COVID 19 इमर्जेंसीः सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर विफल रहा

LiveLaw News Network

26 May 2020 4:30 AM GMT

  • COVID 19 इमर्जेंसीः सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर विफल रहा

    योगेश प्रताप स‌िंह और लोकेंद्र मल‌िक

    न्यायिक प्रक्रिया और कानूनी प्रणाली के प्रति लोकप्रिय और पेशेवर, असंतोष, नई घटना नहीं है। हालांकि, संकट के समय संस्थानों की विश्वसनीयता का परीक्षण होता है क्योंकि विश्वसनीयता ही किसी भी संकट में तनाव की परख का आधार होती है।

    1975 का राष्ट्रीय आपातकाल, जिसमें जीवन और स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी को निलंबित कर दिया गया था, ने सर्वोच्च न्यायालय की विश्वसनीयता का परीक्षण किया था और जहां उसने बंदी प्रत्यक्षीकरण को निलंबित कर काफी हद तक अपनी विफलता का प्रदर्शन किया था, जिसका नतीजा यह रहा है कि सरकार ने हजारों लोगों को अवैध रूप से हिरासत में रखा। न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस घटना को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का निरंकुश सरकार के समक्ष "पूर्ण समर्पण" करार दिया ‌था।

    हालांकि लोकतंत्र बच गया। न्यायाधीशों ने माफी मांगी ‌थी। जस्टिस भगवती ने 35 साल बाद कहा था, "मैं गलत था। बहुमत का निर्णय ही सही निर्णय नहीं होता। अगर मैं दोबारा फैसला कर पाता तो मैं जस्टिस एचआर खन्ना के फैसले से सहमत होता। मुझे (फैसले के लिए) खेद है।"

    उन काले धब्बों को मिटाने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक सक्रियता के एक नए चरण की रचना की और वंचितों, कमजोरों और अशिक्षितों के लिए के लिए अविश्वसनीय कार्य किया। सर्वोच्च न्यायालय ने संस्था में भरोसा कायम किया और जनअदालत में तब्दील हो गया। सुप्रीम कोर्ट ने मानव स्थितियों और गरिमा की बेहतरी के लिए कई फैसले ‌किए।

    हालांकि, एक बार फिर विपत्ति का समय आ गया है। हालात आपातकाल से कम नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर अपने कर्तव्यों के निर्वहन में विफल रहा है और अघोषित आपातकाल के नाम पर सरकार को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की अनुमति दी है। हाल के न्यायिक फैसलों से एक सामान्य धारणा बनी है कि हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कई महत्वाकांक्षी मामलों में मदद की है, जैसे राम मंदिर, राफेल केस, जज लोया की मौत आदि मामले।

    सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 370 पर केंद्र के फैसले के खिलाफ दायर कानूनी और संवैधानिक चुनौतियों की जांच करने से भी परहेज किया, जिसके जर‌िए जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति को बदल दिया गया ‌था। हैरानी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट उन बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर भी ध्यान नहीं दिया, जिसमें राज्य के लोगों के जीवन और स्वतंत्रता के खतरे का मसला उठाया गया था। बल्‍कि कोर्ट ने याचिकाओं को गंभीर दोषों से भरा हुआ और निरर्थक बताकर वापस लौटा दिया।

    और तो और सरकार ने जब कहा कि प्रतिबंधों को जल्द ही कम किया जाएगा, तब कोर्ट ने सरकार को हालात की समीक्षा के लिए और अधिक समय देने का फैसला किया। ऐसे मामले, जिसमें किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता शामिल थी, सुप्रीम कोर्ट के लिए उन्हें स्थगित करने का कोई औचित्य नहीं था।

    अभी इससे भी बुरा दौर आना बाकी था। जस्टिस एल नागेश्वर राव, जस्टिस कौल और जस्टिस गवई की बेंच ने उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें मांग की गई थी कि सरकार सभी जिलाधिकारियों को प्रवासी मजूदरों की पहचान करने, उन्हें आश्रय, भोजन उपलब्ध कराने और उनके घरों तक मुफ्त परिवहन सुनिश्चित करने का आदेश दे। ये फैसला उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में दो अलग-अलग दुर्घटनाओं में चौदह प्रवासी श्रमिकों के मौत के एक दिन बाद आया था, जिन दुर्घटनाओं में 60 से अधिक लोग घायल हो गए थे।

