म्यांमार के भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून और नरसंहार से सबक
LiveLaw News Network
26 Jan 2020 12:29 PM IST
मनु सेबेस्टियन
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस ने रोहिंग्या नरसंहार के मामले में अफ्रीकी देश द गाम्बिया द्वारा दायर एक अपील पर म्यांमार के खिलाफ एक महत्वपूर्ण फैसला दिया है।
यह फैसला म्यांमार के आधिकारिक रुख के लिए तगड़ा झटका है, जिसने रोहिंग्या मुसलमानों की पहचान और अस्तित्व को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष अदालत ने माना है कि रोहिंग्या जेनोसाइट कन्वेंशन की परिभाषा के तहत "संरक्षित समूह" हैं। कोर्ट ने म्यांमार को रोहिंग्याओं के संरक्षण का उपाय करने के लिए अस्थायी आदेश जारी किया है।
कोर्ट का आदेश उन प्रथम दृष्टया निष्कर्षों पर आधारित है, जिनमें कहा गया कि रोहिंग्याओं को "व्यवस्थित उत्पीड़न और अत्याचार" का शिकार बनाया गया, जिनका इरादा 'नरसंहार' था।
ICJ ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा गठित इंटरनेशनल फैक्ट फाइंडिंग मिशन की रपटों के हवाले से मामले में प्रारंभिक निष्कर्ष निकाले थे।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव से उद्धृत फैसले, जिसमें म्यांमार के नागरिकता कानूनों को रोहिंग्याओं के अलगाव और अततः उत्पीड़न को वैध ठहराया गया था। दिसंबर 2019 में, महासभा ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा था:
"इस तथ्य के बावजूद कि रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार की स्वतंत्रता से पहले पीढ़ियों से म्यांमार में रहते थे, उन्हें 1982 के नागरिकता कानून अधिनियमन द्वारा स्टेटलेस बना दिया गया और अंततः 2015 में चुनावी प्रक्रिया से उनसे वोट का अधिकार छीन लिया गया।"
महासभा ने उल्लेख किया कि "2016 और 2017 में रोहिंग्याओं के खिलाफ की गई चरम हिंसा योजनाबद्घ उत्पीड़न और अत्याचार का नतीजा थी, जिनमें उनकी कानूनी स्थिति, पहचान और नागरिकता को नकार दिया गया, और उनके खिलाफ जातीय, नस्लीय या धार्मिक आधार पर नफरत फैलाई गई।"
म्यांमार के भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून
1982 में म्यांमार ने सैन्य शासन के अधीन एक नागरिकता कानून पारित किया, जो कि निहायत ही भेदभावपूर्ण था। उस कानून के मुताबिक, पूर्ण नागरिकता के अधिकार केवल कुछ जातीय समूहों को दिए गए, जिनके बारे में माना जाता था कि वे 1823 में, पहले एंग्लो-बर्मा युद्ध से पहले, देश की सीमाओं के भीतर रह रहे थे।
'राष्ट्रीय जातीय समूहों' से संबंधित पूर्ण नागरिकों को राष्ट्रीय पंजीकरण कार्ड (NRC) नामक एक कार्ड जारी किया गया था।
दूसरे दर्जे के नागरिक भी थे, जिन्हें एसोसिएटेड सिटीजन और नेचुरलाइज़्ड सिटीजन कहा जाता था, जिन्हें कुछ शर्तों के आधार पर क्रमशः 1948 और 1982 के बाद नागरिकता प्रदान की गई।
किसी भी जातीय समूह के राष्ट्रीय होने या न होने का फैसला करने का विवेकाधिकार राज्य परिषद का है। पिछले कुछ सालों में उन्होंने लगभग 135 समूहों को ऐसे जातीय समूहों के रूप में अधिसूचित किया, जिनके सदस्य स्वत: पूर्ण नागरिकता के अधिकार के हकदार हैं।
रोहिंग्याओं को कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त जातीय समूहों की सूची में शामिल नहीं किया गया है। म्यांमार का रुख यह है कि रोहिंग्या बांग्लादेश से आए घुसपैठिये हैं।
व्यवस्थागत शत्रुता के कारण, रोहिंग्याओं के लिए नागरिकता के वैकल्पिक रास्ते, एसोसिएट नागरिकता या प्राकृतिककरण बहुत कठिन हैं।
उन्हें 'व्हाइट कार्ड' जारी किए गए हैं, जो अस्थायी निवास के परमिट हैं, हालांकि इन्हें प्राप्त करने के लिए, रोहिंग्याओं को बांग्लादेशी प्रवासी के रूप में पंजीकरण के लिए मजबूर किया गया, न कि रोहिंग्या के रूप में। 2015 में, बौद्ध राष्ट्रवादी समूहों के दबाव के बाद इन कार्डों को भी रद्द कर दिया गया और उनके मतदान के अधिकार छीन लिए गए।
