लोक सेवक द्वारा कर्तव्य निर्वहन के क्रम में किसी रिकॉर्ड में की प्रविष्ठि की ग्राहता के विषय में जानिए
Lakshita Rajpurohit
22 Dec 2022 4:03 PM IST
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 35, किसी लोक सेवक या विधि द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति द्वारा पब्लिक रिकॉर्ड, अन्य रिकॉर्ड या रजिस्टर के अंतर्गत की जाने वाली प्रविष्टि के साक्ष्य की सुसंगता के सिद्धांत पर आधारित है। जो कि अधिकारी द्वारा अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में की गई है और वे प्रविष्टियां उनकी सत्यता का प्रथम दृष्टाया साक्ष्य होती हैं। यह उपबंध लॉ कमिशन की 69वीं रिपोर्ट के अध्याय 14 में संदर्भित किया गया था तथा उसी की सिफारिशों के आधार पर इसे अधिनियम के अंतर्गत शामिल किया गया है।
जो कि इस प्रकार है-
"किसी लोक या अन्य राजकीय पुस्तक, रजिस्टर या अभिलेख या इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख में की गई प्रविष्टि, जो किसी विवाद्यक या सुसंगत तथ्य का कथन करती है और किसी लोक सेवक द्वारा अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में या उस देश की, जिसमें ऐसी पुस्तक, रजिस्टर या अभिलेख या इलेक्ट्रानिक अभिलेख रखा जाता है, विधि द्वारा विशेष रूप से व्यादिष्ट कर्तव्य के पालन में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा की गई है, स्वयं सुसंगत तथ्य है।"
महत्वपूर्ण है कि मामले में यदि कोई दस्तावेज विवाद्यक या सुसंगत तथ्य से संबंधित है तब अवश्य ही उसका न्यायालय में सबूत पेश किया जा सकता है। धारा 35 में प्रयुक्त "सुसंगत है" से तात्पर्य उसके साक्षिक मूल्य तथा इसकी ग्राहता से है। यदि ऐसे पब्लिक रिकॉर्ड या दस्तावेज जो लोकसेवक द्वारा अपनी पदीय कर्त्तव्य के दौरान बनाए गए है या ऐसी कोई प्रविष्ठि की गई है, तब उस परिस्थिति में ही वे साक्ष्य में स्वीकार् किए जा सकेंगे, अन्यथा नहीं।
रविंदर सिंह गोरखी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [2006] INsc,314. के मामले में तय किया गया कि किसी भी दस्तावेज़ को ग्राह बनाने से पूर्व निम्नलिखित शर्तों को पूरा होना आवश्यक है :
• ऐसी प्रविष्टि पब्लिक या अन्य शासकीय रिकॉर्ड में होनी चाहिए।
• इसे एक लोक सेवक द्वारा बनाया जाना चाहिए।
• यह लोक सेवक द्वारा अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किया जाना चाहिए।
• यह विवाद्यक या सुसंगत तथ्य से प्रत्यक्षः संबंधित होने चाहिए।
इस संदर्भ में धारा को 2 भागो में विभक्त किया जा सकता है, जैसे-
किसी भी पब्लिक या अन्य आधिकारिक पुस्तक, रजिस्टर, रिकॉर्ड या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के अंतर्गत कोई प्रविष्टि सुसंगत होगी यदि वह :
1. एक लोक सेवक अपने आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में, या,
2. देश के कानून द्वारा विशेष रूप से आदेशित कर्तव्य के प्रदर्शन में कोई अन्य व्यक्ति जिसमें ऐसी पुस्तक, रजिस्टर, रिकॉर्ड या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड रखा जाता है, द्वारा की गई है।
धारा 35 के पहले भाग में मात्र "सार्वजनिक या आधिकारिक हैसियत" के अंतर्गत की प्रविष्ठि पर ही जोर दिया गया है, न कि व्यक्तिगत या वैधानिक हैसियत में की किसी बात से; अर्थात् बिना किसी कर्त्तव्य के या वैयक्तिक हैसियत में की प्रविष्टियां सुसंगत नहीं मानी जा सकेगी। इसलिए धारा 35 को इस प्रयोजन के लिए सिविल और आपराधिक दोनों ही कार्यवाहियों में बिना किसी विभेद के समान मानकों में लागू किया गया है। लोक सेवक को भारतीय दंड संहिता(IPC) की धारा 21 में परिभाषित किया गया है। 'सार्वजनिक पदाधिकारियों' के कृत्यों या अभिलेखों को साक्ष्य अधिनियम की धारा 74 में 'सार्वजनिक दस्तावेजों' के रूप में वर्णित किया गया है।
जैसे, दंड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 154 के तहत FIR एक लोक सेवक द्वारा अपने पदीयकर्तव्य निर्वहन के अंतर्गत रजिस्टर में की एंट्री है और धारा 35 के अंतर्गत आती है। यानी इसके संबंध में साक्ष्य दिया जा सकता है। [हसीब बनाम राज्य: एआईआर 1972 एससी 283)
किसी प्रभारी अधिकारी द्वारा अपने आधिकारिक कर्तव्य के पालन में जन्म रजिस्टर में की गई प्रविष्टि सुसंगत है। लेकिन यदि ऐसी प्रविष्टि जन्म तिथि के संबंध में किसी स्कूल प्रिंसिपल द्वारा की जाए तो वह इस धारा में साक्ष्य के अंतर्गत स्वीकार्य नहीं है क्योंकि वह लोकसेवक नहीं है और न ही यह कार्य पदीय कर्त्तव्य की निर्वहन में किया गया है। परन्तु यह भी हैं कि, किसी व्यक्ति ने कारबार के सामान्य अनुक्रम कोई प्रविष्ठि की है तब वह साक्ष्य अधिनियम की अन्य धाराओं में सुसंगत हो सकेगी। [हरपाल सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य,AIR 1981 SC,361]
वैसे ही, यदि कोई मतदाता सूची जो निर्वाचन विभाग के सक्षम अधिकारी द्वारा अपने पदीय कर्तव्य को निभाते हुए तैयार की गई हो, तब वह इस धारा में उस एंट्री को साबित करने के लिए साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है। [चित्रुदेवी बनाम रामदेयी, AIR 2002,HP 59.]
