सुप्रीम कोर्ट का 'अवैध लेकिन स्वीकार्य' न्यायशास्त्र
Manu Sebastian
2 Aug 2023 1:20 PM IST
कोर्ट के फैसले और अखबार के संपादकीय या विचार के बीच स्पष्ट अंतर होता है। जहां दोनों एक सैद्धांतिक रुख अपनाना चाहते हैं और उच्च नैतिक विवेक की अपील करते हैं, अदालती फैसले में वास्तविक परिणाम पैदा करने की शक्ति होती है, जबकि संपादकीय लेख का उद्देश्य केवल अमूर्त स्तर पर जनता की राय को आकार देना हो सकता है।
कोर्ट का निर्णय किसी गैरकानूनी कृत्य के प्रभाव को खत्म कर सकता है, प्रभावित पक्ष को न्याय दे सकता है और गलत पक्ष को दंडात्मक परिणाम दे सकता है ताकि एक अवरोधात्मक मूल्य बनाया जा सके।
प्रवर्तनीयता के इस तत्व के बिना, कोर्ट का निर्णय किसी पत्रिका में एक लेख जैसा होगा। बेशक, इस तरह के फैसले का फिर भी एक मिसाल होगी; लेकिन यह वर्तमान अन्याय का निवारण किए बिना भविष्य के लिए कानून बनाने की एक प्रक्रिया होगी।
हाल के कुछ निर्णयों में एक उल्लेखनीय पैटर्न देखा जा सकता है, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट कुछ कार्यों को अवैध मानता है, लेकिन उन्हें जारी रखने की अनुमति देता है। अवैधता को जारी रखने की अनुमति देने के कारण बाहरी हैं, जिन्हें अक्सर "बड़े सार्वजनिक हित", "राष्ट्रीय हित", "इक्विटी को संतुलित करना" आदि जैसे शब्दों के रूप में दिखाया जाता है।
"पूर्ण न्याय" करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट की विशेष शक्तियां का आह्वान अवैधताओं को जारी रखने की अनुमति देने के लिए किया जाता है। अंतिम परिणाम यह होता है कि राहत केवल अकादमिक बन जाती है - बिना किसी वास्तविक भौतिक परिणाम के अवैधता की घोषणा - और गलत काम करने वालों को अपने गलत कार्यों का फल मिलता है।
इन्हें "ऑपरेशन सफल लेकिन मरीज की मृत्यु" परिदृश्य कहा जा सकता है।
ईडी निदेशक मामले (डॉ.जया ठाकुर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया ) में, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से माना कि 2021 और 2022 में एसके मिश्रा के लिए दिया गया विस्तार अवैध था। तार्किक परिणाम यह होगा कि ईडी निदेशक के रूप में मिश्रा का कार्यकाल 17 नवंबर, 2021 से आगे नहीं बढ़ सकता है। फिर भी अदालत ने उन्हें 31 जुलाई, 2023 तक पद पर बने रहने की अनुमति दी। मामला निपटाने के बाद, केंद्र ने फिर से उनका कार्यकाल बढ़ाने की मांग की और 15 अक्टूबर, 2023 तक विस्तार की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने केंद्र से पूछा कि क्या विभाग में इस पद को संभालने के लिए कोई अन्य सक्षम अधिकारी नहीं है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि एक और विस्तार की अनुमति देने से गलत संकेत जाएगा कि अवैधता कायम रह सकती है।
कोर्ट ने केंद्र के इस तर्क पर विचार करते हुए कि एफएटीएफ समीक्षा के लिए पद पर बने रहना आवश्यक है, "व्यापक राष्ट्रीय हित" के मद्देनजर उन्हें 15 सितंबर तक विस्तार की अनुमति दी।
