नेताओं और जजों के नाम
LiveLaw News Network
31 March 2020 4:40 PM IST
सीनियर एडवोकेट अंजना प्रकाश
मैं एक साधारण वकील हूं। 65 वर्ष के आसपास मेरी उम्र है और ऐसी कोई पेशेवर आकांक्षा भी नहीं है। मैं आसानी कोरोनोवायरस का शिकार हो सकती हूं। मैं न तो जीने की उम्मीद रखती हूं और न ही मरने की इच्छा है, हालांकि अगर मुझे जीना पड़ा तो मैं निश्चित रूप से और अधिक सार्थक जीवन जीने की कोशिश करूंगी और अगर मुझे मरना पड़ा तो जैसी की परंपरा है, मैं भी आखिरी इच्छा जाहिर करना चाहूंगी। और मेरी आखिरी इच्छा अपने देश के माननीय जजों और नेताओं को संबोधित करना है।
मुझे लगता है कि कि बातचीत के साधनों की तकनीकी प्रगति के बाद भी, बातचीत की कला में बेहद कमजोर हुई है। हालांकि, यह खुशी की बात है कि बातचीत की इच्छा अब भी खत्म नहीं हुई है। इसलिए मेरी बातचीत करने की इच्छा है और इस उम्मीद के साथ कि सम्मानित पाठकों ने मेरी आखिरी इच्छा स्वीकार कर ली है, और ध्यान से सुन रहे हैं।
अन्य लोगों की तरह ही नेताओं और जजों को सबसे पहले अपने रोजमर्रा के जीवन का ईमानदारी से निरीक्षण करना सीखना चाहिए, और क्या वह मानदंड कम तो नहीं कर रहे हैं। और क्या उनका कृत्य आम आदमी की आकांक्षाओं पर खरा उतरता है, और क्या उनका कार्य संवैधानिक अधिदेश के अंतर्गत हैं। हालांकि, यह कार्रवाई आलोचनात्मक और सूक्ष्मदर्शी होनी चाहिए।
सदियों पुरानी सहज-बुद्धि को याद रखना अच्छा होगा कि, 'दूसरों के साथ वही करें, जो आप आप खुद के साथ किए जाने की इच्छा रखते हैं।', और संविधान को बार-बार पढ़ें। यह एक बड़ी मदद होगी।
इन दो वर्गों के लिए मेरी अगली सलाह यह है कि वो सुनने की कला विकसित करें और संकेतों को भी सुनने की कोशिश करें। एक जर्मन मनोवैज्ञानिक एरिक फ्रॉम की रचना आपकी मदद कर सकती हैं, जो सौभाग्य से हिटलर की बुरी नजर से बच गया था। अपनी रचना आर्ट ऑफ लिसनिंग में उन्होंनि निःस्वार्थ समझ की कला में महारत हासिल करने के लिए 6 बिंदु निर्धारित किए हैं-
1. इस कला को सीखने का मूल नियम श्रोता की पूर्ण एकाग्रता है।
2. उसके मन में ऐसा कुछ भी न हो जो महत्वपूर्ण है, वह चिंता और लालच से मुक्त हो।
3. उसके पास स्वतंत्र क्रियाशील कल्पना हो, जिसे शब्दों में व्यक्त किया जाना आसान हो।
4. किसी अन्य व्यक्ति के प्रति उसमें समानुभूति हो और दूसरे के अनुभव को भी वह ऐसे महसूस करे, जैसे उसके खुद को अनुभव हों।
5. ऐसी समानुभूति प्रेम का एक महत्वपूर्ण पहलू है। दूसरे अर्थों में, कामुक अर्थों में प्यार नहीं करना बल्कि उस तक पहुंचने का बोध ओर खुद को खोने के डर पर काबू पाने के अर्थ में।
6. समझना और प्रेम करना, एक दूसरे अलग नहीं हो सकते हैं। यदि वे अलग हो जाते हैं तो उसे एक बौद्धिक प्रक्रिया समझिए और समझिए कि आवश्यक समझ के दरवाजा अब भी बंद हैं।
जैसा कि हम जानते हैं कि जिस मुल्क में हम रहते हैं, हममें से कई दंगों, आगजनी, आसन्न मृत्यु के भय, बाढ़, विस्थापनों से जीवित बचे हुए हैं, हममें से कइ असफलता, अस्वीकृति और त्रासदियों के लंबे और गहन दौर से गुजर चुके होंगे हैं। जीवन के बदलावकारी अनुभवों ने हमारे देखने के तरीकों को बदल दिया होगा। हमें इस अहसास से भर दिया होगा, बौद्धिक अर्थ में नहीं, कि मानव जीवन भंगुर और बहुमुल्य है।
और शायद यह भी जान लिया था कि जीवन एक संज्ञा नहीं है, बल्कि एक क्रिया है, एक विशेषण है और यह केवल आपसे संबंधित ही नहीं है। जीवन का सही अर्थ अपनी निरंतर प्रक्रिया में है और व्हाल्ट व्हिटमैन के शब्दों में, हमारी धूल, हमसे सालों बाद पैदा हुए लोगों के जूतों के नीचे पाई जाएगी।
इस प्रकार, हम गुजर चुकी पीढ़ियों में मौजूद हैं, और हममें भविष्य की पीढ़ियों भी मौजूद हैं।
जैसी दुनिया मुझे मिली थी, मैं उससे बेहतर दुनिया छोड़ कर जाना चाहती हूं, और मैं इस सोच के साथ संतुष्ट हूं कि भले ही मैं अपने उद्देश्य में विफल रही हूं लेकिन कम से कम मैंने कोशिश की है। और वह विफलता उस अपार सराहना की तुलना में कुछ भी नहीं जो मुझे मेरे 8 साल के बुद्धिमान और संवेदनशील पोते ने दी है।
अब सवाल यह है कि मैंने केवल नेताओं और जजों को ही क्यों चुना? पहला तर्क यह कि वे गेम-चेंजर हैं। नेताओं के पास जनादेश होता है और वे और राष्ट्र की दिशा का निर्धारण करते हैं,
जबकि जजों के पास लोगों का भरोसा होता है, और जब आम आदमी निराश होता है तो वह उन तक आता है। इन अर्थों में, नेताओं और जजों का पहला काम जख्मों को भरना है। नेताओं को राजनीति को ठीक करना चाहिए और न्यायाधीशों को अन्याय के कारण लगने वाली चोटों को ठीक करना चाहिए।
यदि इन दोनों वर्गों के लोग अपने नैतिक दायित्व से विमुख हो जाएंगे तो केवल संघर्ष और हिंसा होगी और ऐसा दुख होगा, जो किसी भी दवा ठीक नहीं होगा और हम इस प्रलय से बच गए तो भविष्य के लिए कोई प्लान बी नहीं होगा।
यह व्यक्तिगत विचार है।