    केंद्र सरकार ने कोरोनोवायरस का मुकाबला करने के लिए चार घंटे के नोटिस पर अभूतपूर्व लॉकडाउन लगाया और अपने इस फैसले से लाखों लोगों को जोखिम में डाल दिया। कोई ऐसी सलाह जारी नहीं की गई, जिसमें लोगों से अपील की गई हो कि वे आपातकालीन स्थितियों को छोड़कर, जहां है, वहीं बने रहें और न संसाधनों की कोई व्यवस्‍था की गई। सरकारों ने वादे तो किए लेकिन उन्हे धरातल पर नहीं उतारा गया। केंद्र और राज्य सरकारों के प्रयासों या तो तालमेल नहीं था या या उन्हें ठीक से लागू नहीं किया गया।

    मजदूरों और गरीबों के लिए यह अस्तित्व की रक्षा की बात हो गई। उन्हें -कोरोनोवायरस या भुखमरी- दो विकल्पों के बीच चुनाव करने के लिए छोड़ दिया गया। इन दो विकल्पो में भूख अधिक घातक और तत्कालिक थी, इसल‌िए लोगों ने भूख से निजात पाने की कोशिश ज्यादा की।

    लॉकडाउन एक सरकारी कार्रवाई थी, जिसने आम आदमी की आजीविका को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया, आजीविका का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय की अनुच्छेद 21 की सबसे चर्चित व्याख्या रही है कि "जीवन का अधिकार केवल 'जैविक अस्तित्व' का अधिकार नहीं है, इसके आत्म - सम्मान के साथ जीना भी शामिल है।"

    सुप्रीम कोर्ट द्वारा विकसित मानव गरिमा के न्यायशास्त्र में आजीविका, आश्रय और स्वस्थ वातावरण के अधिकार को शामिल किया गया है। इसलिए, किसी व्यक्ति को आजीविका के अधिकार से वंचित करना, उसे जीवन के अधिकार से वंचित करना होगा [ओल्गा ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन (1985) और डी.टी.सी. बनाम मजदूर कांग्रेस]। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पुष्टि की थी कि न्यायपालिका राज्य सरकार के कार्यों की जांच करने और संवैधानिक मानकों के अनुसार रखने के लिए बाध्य है।

    न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की अगुवाई वाली खंडपीठ ने कहा कि रेलवे ट्रैक पर उन्हें सोने पर कोई कैसे रोक सकता है?" लोग सड़कों पर चल रहे हैं और रुक नहीं रहे हैं। उन्हें कैसे रोक सकते हैं?"

    इससे पहले 01 अप्रैल 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर, जिसमें मांग की गई ‌थी कि राज्य सरकार प्रवासी मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करें, पर कहा था कि "सरकार भोजन दे रही तो फिर मजदूरी देने की आवश्यकता क्यों है?"

    "अदालत के लिए यह निगरानी कर पाना असंभव है कि सड़क पर कौन चल रहा है और कौन नहीं चल रहा है।" सर्वोच्च न्यायालय का असहाय प्रवासी श्रमिकों के प्रति यह दृष्टिकोण निराशाजनक है और स्थापित न्यायशास्त्र के खिलाफ है। इसने श्रीमती इंदिरा गांधी के निरंकुश आपातकाल की पीड़ा को ताजा कर दिया है।

    3.3 करोड़ मामलों के बैकलॉग के साथ बढ़ती पेंडेंसी, कार्यकारी दबाव में न्यायिक नियुक्तियां, सुप्रीम कोर्ट में लगातार भ्रष्टाचार के आरोप, नियुक्तियों सहित महत्वपूर्ण मामलों में वरिष्ठ न्यायाधीशों के बीच मतभेद, सीजेआई के खिलाफ कथित यौन उत्पीड़न, कार्यपालिका की प्रशंसा करने वाले न्यायाधीश और SC की लगातार सरकार के साथ हमजोली न्यू नॉर्मल होता जा रहा है।

    हालांकि यह अनिश्चित प्रवृत्ति प्रवासी श्रमिकों के हालिया रवैये के साथ खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है। जनता की अदालत के रूप में सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा चौपट हो गई है। ऐसी आशंका होने लगी है कि मौजूदा न्यायिक गिरावट अधिक गहरी और लंबी हो सकती है और हालात सामन्य होने की संभवाना भी कम है।

    यह लेखकों के व्यक्तिगत विचार हैं।

    (दोनों लेखकों में से एक एनएलयू ओडिशा में कानून के प्रोफेसर हैं, जबकि दूसरे और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिसिंग एडवोकेट हैं।)

    Next Story