क्या एक जज का प्रधानमंत्री की सराहना करना नैतिक है?
LiveLaw News Network
1 March 2020 12:18 PM IST
अनुराग भास्कर
सुप्रीम कोर्ट की मेजबानी में 22-23 फरवरी को एक अंतरराष्ट्रीय न्यायिक कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया, जिसका विषय था- 'न्यायपालिका व बदलती दुनिया'। भारतीय और विदेशी जजों के बीच विचारों का संवाद सहज बनाना कान्फ्रेंस का उद्देश्य था। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में की गई जस्टिस अरुण मिश्रा की एक टिप्पणी ने बीस से अधिक देशों (यूनाइटेड किंगडम और ऑस्ट्रेलिया सहित) के जजों को न्यायिक नैतिकता और औचित्य के विषयों पर विचार करने को मजबूर किया होगा, जबकि यह सम्मेलन का एजेंडा नहीं था।
ऑस्ट्रेलिया के चीफ जस्टिस, यूनाइटेड किंगडम की सुप्रीम कोर्ट के प्रेसिडेंट और अन्य जजों ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार किया होगा: क्या संवैधानिक अदालत के एक न्यायाधीश के लिए यह नैतिक है कि वह सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री की प्रशंसा करे?
जस्टिस अरुण मिश्रा ने क्या कहा था?
सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी "बहुमुखी प्रतिभा के धनी" हैं, वह "वैश्चिक स्तर पर सोचते हैं और स्थानीय स्तर पर काम करते हैं" और "अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित दूरदर्शी" नेता हैं। जस्टिस मिश्रा ने उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री के प्रति आभार व्यक्त करते हुए ये टिप्पणी की।
बार काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन मनन कुमार मिश्रा ने जस्टिस मिश्रा का समर्थन करते हुए कहा था कि यह टिप्पणी शिष्टाचार के नाते की गई थी।
यह समझने के लिए क्या न्यायमूर्ति मिश्रा की टिप्पणी उचित थी, हमें पहले नैतिकता के व्यापक सिद्धांतों और न्यायपालिका को नियंत्रित करने वाले औचित्य को समझने की जरूरत है।
न्यायपालिका में नैतिकता और औचित्य क्यों मायने रखती हैं?
शक्ति का विकेंद्रीकरण भारतीय संविधान की मूल संरचना का महत्वपूर्ण हिस्सा और न्यायिक स्वतंत्रता की गारंटी है। जजों की सेवाओं की स्थितियों और कार्यकाल के संबंध में किए गए संवैधानिक प्रावधान इस स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए किए गए सुरक्षा उपाय हैं। हालांकि, जैसा कि कई निर्णयों में कहा गया है, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, जवाबदेही, निष्पक्षता और पारदर्शिता की जिम्मेदारी के साथ आती है।
एक संस्था को कुछ मापदंडों के के तहत कार्य करना पड़ता है और लिखित नियमों और अलिखित परंपराओं और रीतियों से नियंत्रित होना पड़ता है। यही वह जगह है, जहां नैतिकता दृश्यपटल पर आती है। न्यायिक नैतिकता, सरल शब्दों में, ऐसे मानकों और प्रथाओं का उल्लेख करती है, जिनका अनुकरण न्यायपालिका के सदस्यों को करना चाहिए।
ये नैतिकता न केवल चेक और बैलेंस की संवैधानिक प्रणाली को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, बल्कि इसकी धारणा भी है। इस लिहाज से, न्यायाधीशों द्वारा अपनाई जाने वाली नैतिकता न केवल अलिखित नियम है, बल्कि वे संवैधानिक और संस्थागत आवश्यकताएं हैं, जिनकी भारतीय कानूनी प्रणाली और सार्वजनिक विश्वास की वैधता को बनाए रखने के लिए आवश्यकता है।
न्यायिक नैतिकता की आवश्यकता क्या है?
