दंड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 161 और 162 का विधिक और संवैधानिक विश्लेषण (भाग 1)

Lakshita Rajpurohit

24 Feb 2023 5:09 AM GMT

  • दंड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 161 और 162  का विधिक और संवैधानिक विश्लेषण (भाग 1)

    अदालत में विचारण शुरू होने से पहले कुछ ऐसी प्रक्रियाएं होती हैं जिनका पालन किया जाना अतिआवश्यक होता है, जिन्हें सामान्य भाषा में विचारण पूर्व प्रक्रिया या प्री-ट्रायल प्रक्रिया कहा जाता है। मामले के विचारण प्रारंभ होने से पूर्व दो चरण मुख्य होते है, पहला पुलिस द्वारा अन्वेषण(investigation) और दूसरा मजिस्ट्रेट द्वारा की जाने वाली मामले की जांच। इसमें सबसे महत्वपूर्ण पुलिस द्वारा अन्वेषण के दौरान अपराध से संबंधित साक्ष्यों का एकत्रण है। क्योंकि सामान्यतः अपराध गुप्त व गोपनीय तरीकों से किया जाता है यह आवश्यक नहीं कि अपराधी ऐसा सामान्य जनता के समक्ष अपने आशय को अंजाम दें। इसलिए पुलिस एजेंसी द्वारा मामले के संबंध में तथ्य, परिस्थितियों की जांच करना आवश्यक हो जाता है।

    सामान्यतः पुलिस अन्वेषण का अर्थ किसी अपराध, उसकी स्थिति, संबंधित स्थान या व्यक्ति—वस्तु इत्यादि से संबंधित तथ्यों की आधिकारिक जांच से है। लेकिन इसकी विधिक परिभाषा दंड प्रक्रिया संहिता,1973(सीआरपीसी) की धारा 2(h) के अंतर्गत वर्णित है। जिसके के अनुसार, “अन्वेषण के अंतर्गत वे सब कार्यवाही है जो इस संहिता में अधीन पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट से भिन्न किसी व्यक्ति द्वारा जो मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित प्राधिकृत किया गया है, साक्ष्य एकत्र के लिए की जाए।“

    इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि इस संहिता में पुलिस अधिकारी तथा मजिस्ट्रेट द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति को ही अन्वेषण करने की शक्ति है। इसके अलावा किसी प्राधिकारी द्वारा किया कोई कार्य संहिता के उपबंधो के अनुसार मान्य नहीं होगा। अन्वेषण की इस प्रक्रिया के अधीन अभियुक्त की गिरफ्तारी से लगा कर उसे न्यायालय के समक्ष पेश करने की सारी प्रक्रिया का वर्णन दंड सीआरपीसी के अंतर्गत किया गया है, जिसमें घटना से संबंधित जानकारी रखने वाले साक्षियों या व्यक्तियों के कथन का अभिलेखन भी एक अन्वेषण करने वाले अधिकारी द्वारा किए जाने वाला मुख्य कारण है। यह कथन अति महत्वपूर्ण होते है क्योंकि इन्ही के आधार पर न्यायालय साक्षियों की परीक्षा करता है और निर्णय के लिए अपनी राय बनाता है। इनके अभिलेखन संबंधित प्रावधान संहिता की धारा 161,162, और 163 में वर्णित है।

    धारा 161 सीआरपीसी के अनुसार,

    (1) कोई पुलिस अधिकारी, जो इस अध्याय के अधीन अन्वेषण कर रहा है या ऐसे अधिकारी की अपेक्षा पर कार्य करने वाला पुलिस अधिकारी, जो ऐसी पंक्ति से निम्नतर पंक्ति का नहीं है जिसे राज्य सरकार साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त विहित करे, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित समझे जाने वाले किसी व्यक्ति की मौखिक परीक्षा कर सकता है।

    (2) ऐसा व्यक्ति उन प्रश्नों के सिवाय, जिनके उत्तरों की प्रवृत्ति उसे आपराधिक आरोप या शास्ति या समपहरण की आशंका में डालने की है, ऐसे मामले से संबंधित उन सब प्रश्नों का सही-सही उत्तर देने के लिए आबद्ध होगा जो ऐसा अधिकारी उससे पूछता है।

    (3) पुलिस अधिकारी इस धारा के अधीन परीक्षा के दौरान उसके समक्ष किए गए किसी भी कथन को लेखबद्ध कर सकता है और यदि वह ऐसा करता है, तो वह प्रत्येक ऐसे व्यक्ति के कथन का पृथक् और सही अभिलेख बनाएगा, जिसका कथन वह अभिलिखित करता है।

    परंतु इस उपधारा के अधीन किया गया कथन श्रव्य-दृश्य इलेक्ट्रॉनिक साधनों द्वारा भी अभिलिखित किया जा सकेगा।

    परंतु यह और कि किसी ऐसी स्त्री का कथन, जिसके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 354, धारा 354क, धारा 354ख, धारा 354ग, धारा 354च, धारा 376, धारा 376क, धारा 376, धारा 376ग धारा 376घ, धारा 376ङ या धारा 509, के अधीन किसी अपराध के किए जाने या किए जाने का प्रयत्न किए जाने का अधिकथन किया गया है, किसी महिला पुलिस अधिकारी या किसी महिला अधिकारी द्वारा अभिलिखित किया जाएगा।“

