औचित्यहीन हैं लॉकडाउन में पुलिस की ज्यादतियां

LiveLaw News Network

27 March 2020 2:16 PM GMT

  • औचित्यहीन हैं लॉकडाउन में पुलिस की ज्यादतियां

    राध‌िका रॉय

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोनोवायरस (COVID-19) का प्रसार रोकने के लिए 24 मार्च को राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन की घोषणा की। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने अनुशंसा की थी कि कोरोनावायरस का प्रभाव रोकने के लिए 25 मार्च 2020 से राष्ट्रीय स्तर पर 21 दिनों की अव‌धि के लिए सख्त कर्फ्यू लागू किया जाए, जिसके बाद लॉकडाउन की घोषणा की गई।

    प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद गृह मंत्रालय ने लॉक डाउन की अवधि में आवागमन को नियंत्र‌ित करने के लिए उपायों के दिशा-निर्देश जारी किए, जिनमें स्पष्ट रूप से 'आवश्यक सेवाओं' को छूट दी गई ‌थी। इन सेवाओं में "दुकानें, सार्वजनिक वितरण की राशन की दुकानें, जिसमें भोजन, किराने का सामान, फल ​​और सब्जियां, डेयरी और दूध की दुकानें, मांस और मछली और पशुओं के चारे की दुकान शामिल थी।

    गृहमंत्रालय के दिशा-निर्देशों में ई-कॉमर्स के जर‌िए आवश्यक वस्तुओं की डिलीवरी भी शामिल की गई थी। सरकार ने एनफोर्समेंट अथॉरिटीज़ को लोगों की आवाजाही रोकने का निर्देश दिया था, न कि लोगों को आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी करने से रोकने को निर्देश दिया था।

    हालांकि, प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद से सोशल मीडिया पर कई ऐसे वीडियो सामने आ चुके हैं, जिनमें लॉकडाउन का उल्लंघन करने पर पुलिस लोगों के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार कर रही है। मजदूरों को सड़क पर रेंगने को कहा जा रहा है, उन पर लाठीचार्ज किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल में एक मामले में, पुलिस ने दूध लेने के लिए घर से बाहर निकले एक आदमी को इतना मारा कि उसकी मौत हो गई।

    लॉकडाउन के आदेश को लागू करने के लिए जरूरी कानूनी प्रावधान

    दिल्ली पुलिस ने एक आंकड़ा दिया है, जिसके मुताबिक, देश की राजधानी में राज्य सरकार के आदेश का उल्‍लंघन करने के कारण पहले दिन भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत 180 से अधिक मामले दर्ज किए गए ‌थे, 5000 से अधिक लोगों को दिल्ली पुलिस अधिनियम (डीपीए) की धारा 65 के तहत हिरासत में लिया गया था, 956 कारों को डीपीए की धारा 66 के तहत जब्त किया गया था।

    गृह मंत्रालय के दिशानिर्देशों में उन वैधानिक प्रावधानों का उल्लेख किया गया था, जिन्हें लॉकडाउन की अवधि में में लागू किया जा सकता है:

    "रोकथाम के उपायों का उल्‍लंघन करने पर किसी भी व्यक्ति के खिलाफ आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 51 से 60 के प्रावधानों के अनुसार कार्रवाई होगी, साथ ही भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत कानूनी कार्रवाई की जाएगी।"

    आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 (डीपीए) के प्रावधानों के अध्ययन से पता चलता है कि, इन प्रावधानों का उल्लंघन करने पर जुर्माने के साथ 2 साल की कैद की अधिकतम सजा होती है। आईपीसी की धारा 188 के तहत 6 महीने की अवधि के लिए साधारण कारावास की अधिकतम सजा या एक हजार रुपए जुर्माना या दोनों निर्धारित है।1973 की दंड प्रक्रिया संहिता की पहली अनुसूची के साथ पढ़ें, आईपीसी की धारा 188 के तहत अपराध संज्ञेय और जमानती हैं। साथ ही किसी भी भी मजिस्ट्रेट के समक्ष ट्रायल किया जा सकता है।