पंचायत सचिव द्वारा निर्मित जन्म और मृत्यु रजिस्टर में प्रविष्टियां सार्वजनिक दस्तावेज है। धारा 35 के तहत यह स्वीकार्य हैं, लेकिन यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि प्रविष्टियां किसने की और सूचना का स्रोत क्या था। [OIC लिमिटेड बनाम हीरा देवी, एफएओ (डब्ल्यूसीए) 417/2012]
इसी प्रकार, किसी अधिवक्ता द्वारा जारी किया विवाह प्रमाणपत्र बगैर किसी विधिक प्राधिकरण के, साक्ष्य में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि अधिवक्ता लोकसेवक नहीं है और न ही कर्तव्य निभाने के क्रम में ऐसा कार्य किया गया है। [सत्यम कुमार बनाम यूपी राज्य, AIR 2014, NOC,104]
महत्वपूर्ण यह है कि, यदि कोई प्रविष्ठि धारा 35 के शर्तो के अनुरूप नहीं है, तब वह इस धारा में सुसंगत न हो कर साक्ष्य अधिनियम की धारा 9 या 11 के अंतर्गत सुसंगत हो सकती है। अर्थात इन धाराओं के नियमों के अनुसार उसे साक्ष्य में पेश किया जा सकेगा और धारा 35 के नियम उसपर लागू नहीं होंगे।
उद्देश
इस उपबंध का उद्देश है कि, विधि यह कल्पना (assumption) करती है कि लोकसेवक द्वारा अपने पदीय कर्तव्य का सही ढंग से निर्वहन किया गया होगा और वैधानिक रूप से नियुक्त व्यक्तियों द्वारा की गई प्रविष्टियां भी उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए की गई होगी। जब कई वर्षों के बीत जाने के बाद ऐसे व्यक्ति साक्ष्य देने के लिए उपलब्ध नहीं भी हो, तब दस्तावेज या रिकॉर्ड के विषय में धारा 35 का सहारा लिया जा सकेगा।
इसके अलावा, यह उस व्यक्ति का सार्वजनिक दायित्व भी है जो रजिस्टर या रिकॉर्ड रखता है कि वह सत्यता से संतुष्ट होने के बाद ही ऐसी प्रविष्टियां करें। ऐसे सार्वजनिक कर्तव्यों का निर्वहन करने वाले व्यक्तियों में असाधारण स्तर का विश्वास निहित होता है। जब ऐसी प्रविष्टियों को साबित करने का प्रश्न होता है तो इन्हें आमतौर पर उनकी प्रमाणित प्रति(सर्टिफाइड कॉपी) के पेश करने पर सिद्ध किया जा सकता है।
आवश्यक नहीं है कि प्रविष्टि करने वाले व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष बुलाया जाए और शपथ पर परीक्षा की जाए या प्रति परीक्षा (cross examination) की जाए। ऐसे में सभी दस्तावेजों और रिकॉर्ड को सही और वास्तविक ही माना जायेगा और यदि कोई पब्लिक रजिस्टर या दस्तावेज भारत के बाहर या विदेशी विधि के तहत रखे गए है, तब उस संदर्भ में भी धारा 35 के ही नियम लागू होंगे।
अतः इसके प्रामाणिक या साक्षिक मूल्य की यदि बात की जाए तो कहना उचित होगा कि, यह कोई निश्चायक सबूत नहीं है; अर्थात् मात्र इसी के आधार पर न्यायालय मामले के तथ्यों को निर्णीत नहीं कर सकता है। यह केवल एक संपोषक साक्ष्य (Corroborative Evidence) है। जिसे इसे अन्य साक्ष्यों से संपुष्ट करने के बाद ही न्यायालय द्वारा विचार में लिया जा सकता है तथा इसकी वास्तविकता का अन्य स्वतंत्र साक्ष्यों से खण्डन किया जा सकता है।