    उपरोक्त धारा को पढ़ कर स्पष्ट होता है कि मामले के तथ्यों और परिस्तिथ्यों से परिचित व्यक्तियों की ही मौखिक या लिखित परीक्षा की जा सकेगी। ऐसे व्यक्ति की यह जिम्मेदारी होगी की वे अधिकारी द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों का सही सही उत्तर दें, अन्यथा ऐसा व्यक्ति धारा 179 भारत दंड संहिता (IPC) के अंतर्गत अभियोजित किया जा सकेगा परंतु किन्हीं ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए ऐसा व्यक्ति को बाध्य नहीं किया जा सकेगा जो उसे किसी अपराध में फसाने की प्रकृति रखते हो।

    इसके चलते धारा 161(2) के संबंध में नंदिनी सतपथी बनाम पी. एल. दानी,1978 AIR(1025) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वार तय किया गया कि धारा161(1) में वर्णित “किसी व्यक्ति” या “Any Person” में अभियुक्त भी शामिल है। इसलिए संविधान के अनुछेद 20(3) अनुसार अन्वेषण के क्रम में मौन रहने का पूरा अधिकार है। उसे अपने ही विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता और इसे अधिकारों के संरक्षण के नियम के अनुसार प्रयोग किया जा सकेगा। इसी बात को पूर्व में पकाला नारायण स्वामी बनाम एंपरर(1938) नामक प्रसिद्ध मामले में भी प्रिवी काउंसिल द्वारा पुष्ट किया गया था।

    मुख्य बात यह है कि, किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिए मौखिक बयानों को यदि अन्वेषण अधिकारी द्वारा रिकॉर्ड किया जाता है तब उसपर धारा 162 के नियम लागू हो जायेंगे, अन्यथा नहीं। क्योंकि धारा 161(3) इसे स्पष्ट करता है।

    जाहिरा हबीबुल्लाह शेख एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य,2006 के मामले में तय किया गया कि, धारा 161 के अंतर्गत लिया बयान उस भाषा में लिखा जाएगा जिस भाषा में ऐसा व्यक्ति या कोई साक्षी सहज महसूस करता है। ऐसे बयानों को पढ़ कर सुनाया जाना चाहिए तथा विशिष्ठ मामलों में बयानों की वीडियोग्राफी की जा सकती है। लेकिन इसे बयानों पर देने वाले व्यक्ति के हस्ताक्षर की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

    अन्य ध्यान देने वाली बात यह हैं की महिलाओं के साथ लैंगिक अपराधों के मामलों में धारा 161 के कथन हमेशा किसी पुलिस महिला अधिकारी द्वारा ही रिकॉर्ड किया जायेगा। [संहिता संशोधन अधिनियम,2013 द्वारा जोड़ा गया]।

    ध्यान देने योग्य बात यह है कि, धारा 161 का विस्तार धारा 162 है। इसके उपबंध मात्र लिखित कथनों के संदर्भ में लागू होते है। यह धारा 161(1) के स्वरूप मौखिक कथनों पर लागू नहीं होती है। इसका शीर्ष है “पुलिस के किए गए कथनों का हस्ताक्षर न किया जाना; कथनों का साक्ष्य में उपयोग” इसलिए कहना उचित होगा यह धारा 161(3) का ही एक विस्तृत रूप है।

    धारा 162 सीआरपीसी के अनुसार,

    1) किसी व्यक्ति द्वारा किसी पुलिस अधिकारी से इस अध्याय के अधीन अन्वेषण के दौरान किया गया कोई कथन, यदि लेखबद्ध किया जाता है तो कथन करने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित नहीं किया जाएगा, और न ऐसा कोई कथन या उसका कोई अभिलेख, चाहे वह पुलिस डायरी में हो या न हो, और न ऐसे कथन या अभिलेख का कोई भाग ऐसे किसी अपराध की, जो ऐसा कथन किए जाने के समय अन्वेषणाधीन था, किसी जांच या विचारण में, इसमें इसके पश्चात् यथाउपबंधित के सिवाय, किसी भी प्रयोजन के लिए उपयोग में लाया जाएगा:

    परंतु जब कोई ऐसा साक्षी, जिसका कथन उपर्युक्त रूप में लेखबद्ध कर लिया गया है, ऐसी जांच या विचारण में अभियोजन की ओर से बुलाया जाता है तब यदि उसके कथन का कोई भाग, सम्यक् रूप से साबित कर दिया गया है तो, अभियुक्त द्वारा और न्यायालय की अनुज्ञा से अभियोजन द्वारा उसका उपयोग ऐसे साक्षी का खंडन करने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 145 द्वारा उपबंधित रीति से किया जा सकता है और जब ऐसे कथन का कोई भाग इस प्रकार उपयोग में लाया जाता है तब उसका कोई भाग ऐसे साक्षी की पुनः परीक्षा में भी, किंतु उसकी प्रति परीक्षा में निर्दिष्ट किसी बात का स्पष्टीकरण करने के प्रयोजन से ही, उपयोग में लाया जा सकता है।