    धारा 188 की व्याख्या, उल्‍लंघन के अपराध का दायित्व अपराधी पर डालती है, यदि उसे लोक सेवक की ओर से जारी उस आदेश की जानकारी है, जिसकी अवज्ञा उसने की है। मौजूदा मामले में, चूंकि लॉकडाउन के आदेश का प्रसार व्यापक रूप से किया गया है, इसलिए उल्‍लंघनकर्ताओं का यह तर्क की उन्हें जानकारी नहीं थी,‌ विश्वास योग्य नहीं होगा।

    हालांकि धारा 188 का उल्लंघन पुलिस अधिकारियों को ये अधिकार नहीं देता कि किसी व्यक्ति को शारीरिक नुकसान पहुंचाएं। पुलिस अधिक से अध‌िक, लॉकडाउन के आदेश उल्‍लंघन करने पर व्यक्ति को हिरासत में ले सकती हैं। उस व्यक्ति के पास जमानत पर रिहा होने का अधिकार भी है, क्योंकि यह अपराध जमानती है।

    यहां यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि कई अन्य अपराधों के विपरीत, इन मामलों में अपराधियों के ‌खिलाफ क्रिमिनल कोर्ट फाइनल रिपोर्ट के आधार पर आगे नहीं बढ़ सकती है। सेक्शन 195 सीआरपीसी के तहत, क्रिमिनल कोर्ट को अपराध का संज्ञान लेने के लिए अधिकृत लोक सेवक की ओर से एक लिखित शिकायत दिया जाना आवश्यक होता है।

    जबकि सोशल मीडिया पर जो वीडियो शेयर हो रहे हैं, उनमें दिख रहा है कि पुलिस आम लोगों के खिलाफ हिंसा कर रही है, जिसने देश भर में पुलिस के हाथों हो रहे मानवाधिकारों के हनन के मुद्दे को सामने ला दिया है।

    ऐसे वीडियो समाने आए हैं, जिनमें लोगों पर रोजमर्रा की आवश्यक चीजों खरीदने के लिए बाहर आने पर लाठीचार्ज किया गया है। प्रवासी श्रमिकों को, जिनके पास ट्रेन और बसें न चलने के कारण पैदल घर जाने के अलावा कोई उपाय नहीं है, सड़कों पर उठक-बैठक करने और रेंगने जैसे अपमानजनक दंड दिए गए हैं। सब्जी विक्रेताओं को पीटा गया है, उनकी रेहड़ियां पलट दी गई हैं। डॉक्टरों और पत्रकारों को भी नहीं बख्शा गया है, जबकि गृहमंत्रालय के आदेशों के अनुसार आवश्यक सेवाओं को लॉकडाउन से बाहर रखा गया है।

    हिंसा का व्यापक और अनुचित इस्तेमाल

    25 मार्च, 2020 को COVID-19 के संबंध में एक सुओ मोटो रिट याचिका पर दिए गए फैसले में केरल हाईकोर्ट ने कहा था, "उन मामलों को छोड़ जहां गिरफ्तारी बहुत जरूरी है, किसी अन्य अपराधी को गिरफ्तार कर, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसे दी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी को बाधित नहीं किया जाना चाहिए।"

    हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को जघन्य/गंभीर अपराधों के मामलों में उचित निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी, हालांकि इस बात पर जोर दिया कि गिरफ्तार को मानदंड न बनाया जाए।

    COVID-19 के प्रसार को रोकने के लिए कई कठोर उपाय किए गए हैं, इनकी आवश्यकता भी है। हालांकि संकट की गंभीरता के बावजूद, क्रूरता को उचित नहीं ठहराया जा सकता है। अधिकांश मामलों में, कथित उल्लंघनकर्ताओं ने कोई विरोध नहीं किया है, जबकि आवश्यक सामान खरीदने के लिए घर से बाहर निकलना बखूबी उनका अधिकार है। पुलिस की मंशा जैसी भी हो, लेकिन उन्हें अपमानित करना और पिटाई करना न केवल निंदनीय है, बल्कि अनुचित भी है।

