सफूरा ज़रगर की जमानत पर रोकः व्यक्तिगत आज़ादी पर भारी पड़ीं उल्टीपुल्टी दलीलें
Manu Sebastian
5 Jun 2020 4:49 PM IST
अतिरिक्त सत्र न्यायालय, पटियाला हाउस, नई दिल्ली का जामिया मिल्लिया इस्लामिया की छात्रा सफूरा ज़रगर को जमानत न देने का फैसला भ्रामकों तर्कों और निराधार अटकलों पर आधारित है। 27 वर्षीय ज़रगर पर फरवरी में दिल्ली में हुए दंगों की साजिश में शामिल होने का आरोप है और उन पर भारतीय दंड संहिता और गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के तहत अपराध दर्ज किया गया है। उल्लेखनीय है कि सफुरा गर्भावस्था की दूसरी तिमाही में हैं।
अभियोजन पक्ष ने सफूरा पर आरोप लगाया है कि 23 फरवरी को उनके 'भड़काऊ भाषण' के कारण उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगा हुए। ज़रगर के वकील की कोर्ट में दलील थी कि वह संविधान के तहत प्रदत्त भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकारों के अनुरूप नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ वैध और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रही थीं। अगर यह मान भी लिया जाए कि अभियोजन पक्ष के आरोप ठीक हैं, तो भी उन पर यूएपीए के कड़े प्रावधानों के तहत मामला दर्ज करने का कोई आधार नहीं है।
हालांकि इन दलीलों को खारिज करते हुए कोर्ट ने यूएपीए के सेक्शन 43D (5) का हवाला देते हुए जमानत देने से इनकार कर दिया। सेक्शन 43D (5) में कहा गया है कि अगर प्रथम दृष्टया कोई केस बनता है तो जमानत नहीं दी जानी चाहिए। हालांकि सेक्शन 43D(5) को लागू करने के लिए कोर्ट को यह स्पष्ट करना चाहिए था कि क्या मामला प्रथम दृष्टया यूएपीए के तहत आएगा? यदि इस पहलू की व्याख्या करें तो इस आदेश की गड़बड़ियां दिखाई देंगी।
अभियोजन पक्ष की ओर से पेश सामग्री, जैसे कि व्हाट्सएप चैट और धारा 161/164 सीआरपीसी के तहत दर्ज किए गवाहों के बयान के आधार पर, अदालत ने कहा है कि 'प्रथम दृष्टया सबूत है कि कम से कम सड़क को जाम (चक्का जाम) करने की साजिश थी।' चक्काजाम की साजिश का यह प्रथम दृष्टया केस यूएपीए का अधार बनाया गया है।
कोर्ट ने यह बताने के बाद कि आरोपी ने चक्का जाम की साचिश की थी, कहा, 'अभियोजन पक्ष के मामले को नजरअंदाज नहीं किया सकता है कि आरोपियों ने इस हद तक और इतनी ज्यादा बाधाएं खड़ी करने की साजिश की कि इससे अभूतपूर्व पैमाने कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी पैदा हुई।'(आपूर्ति पर जोर दिया गया।)
जैसा कि स्पष्ट है, आदेश में कई अस्पष्ट शब्दों का उपयोग देखा जा सकता है, जैसे कि 'इस हद तक और इतनी ज्यादा बाधाएं खड़ी की', 'अभूतपूर्व पैमाने पर'। क्या ये शब्द आरोपियों की ओर से किए गए कथित 'चक्का जाम' संदर्भ में हैं? इस मुद्दे पर कोई विशेष विवरण नहीं दिया गया है, जो कि अटकलबाजी के लिए मजबूर करता है।
इसके बाद, अदालत ने एकाएक कहती है कि यह यूएपीए के तहत मामला दर्ज करने का वैध आधार है। यह अश्चर्यजनक है, क्या विरोध प्रदर्शन के लिए लगाया गया 'चक्का जाम' यूएपीए का आधार हो सकता है? चौंकाने वाली बात यह है कि यह निष्कर्ष पूरी तरह से 'अभियोजन के केस' पर आधारित है, जिसका अभियुक्तों की दलीलों के खिलाफ परीक्षण नहीं किया गया है।
इसके बाद, कोर्ट की यह कहने की मजूबरी देखी जा सकती है आरोपी (चक्का जाम!) की गतिविधियां यूएपीए की धारा 2 (o) के तहत 'गैरकानूनी गतिविधि' हैं।
यूएपीए की धारा 2 (o) में तीन अलग-अलग कृत्यों को सूचीबद्ध किया गया है, जो कि 'गैरकानूनी गतिविधि' बन सकती है। इस चर्चा के लिए जो प्रासंगिक है, वह धारा 2 (o) का खंड (iii) है, जो कहता है कि ऐसा कृत्य जो भारत के खिलाफ विरोध का कारण बनता है या विरोध का इरादा रखता है, 'गैरकानूनी गतिविधि' के बराबर है।
