असहमतियों और वैज्ञान‌िक विमर्श पर ग्रहण?

LiveLaw News Network

3 April 2020 4:01 PM GMT

  • असहमतियों और वैज्ञान‌िक विमर्श पर ग्रहण?

    सी‌नियर एडवोकेट संतोष पॉल

    " हमें स्पष्ट होना चाहिए कि विज्ञान के लिए आम सहमति का कोई अर्थ नहीं है। आम सहमति राजनीति का विषय है। विज्ञान में आम सहमति व्यर्थ है। अर्थपूर्ण वो नतीजे हैं, जिन्हें दोबारा हासिल किया जा सके। इतिहास के महानतम वैज्ञानिक महान इसलिए रहे, क्योंकि उन्होंने आम सहमति के खिलाफ खड़ा होना चुना।"

    माइकल क्रिक्टन

    कोरोनोवायरस की महामारी पर संभावित सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक विमर्शों को सुप्रीम कोर्ट का 31 मार्च 2020 का आदेश प्रभावित कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट का ऐसा इरादा नहीं होगा, मगर फैसला कार्यकारी के हाथों दुरुपयोग होने की आशंका भी रखता है।

    जस्टिस नागेश्वर राव और जस्टिस दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने 3 अप्रैल 2020 को यूनियन की आपत्तियों के बावजूद प्रवासी श्रमिकों की हालात पर दायर हर्ष मंदर की याचिका पर एक नोटिस जारी किया। यह आदेश के खिलाफ आईं प्रारंभिक प्रतिक्रियाओं और आलोचनाओं को शांत और काफी हद तक कमजोर करेगा।

    लॉरेंस ट्राइब ने अपनी महान रचना अमेरिकी संविधान में लिखा है, "स्वतंत्र न्यायपालिका के पास संवैधानिक विमर्श में शामिल होने की अद्वितीय क्षमता और प्रतिबद्धता होती है।"

    सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर मुकदमा उन लाखों प्रवासी मजदूरों से संबंधित था, जो लॉकडाउन के बाद रोजी-रोटी खोने के कारण अपने-अपने घरों की ओर निकल पड़े थे। केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल ने अदालत को बताया कि विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों ने प्रवासी मजदूरों के लिए 21,064 राहत शिविर स्‍थापित किए हैं। यह आश्वासन भी दिया गया कि प्रवासी श्रमिकों को भोजन, आश्रय, दवा दी गई ‌है।

    हालांकि, लोकतांत्रिक समाजों में सरकार के दावों की जांच की जाती रहा है, और यह केवल जमीन स्तर पर काम कर रही स्वतंत्र मीडिया, नागरिक समाज और गैर-सरकारी एजेंसियों के जर‌िए ही किया जा सकता है।

    कोर्ट ने डब्लूएचओ के प्रमुख डॉ टेड्रोस एडनॉम घेब्रेयसस के बयान का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने कहा, "हमने केवल महामारी के खिलाफ नहीं लड़ रहे; हम गलत जानकारियों के खिलाफ भी लड़ रहे हैं। फेक न्यूज, वायरस से भी तेजी से और अधिक आसानी से फैलती है, और यह उतनी ही खतरनाक है।"

    यह स्पष्ट नहीं है कि यह बयान किस संदर्भ में दिया गया था और क्या यह फ्री स्पीच के खिलाफ सख्त होने का आह्वान था।

    हालांकि, ट्विटर अकाउंट पर WHO द्वारा दिया गए एक संयुक्त बयान में कहा गया, "हमारा विश्वास है कि केवल प्रभावी वैश्विक सहयोग से ही COVID -19 से होने वाले मानवीय और आर्थिक नुकसान को कम किया जा सकता है। अंतर्मुखी नीतियों की सीमा स्पष्ट हो चुकी है।"

    डॉ घेब्रेयस के बयान के आधार पर ही कोर्ट ने कहा, "हमारे लिए इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट और सोशल मीडिया द्वारा फैलाई जा रही फर्जी खबरों की अनदेखी कर पाना संभव नहीं है।"

    कोर्ट ने कहा, "हम मीडिया (प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक या सामाजिक) से विशेष रूप से अपेक्षा रखते हैं कि वो जिम्मेदारी की मजबूत भावना बरकरार रखेंगे और यह सुनिश्चित करें कि हड़बड़ी पैदा करने वाली असत्यापित खबरों का प्रसार न हो।"