    यह स्पष्ट है आईपीसी की धारा 188 पुलिस अधिकारियों को क्रूरता करने का अधिकार नहीं देती है, इसलिए, यह समझा जा सकता है कि पुलिस की कार्रवाई न केवल अनुचित और बल्‍कि हद से ज्यादा है। कानून और व्यवस्था सुनिश्च‌ित करना पुलिस का कर्तव्य है; लेकिन कानूनसम्‍मत मापदंडों का उल्‍लंघन करना बिलकुल ही गैरकानूनी है।

    वायरस के संभावित पीड़ितों के संभावित मानवीय अधिकार के उल्लंघन के आधार पर इसे सही ठहराना भी विवादास्पद है क्योंकि समाने आए कई वीडियो में यह स्पष्ट रूप से दिखता है कि जिन हालात में सोशल-डिस्टेंसिंग की जरूरत थी, वहां पुलिस हस्तक्षेप हालात और बदतर कर दिए।

    फ्रांसिस कोरली मुलिंग बनाम दी एडमिनेस्ट्रेटर, यूनियन टेरिटरी दिल्ली व अन्य (1981 एआईआर 746) के मामले में यह निर्धारित किया गया था कि एक कैदी या हिरासत में लिए गए व्यक्ति को भी "सभी मौलिक अधिकार और वह सभी अधिकार उपलब्‍ध हैं, जो कि एक स्वतंत्र व्यक्ति को उपलब्ध हैं।" जीवन के अधिकार में व्यक्तिगत गरिमा का अधिकार भी शामिल है।

    मौजूदा जमीनी हालात यह दिखाते हैं कि कैसे बिना किसी वैधानिक आधार के आम आदमी/महिलाओं की नागरिक स्वतंत्रता को बाधित किया जा रहा है, और संविधान के जर‌िए दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है।

    कमजोरों पर किए जा रहे बल प्रयोग

    1980 के दशक में, संयुक्त राज्य अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने दो फैसले दिए थे - टेनेसी बनाम गार्नर (1985) और ग्राहम बनाम कॉनर [(490) यूएस 386 (1989)], जिसने यह तय करने लिए कि कब पुलिस का घातक बल का प्रयोग उचित है, एक रूपरेखा दी थी, जिसके अनुसार बल का इस्तेमाल दो परिस्थितियों में किया जा सकता है: 1. आत्मरक्षा के लिए, और 2. किसी संदिग्ध को भागने से रोकने और दूसरों के लिए एक खतरा बनने से रोकने के लिए।

    टेनेसी मामले में, टेनेसी कानून को असंवैधानिक घोषित किया गया, क्योंकि यह घातक बल के अधिकृत उपयोग की अनुमति देता था। ग्राहम मामले में, यह माना गया कि अत्यधिक बल प्रयोग के दावों का विश्लेषण संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के चौथे संशोधन के तहत किया जाना चाहिए।

    पुलिस हिंसा के वीडियो को देखने से यह साफ है कि अधिकांश पीड़ितों ने न तो पुलिस के खिलाफ जवाबी कार्रवाई की और न ही भागने का प्रयास किया। यह भी स्पष्ट है कि अधिकांश पीड़ित समाज के कमजोर वर्गों से हैं।

    निष्कर्ष

    जरूरी समान खरीदने के लिए घर से बाहर निकले लोगों के खिलाफ की जा रही मनमानी हिंसा ने, कोरोनावायरस के मामलों की संख्या में बढ़ोतरी से पैदा हो रहे भय को और बढ़ा दिया है।

    ऐसे समय में COVID-19 के प्रसार को रोकने और जनता के भय को शांत करने के लिए जब केंद्र और राज्य सरकार को साथ में काम करना चाहिए, पुलिस के व्यवहार ने एक ऐसी दहशत पैदा कर दी है, जिससे लोग सामानों की जमाखोरी कर सकते हैं या खरीदार के गलत तरीकों का सहारा ले सकते हैं।

    हालांकि कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर रहा है कि ऐसे समय जब पुलिस वालों को खुद कोरोनावायरस से प्रभावित होने का जोखिम हे, उन पर अपने कर्तव्यों के निर्वहन का दबाव है, फिर भी उनकी मनमानी और अत्यधिक हिंसा को उचित नहीं ठहराया जा सकता है।

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