    (2) इस धारा की किसी बात के बारे में यह न समझा जाएगा कि वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 32 के खंड (1) के उपबंधों के अंदर आने वाले किसी कथन को लागू होती है या उस अधिनियम की धारा 27 के उपबंधों पर प्रभाव डालती है।

    स्पष्टीकरण- उप-धारा (1) में निर्दिष्ट कथन में किसी तथ्य या परिस्थिति को बताने में लोप विरोधाभास की राशि हो सकती है यदि वह महत्वपूर्ण प्रतीत होता है और अन्यथा उस संदर्भ के संबंध में प्रासंगिक है जिसमें ऐसी लोप होता है और क्या कोई लोप एक विशेष संदर्भ में एक विरोधाभास की मात्रा तथ्य का प्रश्न होगा।“

    उपरोक्त धारा के उपबंध प्रक्रिया विधि में साक्ष्य का नियम बताती है कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में पुलिस अधिकारी को दिए कथनों का सबूत के रूप प्रयोग किया जा सकेगा और कुछ परिस्थितियों में नहीं। इसके अनुसार अन्वेषण के दौरान लिखे किसी बयान पर न तो बयान देने वाले व्यक्ति द्वारा कोई हस्ताक्षर करवाया जायेगा और न ही उसे अपराध के विचारण के क्रम में साक्ष्य के रूप में प्रयोग किया जायेगा। इसके पीछे का उद्देश भारतीय विधिक तंत्र में पुलिस एजेंसी द्वारा अपनाई जाने वाली कार्यप्रणाली है। जैसा की धारा 161 अभियुक्त और साक्षियों दोनों पर लागू होती इसलिए पुलिस द्वारा दी किसी भ्रष्ट उत्प्रेरण या डर- दबवा के कारण दिए जाने वाले बयानों को न्यायालय के समक्ष विचारण में साक्ष्य के रूप में उपयोग नहीं लाना चाहिए। ऐसा किया जाना न्याय के सिद्धांतों का गला घोटना जैसा होगा और साथ ही में यह अनुच्छेद 20(3) का उलंघन भी है। इसलिए धारा 162(1) में इसका प्रबंध कर दिया गया है कि सिवाय इसके परंतु/proviso में बताई परिस्थितियों के अलावा ऐसे कथनों का कोई साक्षिक मूल्य नहीं होगा।

    उपरोक्त धारा के शीर्ष “पुलिस के लिए गए कथन” से प्रतीत होता है की यह उपबंध केवल किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष किए लिखित कथनों पर ही लागू होता है और उप धारा(1) के अनुसार ऐसा कथन अन्वेषण के दौरान दिया गया होना चाहिए।

    इसलिए निम्नलिखित परिस्थितियों में धारा 162 को लागू करने की शर्तें पूर्ण नहीं मानी जायेगी, यदि,

    • यदि ऐसा कथन पुलिस अधिकारी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को दिया जाए या,

    • किसी पुलिस अधिकारी को अन्वेषण के दौरान नहीं दिया जाए,

    • या, ऐसा कथन पुलिस अधिकारी को अन्वेषण के दौरान दिया गया है परंतु वह ऐसे अधिकारी द्वारा लिखित में रिकॉर्ड नहीं किया गया है।

    इसलिए आवश्यक है कि ऐसा कथन पुलिस अधिकारी को दिया हो, कथन लिखित हो और अन्वेषण के दौरान दिया हो। ऐसी शर्तो के पूर्ण होने पर ही धारा 162 के संरक्षण के नियम लागू होगा। (पोन्नुस्वामी चेट्टी बनाम एंपरर,A.I.R. 1957 All. 239,)

    उपरोक्त प्रावधानों के विवेचन से यह स्पष्ट है की अन्वेषण प्रक्रिया के दौरान लिए जाने वाले बयानों के संबंध में धारा 161 और 162 वाली प्रक्रिया का अनुपालन इनमें बताए नियमों के अनुसार ही किया जा सकेगा और अन्वेषण के पश्चात रिकॉड किया कोई भी कथन धारा 161 या 162 के श्रेणी में नहीं आयेगा। यह बात धारा 173(5) से भी जाहिर होती है क्योंकि आरोप पत्र पेश किया जाना यानी अन्वेषण प्रक्रिया की समाप्ति है और विचारण की शुरुआत। इसलिए जब पुलिस अधिकारी द्वारा कोई आरोप पत्र कोर्ट में पेश कर दिया गया है तब उसने उस सारी सामग्री का समामेलन होगा जो मामले में आवश्यक है, जिसमें धारा 161 में लिखित बयान में भी शामिल है। अन्वेषण के समाप्ति के बाद लिए कथन कही भी प्रयुक्त नहीं किए जा सकेंगे और न ही धारा 161 और 162 के नियम उसपर लागू होंगे। जबकि पुलिस अधिकारी स्वयं अतिरिक्त अन्वेषण प्रारंभ ना करें या संबंधित मजिस्ट्रेट ने ऐसा आदेश न दिया हो।

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