    आदेश के इस हिस्से पर आपत्त‌ि नहीं है, यह पत्रकारीय नैतिकता के अनुपालन का बात करता है।

    आदेश का परेशानी वाला हिस्सा वह है जिसमें कहा गया है, "हम महामारी के बारे में स्वतंत्र चर्चा में हस्तक्षेप करने का इरादा नहीं रखते हैं, हालांकि मीडिया को निर्देश देते हैं कि वो घटनाक्रम के आधिकारिक पक्ष ही प्रकाशित और उल्लेख‌ित करें।"

    यदि प्रेस अपने विचारों को प्रसारित करने के लिए स्वतंत्र है, तो उन्हें सरकार के पक्ष का समर्थन करने के लिए कैसे बाध्य किया जा सकता है? साथ ही यह आदेश स्वतंत्र और निष्पक्ष विमर्श की प्रक्रिया में जटिलताएं पैदा कर सकता है। तब क्या होगा, जब कोई व्यक्ति, वह वैज्ञानिक हो या पत्रकार, आधिकारिक पक्ष के विपरीत वैज्ञानिक प्रमाण पाता है, या कोई सामाजिक कार्यकर्ता या समान्य व्यक्ति यह देखता है कि जमीनी हकीकत सरकार पक्ष से मेल नहीं खा रही है?

    अमर्त्य सेन, अकाल की रोकथाम और अभिव्यक्ति की आजादी

    नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने आनुभविक रूप से प्रदर्शित किया था कि ''इतिहास में कभी भी क्रियाशील लोकतंत्र में अकाल नहीं पड़ा।'' (डेमोक्रसी ऐज़ फ्रीडम, 1999)

    सेन ने स्पष्ट किया है कि लोकतांत्रिक सरकारों को चुनाव जीतना होता है और सार्वजनिक आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है, और यह अकाल और दूसरी आपदाओं को रोकने के उपाय करने के लिए ठोस कारण है। 1947 के बाद बड़े पैमाने पर जानमाल की क्षति नहीं हुई है।''

    सेन ने 1943 में बंगाल में पड़े भयंकर अकाल के दौरान अभ‌िव्यक्ति की आजादी पर लगाम लगाने के विनाशकारी नतीजों पर विस्‍तृत से लिखा है। उस त्रासदी में 30 लाख लोग मारे गए थे।

    यह व्यापक स्तर पर माना जाता है कि वह अकाल भोजन की कमी के कारण पड़ा था। सेन ने अपने शोध में पाया था कि बंगाल में खाद्य उत्पादन नहीं गिरा था, बल्कि, भोजन की कीमतें बढ़ गई थीं और खेत मजदूरी कम हो गई थी। ग्रामीण मजदूरों के लिए भोजन खरीदना मुश्किल हो गया था। स्वतंत्र प्रेस और जनता की आवाज सुनने की इच्छुक सरकार इस आपदा को रोक सकती थी।

    उन्होंने लिखा है, "ऐसे देश में जहां अकाल की आशंका हो, एक स्वतंत्र प्रेस और एक सक्रिय राजनीतिक विपक्ष पूर्व चेतावनी का बेहतरीन सिस्टम तैयार करता है.....आश्चर्य की बात नहीं है कि, भारत आजादी से पहले तक ब्रिटिश शासन के तहत लगातार अकाल पीड़ित रहा और आजादी के बाद बहुपक्षीय लोकतंत्र की स्थापना और स्वतंत्र प्रेस के बाद अकाल एकाएक समाप्त हो गए।

    माओत्से तुंग से बेहतर यह कोई नहीं समझ पाया। माना जाता है कि 1958-61 की उनकी 'ग्रेट लीप फॉरवर्ड' की नीति के कारण चीन में अकाल पड़ा और 50 लाख चीनी मारे गए।

    माओ ने स्वीकार किया कि "यदि लोकतंत्र न हो और जनता की ओर से विचार न आए तो एक अच्छी लाइन, अच्छी सामान्य और विशिष्ट नीतियों और तरीकों को स्थापित करना असंभव है ... लोकतंत्र के बिना आपको समझ में नहीं आता कि जमीन पर क्या हो रहा है, स्थिति अस्पष्ट हो जाएगी। नेतृत्व का शीर्ष स्तर मुद्दों को तय करने के लिए एक तरफा और गलत सामग्र‌ियों पर निर्भर रहेगा।"