वाक्यांश 'भारत के खिलाफ विरोध', को धारा 124 A IPC के तहत राजद्रोह के संदर्भ में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य जैसे कई फैसलों के स्पष्ट किया गया है। निर्धारित कानून यह है कि सरकार के खिलाफ असंतोष की अभिव्यक्ति मात्र 'भारत के खिलाफ विरोध' का आधार नहीं होगी। केदारनाथ मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 124 A की व्याख्या यह तय करने के लिए कि राजद्रोह का आरोप 'अव्यवस्था पैदा करने या कानून-व्यवस्था की गड़बड़ी पैदा करने या हिंसा को उकसाने के इरादे से किए गए कृत्य' तक सीमित होना चाहिए।
केदारनाथ मामले के फैसले का हवाला देते हुए, यहां कि अदालत एक सीधा निष्कर्ष निकाला है कि 'कोई भी गतिविधि, जिसमें कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या अव्यवस्था पैदा करने की इस हद तक प्रवृत्ति है कि पूरे शहर को घुटनों पर ला दिया जाए और पूरी सरकारी मशीनरी को ठप कर दिया जाए तो ऐसी गतिविधि स्पष्ट रूप से यूएपीए की धारा 2 (o) के अनुसार एक गैरकानूनी गतिविधि होगी।' (आपूर्ति पर जोर दिया गया)
यहां कोर्ट के दृष्टिकोण में दो प्रमुख समस्याएं हैं।
सबसे पहले, अदालत ने देशद्रोह और आतंक विरोधी कानूनों के न्यायशास्त्र में बाद में हुए विकास को नजरअंदाज किया है, जिनके तहत भाषण और विचार की अभिव्यक्ति को 'प्रत्यक्ष कृत्यों' और 'आसन्न हिंसा' की स्थितियों में आपराधिक माना गया है। (बलवंत सिंह, अरूप भुयन मामले) निर्णय की इन पंक्तियों से समझा सकता है कि बिना किसी हिंसा, या राज्य के खिलाफ हिंसा उकसाने के, मात्र भाषण या बयान, राज्य के खिलाफ अपराध नहीं होगा।
बलवंत सिंह मामले में दिए गए फैसले में प्रतिक्रिया की जांच के लिए अतिरिक्त परीक्षण का निर्धारण किया गया है कि कथित कृत्य से जनता को उकसाया गया है।
कोर्ट ने मौजूदा मामले में आतंकवाद विरोधी कानून का मनमाने ढंग से इस्तेमाल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से विकसित हुए इन सुरक्षा मापदंडों की अनदेखी की है। साथ ही, न्यायालय ने इस मामले में 'आसन्नता का परीक्षण' करने की जहमत भी नहीं उठाई है।
अभियोजन पक्ष के मामले में यह दलील नहीं दिखती हकि अभियुक्त के कथित चक्का जाम से हिंसा हुई हो। यह आदेश अभियुक्तों के कृत्यों और 23 फरवरी को उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के बीच प्रथम दृष्टया कोई भी गठजोड़ नहीं दिखाता।
दूसरे, अदालत ने 'कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी' को 'विरोध' के समकक्ष रखा है। यूएपीए में यह परिभाषित नहीं किया गया है कि 'विरोध' का क्या अर्थ है। लेकिन जब से कोर्ट ने केदारनाथ मामले में लागू किए गए राजद्रोह के परीक्षण का उपयोग किया है तो धारा 124 A IPC के तहत दी गई 'विरोध' की परिभाषा का उल्लेख करना उचित नहीं होना चाहिए।
धारा 124A आईपीसी के स्पष्टीकरण 1 के अनुसार 'विरोध' का अर्थ 'निष्ठाहीनता और शत्रुता की भावनाओं' से है। कानून और व्यवस्था की अव्यवस्था का हर मामला 'राज्य के खिलाफ अप्रभाव' नहीं बनेगा।
इसलिए, बिना यह पाए कि 'निष्ठाहीनता या शत्रुता' की भावनाएं थीं, अदालत कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी के कृत्यों को 'विरोध' के रूप में चिन्हित नहीं कर सकती है।
दुर्भाग्य से, अदालत ने यह कहकर कि सार्वजनिक व्यवस्था में गड़बड़ी का कोई कार्य जिससे शहर अपने घुटनों पर आ जाए और सरकारी मशीनरी ठप हो जाए , ''जाहिर है' एक गैरकानूनी गतिविधि है, यही किया है। इस प्रकार, निहायत ही कैजुअल तरीके से मामले में यूएपीए के कठोर प्रावधानों को शामिल किया गया है।
इसके बाद, अदालत का कहना है कि आरोपी को उसके सह-षड्यंत्रकारियों के कृत्यों और शब्दों के लिए उत्तरदायी बनाया जा सकता है। लेकिन उसके लिए आपराधिक साजिश का सबूत होना चाहिए। यह वह जगह है, जहां फैसले में घुमावदार तर्क देखा जा सकता है।