प्रत्येक जज का आचरण संस्थागत नैतिकता के अनुरूप होना चाहिए। न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता में जनता का विश्वास बनाए रखने के लिए जरूरी है कि न्यायिक नैतिकता के लिए न्यायाधीश का संयम का एक निश्चित स्तर बनाए रखें।
इसलिए, राज्य या उसके प्रतिनिधि अंगों के साथ पेशेवर और निजी संबंधों में जजों को किसी भी तरह के हितों के टकराव से बचना चाहिए और ऐसे व्यवहार में शामिल नहीं होना चाहिए, जिससे यह धारणा बने कि कि न्यायपालिका की गरिमा सामान्य रूप से संदिग्ध हो रही है।
जब जज बोलते हैं तो लोग उन्हें सुनते हैं और उनकी बात जनता को न्यायपालिका की भूमिका के बारे में सूचित कर सकता है। उनकी हर बात और कार्य ( चाहे बोली गई बात हो या लिखी गई, चाहे अदालत के अंदर किया गया कार्य हो या बाहर) को उचित ढंग से प्रतिबिंबित होना चाहिए- जैसा कि एक निर्णय में कहा गया है- "वे न्यायिक प्रणाली में आम आदमी का भरोसा बढ़ाने और बनाए रखने के लिए निरंतर प्रयास करने के लिए दृढ़ हैं।"
सुप्रीम कोर्ट के स्वयं के नैतिक मापदंड: संहिताकरण, निर्णय और व्यवहार
न्यायिक आचरण के सिद्धांतों को न्यायाधीशों ने स्वयं तैयार किया है। 7 मई, 1997 को सुप्रीम कोर्ट की एक फुल कोर्ट ने "न्यायिक जीवन के मूल्यों की पुनर्स्थापन" नामक एक चार्टर अपनाया। अपनाए गए मूल्यों में से एक की शर्त है कि "हर जज" हर समय "सचेत रहें कि वह जनता की निगाह में है" और यह कि "उनसे कोई ऐसा कार्य या चूक नहीं होनी चाहिए, जो उनके उच्च पद की गरिमा के अनुरूप न हो।"
मुख्य न्यायाधीशों की गोलमेज बैठक में अपनाए गए न्यायिक आचरण 2002 के बैंगलोर सिद्धांतों के अनुसार, "औचित्य और औचित्य की उपस्थिति न्यायाधीश की सभी गतिविधियों के आवश्यक तत्वों में से एक है।"
इन दोनों संस्थागत दस्तावेजों में नैतिकता, स्वामित्व और जवाबदेही निहित है।
इसके अलावा, कई निर्णयों में, सर्वोच्च न्यायालय ने खुद नैतिकता की आवश्यकता पर जोर दिया है और न्यायाधीशों द्वारा नैतिकता के उल्लंघनों के खिलाफ सख्त रुख अपनाया है। दया शंकर बनाम इलाहाबाद उच्च न्यायालय (1987) में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि न्यायाधीश "अपने पद की गरिमा के खिलाफ मामूली कार्रवाई भी नहीं कर सकते हैं।"
हाईकोर्ट ऑफ ज्यूडिकेचर फॉर राजस्थान बनाम वी रमेश चंद पालीवाल (1998) के फैसले में कहा गया था कि जजों को "संन्यासियों जैसा व्यवहार करना चाहिए, जिनकी कोई इच्छा या आकांक्षा न हो।"
हाईकोर्ट ऑफ ज्यूडिकेचर ऑफ बॉम्बे बनाम शशिकांत एस पाटिल (2000) के फैसले में कहा गया था कि जज "का पद भरोसे और जिम्मेदारी का है।"
तारक सिंह बनाम ज्योति बसु (2005) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि जजों को स्वयं "उच्च मानकों के आत्म अनुशासन" का अनुकरण करना चाहिए। उन पर कोई अन्य प्राधिकरण बाहर से ऐसा अनुशासन लागू नहीं कर सकता है। ऐसे मानदंड से जज का मामूली भटकाव न्यायपालिका की छवि को नुकसान पहुंचाता है।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के रूप में अपने कार्यकाल में कई न्यायाधीशों ने न्यायपालिका के भीतर स्थापित नैतिक मापदंडों से भटकाव और उल्लंघन के खिलाफ चेतावनी दी है।
मुख्य न्यायाधीश आरसी लाहोटी ने एक बार कहा था कि "न्यायपालिका को सुरक्षित रखने के लिए इसे भीतर से मजबूत और स्वतंत्र होना चाहिए" और यह "न्यायाधीशों के व्यक्तित्व में न्यायिक नैतिकता की कसौटियों को शामिल करके ही पाया जा सकता है।"