    एड्स का नियंत्रण और अभिव्यक्ति की आजादी

    महामारी के खिलाफ युद्ध अकाल के खिलाफ युद्ध के समान है। अभिव्यक्ति की आजादी महत्वपूर्ण है। COVID 19 का प्रसार प्रेस या मीडिया या सरकार द्वारा प्रकाशित की गई बातों से तय नहीं होता है।

    यह सरकार, मीडिया, वैज्ञानिक समुदाय और सभी शामिल लोग हैं, जिन्होंने महामारी की जानाकरियों को, उसकी विभत्सताओं के साथ, लगातार इकट्ठा किया है और उन सभी महत्वपूर्ण जानकारियों का आदान-प्रदान किया, जो इस वायरस की रोकथाम के लिए अब तक जरूरी रही है। एचआईवी/ एड्स, जिसने 3 करोड़ 20 लाख जाने ले लीं, के खिलाफ जंग एक मिसाल है।

    बड़ी संख्या में वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, राजनेताओं, पत्रकारों, नागरिक समाज और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा जुटाए गए तथ्यों, आंकड़ों, सूचनाओं के नि: शुल्क आदान-प्रदान के कारण इस संकट को नियंत्रण में लाया जा सका है। समानांतर रूप से, HIV/AIDS की दवाओं की की लागत को कम करने के लिए भी जंग लड़ी गई थी।

    2000 में HIV/AIDS के इलाज के लिए दवा की लागत $10,000 प्रति वर्ष थी, जिसे 2016 में 64 डॉलर तक लाया गया। पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नागरिक समाज और कुछ क्रांतिकारी दवा कंपनियों लड़ी गई जंग के कारण दवाओं की लागत में भारी कमी हो सकी है, जिससे इस रोग पर रोक लगाना संभव हो सकेगा।

    आदेश को कैसे समझा जाएगा?

    क्या इस आदेश को सेंसरशिप के पहले का संकेत समझा जाए?

    1950 के बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य के मामले में, दी इस्ट पंजाब पब्लिक सेफ्टी एक्ट, 1950 को समाप्त कर दिया गया था। इसके बाद, जाने माने पत्रकार रोमेश थापर ने मद्रास मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक सेफ्टी एक्ट, 1949 को चुनौती दी थी।

    सुप्रीम कोर्ट के जज, जस्टिस दीपक गुप्ता ने 8 सितंबर 2019 को दिए गए एक उल्लेखनीय भाषण में फ्री स्पीच के औचित्य स्पष्ट किए थे, जिन्हें निश्चित रूप से भविष्य के लिए मानदंड माना जा सकता है:

    "नए विचारक तब पैदा होते हैं, जब वे समाज के स्वीकृत मानदंडों से असहमत होते हैं। यदि सभी उन्हीं रास्‍तों पर चलें, जिन पर सदा से चला जा रहा है तो नए रास्ते नहीं बन पाएंगे, कोई नया अन्वेषण नहीं हो पाएगा, और कोई नई चीज नहीं खोजी जाएगी। यदि कोई व्यक्ति सवाल नहीं पूछता है और सदियों पुरानी परंपराओं पर सवाल नहीं उठाता है तो कोई भी नई प्रणाली विकसित नहीं होगी और दिमाग के क्षितिज का विस्तार नहीं होगा।"

    हर्ष मंदर की याचिका पर दिया गया आदेश आशंकाओं को शांत करेगा। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय के 31 मार्च 2020 के आदेश पर संभवतः पुनर्विचार या स्पष्टीकरण की आवश्यकता है क्योंकि यह, सुप्रीम कोर्ट का ऐसा इरादा नहीं है, कार्यपालिका के हाथों दुरुपयोग की क्षमता रखता है, जिससे लोकतांत्रिक विमर्श पर लगाम लगाई जा सकेगी,

    बल्कि स्वतंत्र और लोकतांत्रिक समाजों की उस प्रक्रिया पर भी हमला कर सकता है, जिसके जरिए समाज संवाद करता है, जो हमारे समय के सबसे बड़े संकट को जीतने के लिए बहुत आवश्यक है।

    यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

    लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।

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