न्यायालय की, निष्कर्ष के समर्थन में किसी भी सामग्री की चर्चा किए बिना, आधार यह होता है एक सजिश की गई है। अदालत जिस एकमात्र साजिश को पाती है, वह चक्का जाम की थी, और फैसले में कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि इसे दिल्ली के दंगों के पीछे की साजिश से कैसे जोड़ा जा सकता है।
अदालत संभवतः फैसले की कमियों से ध्यान भटकाने के लिए, कोरी बयानबाजी का भी उपयोग करती है। अदालत कहती है, 'जब आप अंगारे के साथ खेलने के चुनाव करते हैं तो आप हवा को दोष नहीं दे सकते हैं कि वह चिंगारी थोड़ी दूर तक उड़ा ले गई और आग फैल गई'।
यह सच है कि, प्रथम दृष्टया मामला होने पर यूएपीए की धारा 43D(5) के तहत जमानत पर रोक है। हालांकि यह रोक केवल यूएपीए के अध्याय IV और VI के तहत दिए गए अपराधों पर लागू होती है, जिनमें क्रमशः 'आतंकवादी गतिविधियां' और 'आतंकवादी संगठनों की सदस्यता' से संबंधित अपराध शामिल है। न्यायालय की दलील को सही भी मान लिया जाए तो 'गैरकानूनी गतिविधि' की एक मात्र घटना यूएपीए के अनुसार 'आतंकवादी गतिविधि' नहीं मानी जाएगी।
कोर्ट का आदेश इस बात पर बिल्कुल चुप है कि ज़रगर के खिलाफ लगे आरोपों को यूएपीए के अध्याय IV और VI के तहत कैसे माना जा सकता है, जिनके आधार पर धारा 43D(5) के तहत जमानत पर रोक लगाई जाती है।
न्यायालय धारा 43D(5) का हवाला देकर अपने जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है। सेक्शन कहता है कि यह 'विश्वास' करने के लिए 'उचित आधार' होना चाहिए किऐसे व्यक्ति के खिलाफ आरोप 'प्रथम दृष्टया सत्य' हैं। इसलिए, न्यायालय को न्यायिक रूप से उन 'कारणों' को स्थापित करना होगा, जिससे यह प्रथम दृष्टया मामला बनता है।
वास्तव में, यह अपेक्षा की जाती है कि न्यायालय यूएपीए के कड़े प्रावधानों के मद्देनजर, प्रथम दृष्टया मामले के मापदंडों का परीक्षण अधिक सावधानी और एहितियात से करे। इस प्रावधान के संदर्भ में हाल ही में दिए एक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 'यह अदालत का कर्तव्य है कि वह संतुष्ट रहे कि यह मानने के उचित आधार हैं कि अभियुक्त के खिलाफ आरोप सच्चे हैं या अन्यथा है।' (NIA बनाम ज़ाहिद अहमद) शाह वटाली)।
इसके विपरीत, इस मामले में अदालत ने एक बेपरवाही का प्रदर्शन किया है। मौजूदा मामला यूएपीए के तहत तय प्रथम दृष्टया मामले के पैमाने को पास विफल रहता है, यहां तक कि वटाली मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा चर्चा की गई 'व्यापक संभावनाओं' के पैमाने को लागू करने में भी विफल रहता है।
न्यायालय का कहना था कि वह इस स्तर पर सामग्रियों की पवित्रता के लिए चिंतित नहीं है, और उन पर केवल यह तय करने के लिए विचार कर रहा है कि मौजूदा मामला प्रथम दृष्टया मामला है।
न्यायालय के स्वयं के शब्दों में, अभियोजन पक्ष की सामग्री से पता चलता है कि प्रथम दृष्टया मामला चक्काजाम की साजिश थी, जो कि आईपीसी के तहत जमानती अपराध है। मामले को आदर्श रूप से, यहीं समाप्त होना चाहिए था। लेकिन कोर्ट ने इस प्रकार के एक प्रथम दृष्टया मामले को यूएपीए के तहत 'गैरकानूनी गतिविधि' तक खींच दिया ,'कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी', की तुलना 'विरोध' से की और आपराधिक साजिश के आरोप को स्थापित किए बिना, अदृश्य सह-साजिशकर्ताओं के कृत्यों की जिम्मेदारी आवेदक पर डाल दी।
इस उल्टेपुल्टे रवैये का नतीजा यह रहा कि, महामारी के बीच, एक भीड़भाड़ भरी जेल में एक गर्भवती छात्रा की हिरासत और लंबी हो गई, व्यक्तिगत स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी का क्रूर मजाक बना दिया।