इस तथ्य को देखते हुए कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने खुद राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी और राज्य अकादमियों में देश के विभिन्न हिस्सों से आए न्यायिक अधिकारियों का व्याख्यान देते हैं, मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया का निम्नलिखित अवलोकन अत्यधिक प्रासंगिक हो जाता है-
"जब हम नैतिकता की बात करते हैं, तो न्यायाधीश सामान्यतया राजनेताओं, छात्रों, प्रोफेसरों और अन्य लोगों की नैतिकता पर टिप्पणी करते हैं। लेकिन मैं कहूंगा कि न्यायाधीश के लिए भी, न केवल संवैधानिक नैतिकता, बल्कि नैतिक नैतिकता भी आधार होना चाहिए।"
मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने भी दोहराया था कि न्यायिक नैतिकता से कभी समझौता नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि किसी भी स्तर पर होने वाला भटकावा पूरे न्यायिक प्रणाली को बदनाम कर सकते हैं।
इसलिए, न्यायपालिका में नैतिकता की संवैधानिक आवश्यकता को न्यायिक अधिकारियों के क्रियाकलाप में महसूस किया जाना चाहिए।
क्या जस्टिस अरुण मिश्रा की टिप्पणियां न्यायिक नैतिकता के विपरीत हैं?
न्यायपालिका के व्यवहार और नैतिकता के मानदंडों की आवश्यकता है कि न्यायाधीशों को सार्वजनिक भाषण के दौरान अपनी भूमिका और जिम्मेदारियों के प्रति सावधान रहना चाहिए। वे अपने शब्दों के प्रयोग में बेपरवाह नहीं हो सकते। उनके शब्द कोर्ट रूम के अंदर या बाहर एक औसत नागरिक की तुलना में कहीं अधिक महत्व रखते हैं, नैतिक दायित्व उनके कंधों पर अधिक होता है।
जस्टिस मिश्रा की टिप्पणी बुनियादी तौर पर औपचारिक शिष्टाचार से परे है। वे ऐसी टिप्पणियों से निश्चित रूप से स्वयं को रोक सकते थे। इस तरह की टिप्पणी किसी भी बाहरी पर्यवेक्षक के लिए विशेष रूप से सम्मेलन में भाग लेने वाले अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के न्यायाधीशों के लिए चेक और बैलेंस की धारणा को धुंधला करती है। इस तहर की टिप्पणियों ने- मुख्य न्यायाधीश ठाकुर के शब्दों को दोहराया जाए तो- अंतरराष्ट्रीय न्यायिक समुदाय के समक्ष सुप्रीम कोर्ट और भारतीय कानूनी बिरादरी के लिए अपयश का कारण हैं।
अब क्या?
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के लोकप्रिय न्यायाधीश न्यायमूर्ति रूथ बेडर गिन्सबर्ग ने 2016 में राष्ट्रपति पद के तत्कालीन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प पर तीखी टिप्पणी की थी, तो उनकी काफी आलोचना हुई थी। बाद में, जस्टिस गिन्सबर्ग ने अपनी टिप्पणी के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगी।
जैसा कि मनु सेबेस्टियन ने कहा है, "न्यायिक औचित्य की अलिखित संहिता के अनुसार न्यायपालिका और राजनीति के बीच एक अदृश्य दीवार होती है।"
इस सीमा को पार करने के लिए, क्या भारत में भी ऐसी ही माफी की उम्मीद की जा सकती हैं? शायद। शायद नहीं।
भारत के मुख्य न्यायाधीश से अनुरोध किया जाता है कि वह अपने सहयोगियों को बताएंगे कि राजनेताओं, विशेषकर मंत्रियों की प्रशंसा में की गई टिप्पणियों का स्वागत नहीं किया जाता है। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की प्रधानमंत्री की प्रशंसा में की गई टिप्पणी की उसी तरह निंदा की जानी चाहिए, जिस प्रकार एचएम सरवई ने 1980 में एक पत्र में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की प्रशंसा करने के लिए न्यायमूर्ति पीएन भगवती की आलोचना की थी।
(अनुराग भास्कर सोनीपत के जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल में पढ़ाते हैं।)
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