके तर्क खत्म हो जाएं तो उनके मुंह बंद करवां दिए जाएं जो उनसे सहमति नहीं रखते।'

    यूएपीए जैसे कठोरतम कानून को इस्तेमाल ज्यादातर उन आजाद-खयाल लोगों को खामोश करने के लिए होता है, जिनसे सत्ता असुरक्षित महसूस करती है।'

    (लेखक गवर्नमेंट लॉ कॉलेज, एर्नाकुलम के छात्र हैं।)

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