राज्य की सहमति से किया गया अलगावः नरसंहार के पूर्वसंकेत
जो विशेषज्ञ दुनिया भर में नरसंहार के रुझानों का अध्ययन करते रहे हैं, वे इस बात पर एकमत हैं कि नागरिकों के साथ राज्य की सहमति से किया गया भेदभाव, क्रूरतम नरसंहार का पूर्वसंकेत होता है।
जेनोसाइड वॉच के अध्यक्ष डॉ ग्रेगोरी स्टैंटन का मानना है कि भेदभावपूर्ण कानूनों के परिणामस्वरूप लक्षित समूहों का 'वर्गीकरण' किया जाता है, जो नरसंहार के आठ विभिन्न चरणों में पहला है।
इस तरह के भेदभावपूर्ण कानून एक समूह को 'दूसरे दर्जे का' बताए जाने को वैधता देते हैं, अंततः उनके अमानवीयकरण की ओर ले जाते हैं, और यह मुख्यधारा के समाज को उस वर्ग के खिलाफ होने वाली हिंसा के प्रति उदासीन और निर्लिप्त बना देता है।
इस घटना को बर्मा कैम्पेन यूके के निदेशक मार्क फ़ार्मनर ने समझाया है, जिन्होंने देखा कि भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून ने रोहिंग्याओं के व्यवस्थित उत्पीड़न को कानूनी आधार दिया।
"म्यांमार का 1982 का नागरिकता कानून रोहिंग्या के अधिकारों को छीनने का सिर्फ एक उपकरण नहीं है, यह उन नींव के पत्थरों में से एक है जो रोहिंग्या के खिलाफ पूर्वाग्रह और हिंसा को मजबूत करते हैं। इसने सेना द्वारा किए गए नरसंहार में योगदान दिया है। नागरिकता कानून ने म्यांमार के लोगों के मन में रोहिंग्याओं के खिलाफ जमा पूर्वाग्रह को सही ठहराने में मदद की। यहां तक कि रोहिंग्याओं के खिलाफ हुए भयानक मानव अधिकारों के उल्लंघन को भी सही ठहराया गया।
भारतीय संदर्भ
रोहिंग्या मुसलमानों के उत्पीड़न का संज्ञान लेते हुए इंटरनेशनल कोर्ट का आदेश ऐसे समय आया है, जब भारत में नागरिकता संशोधन कानून 2019 के दायरे से उन्हें बाहर रखने पर चर्चा चल रही है।
सीएए के दायरे से मानावाधिकार पीड़ित समूहों का चुनिंदा विलोपन कानून के उदार उद्देश्यों का संदिग्ध बनाता है, और उन तर्कों को वजन देता है कि ये कानून मनमाना और भेदभावपूर्ण है।
इसके अलावा, म्यांमार के भेदभावपूर्ण नागरिकता कानूनों पर आईसीजे की टिप्पणियां भारत में प्रस्तावित राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और नेशनल रजिस्टर ऑफ सीटिजंस के बारे में प्रकट की जा रही चिंताओं के संदर्भ में प्रासंगिक हैं।
नागरिकता नियम 2003, जिसने एनपीआर और एनआरसी के लिए कानूनी आधार तैयार किया है, एनआरसी तैयार करते समय स्थानीय स्तर के अधिकारियों को एनपीआर से 'संदिग्ध नागरिकों' को चिह्नित करने का अधिकार देता है।
'चिन्हित' करने की इस प्रक्रिया के भयावह परिणामों का अनुमान कठिन नहीं हैं। नियम भी स्थानीय अधिकारियों को दिए गए इस अधिकार के प्रयोग के बारे में कोई दिशानिर्देश तय नहीं करते हैं। ये नियम एनआरसी में व्यक्तियों को शामिल करने के खिलाफ तीसरे पक्ष को आपत्तियां देने का अधिकार देते हैं।
ये कार्यकारी नियम, जो उच्च स्तर की व्यक्तिनिष्ठता से परिपूर्ण हैं, यदि पूर्वाग्रहों और सांप्रदायिक एजेंडों से ग्रसित व्यक्तियों द्वारा लागू किए जाते हैं तो आपदा का नुस्खा हो सकते हैं।
एनआरसी अधिकारियों की विवेकाधीन शक्तियों के इस्तेमाल के परिणाम कठोर हो सकते हैं, किसी व्यक्ति को अवैध ठहराया जा सकता है।
यह बहुसंख्यक भारतीयों के लिए, जिनकी समाजिक हैसियत कमजोर है, कागजी कार्रवाई तक उनकी पहुंच नहीं है, विनाशकारी हो सकता है।
इस बात का ध्यान रखना होगा कि इस कार्यवाई को बहुमतवादी वर्जनोन्मुखी भावनाओं की पृष्ठभूमि में करने की कोशिश की जाती है, जो कि देश के केवल कुछ वर्गों को ही देश का नागरिक मानती है। एनपीआर-एनआरसी के बारे में बातचीत कथित अप्रवासियों की ओर लक्षित शत्रुतापूर्ण और अमानवीय शब्दावली में की जा रही है, जो चिंता का कारण है।
इसलिए, यह आशा की जाती है कि सरकार और उसके सलाहकार सीएए-एनपीआर-एनआरसी पर भविष्य के कार्रवाई के बारे में विचार-विमर्श करते हुए म्यांमार-रोहिंग्या प्रकरण से उचित सबक लेंगे।