2017 में केरल में जिला न्यायाधीशों के चयन से संबंधित मामले (शिवनंदन सीटी और अन्य बनाम केरल हाईकोर्ट और संबंधित मामले) में भी इसी तरह का दृष्टिकोण देखा गया था। असफल उम्मीदवारों ने इस आधार पर चयन को चुनौती दी कि केरल हाईकोर्ट ने अंतिम मेरिट सूची निकालने के लिए परिणामों के सारणीकरण के बाद मौखिक परीक्षा के अंकों के आधार पर कट-ऑफ तय की थी। सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने केरल हाईकोर्ट की प्रक्रिया में दोष पाया और इसे प्रासंगिक चयन नियमों के विपरीत पाया और इसे "मनमाना" करार दिया। हालांकि, कोर्ट ने यह कहते हुए चयन को रद्द करने से परहेज किया कि चयनित उम्मीदवार पिछले छह वर्षों के दौरान जिला न्यायाधीश के रूप में कार्य कर रहे थे जब याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित थी। कोर्ट ने कहा, "हम इस तथ्य को नज़रअंदाज नहीं कर सकते कि सभी चयनित उम्मीदवार अन्यथा न्यायिक पद के लिए योग्य हैं और लंबे समय से काम कर रहे हैं। उन्हें पद से हटाना कठोर होगा और इसके परिणामस्वरूप ऐसी स्थिति पैदा होगी जहां उच्च न्यायपालिका उन योग्य उम्मीदवारों, जिन्होंने पिछले छह वर्षों में अनुभव प्राप्त किया है, की सेवाएं खो देगी।"
महाराष्ट्र शिव सेना मामले (सुभाष देसाई बनाम महाराष्ट्र के राज्यपाल के प्रधान सचिव) में भी दृष्टिकोण अलग नहीं था। संविधान पीठ ने माना कि एकनाथ शिंदे को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता देने और शिंदे समूह द्वारा नामित व्यक्ति को शिवसेना विधायक दल के सचेतक के रूप में स्वीकार करने के अध्यक्ष के फैसले अवैध थे।
कोर्ट ने महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार के लिए शक्ति परीक्षण बुलाने के फैसले को भी असंवैधानिक ठहराया। फिर भी, कोर्ट ने यह कहते हुए उद्धव ठाकरे को राहत देने से इनकार कर दिया कि उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में बहाल नहीं किया जा सकता क्योंकि उन्होंने फ्लोर टेस्ट का सामना करने से पहले इस्तीफा दे दिया था। यह देखने के बावजूद कि राज्यपाल अंतर-पक्षीय विवादों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते, कोर्ट ने माना कि राज्यपाल द्वारा शिंदे को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना उचित था। जबकि जो लोग असंवैधानिक कृत्यों में लिप्त थे, उन्हें कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ा और वास्तव में वे अपने कुकर्मों के परिणामों का आनंद ने रहे हैं, कोर्ट ने ठाकरे को उनके द्वारा किए गए एक राजनीतिक निर्णय के लिए 'दंडित' किया।
इस दृष्टिकोण का ज्वलंत उदाहरण अयोध्या-बाबरी मस्जिद मामला (एम सिद्दीक बनाम महंत सुरेश दास और अन्य) है। संविधान पीठ ने माना कि 1949 में एक समूह द्वारा मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के नीचे मूर्तियां स्थापित करने के बाद आंतरिक प्रांगण से मुसलमानों को बाहर निकालना अवैध था। यह देखा गया कि “उस अवसर पर मुसलमानों को बाहर करना किसी वैध प्राधिकारी के माध्यम से नहीं बल्कि एक ऐसे कृत्य के माध्यम से किया गया था, जो उन्हें उनके पूजा स्थल से वंचित करने के लिए किया गया था।”
न्यायालय ने यह भी माना कि मस्जिद का ध्वंश "कानून के शासन का घोर उल्लंघन था"। कोर्ट ने कहा, "मुसलमानों को गलत तरीके से उस मस्जिद से वंचित किया गया है जिसका निर्माण 450 साल पहले किया गया था।" हालांकि, न्यायालय ने उस स्थान पर मंदिर के निर्माण की अनुमति दी जहां मस्जिद विध्वंस से पहले खड़ी थी और आदेश दिया कि मस्जिद के निर्माण के लिए 5 एकड़ वैकल्पिक भूखंड आवंटित किया जाए।
कड़वी सच्चाई यह है कि नैतिक निंदा और सांत्वना संबंधी घोषणाएं कानून के गंभीर उल्लंघन और अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ ठोस राहत में तब्दील नहीं हो सकती हैं; बल्कि, इसके परिणामस्वरूप अन्याय को बढ़ावा मिलता है।