सीआरपीसी की धारा 161 और 162 की साक्षिक मूल्य का विश्लेषण (भाग 2)

Lakshita Rajpurohit

30 March 2023 9:26 AM GMT

  • सीआरपीसी की धारा 161 और 162 की साक्षिक मूल्य का विश्लेषण (भाग 2)

    पिछेल लेख में दंड प्रक्रिया संहिता (CRPC) की धारा 161 व 162 की विधिक प्रस्थिति का परीक्षण किया गया था। यहां एक बार पुनः उल्लेख करना उचित होगा कि इन दोनों धाराओं में अन्वेषण के क्रम में पुलिस अधिकारी द्वारा मामले से परिचित व्यक्तियों के कथन रिकॉर्ड करने के संबंध में प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। जहां धारा 161 कथन कैसे रिकॉर्ड किए जाने के संदर्भ में बताती है, वहीं धारा 162 उनके कथनों के उपयोग के संबंध में चर्चा करता है। आइए; अब इस लेख में इनके साक्षिक मूल्य की परख की जाए।

    कथन का अर्थ- “विशेषतः औपचारिक रूप से कही या लिखी किसी बात से है।“ यानी किसी प्राधिकारवान व्यक्ति द्वारा अपनी औपचारिक कर्तव्य निर्वहन के क्रम में लिखित किसी अन्य द्वारा बताई बात, कथन की श्रेणी में आती है। जैसे कि, सीआरपीसी में पुलिस अधिकारी द्वारा अपने पदीय कर्तव्य निर्वहन के क्रम में रिकॉर्ड किया गया कोई कथन।

    धारा 161 के अंतर्गत ऐसे कथन लिखित और मौखिक हो सकते है। ऐसा उपधारा (1) और उपधारा (3) को पढ़ कर स्पष्ट होता है। लेकिन कुछ विधिक प्रकरणों में यह स्थापित किया गया की ऐसे कथन व्यक्ति आचरण द्वारा भी दे सकता है या किसी चिन्ह या संकेतों द्वारा कही कोई बात भी सीआरपीसी की धारा 161 के संदर्भ में एक कथन माना जायेगा। (अविनाश कुमार बनाम राज्य, 1963 CriLJ 706.)

    जानना उचित होगा कि, इन कथनों का प्रयोग मात्र जांच या विचारण में ऐसे साक्षी के पूर्व कथनों के खंडन करने के लिए किया जा सकेगा, अन्यथा नहीं। यह धारा 162(1) परन्तुक में वर्णित भाषा “परंतु जब कोई ऐसा साक्षी, जिसका कथन उपर्युक्त रूप में लेखबद्ध कर लिया गया है, ऐसी जांच या विचारण में अभियोजन की ओर से बुलाया जाता है तब यदि उसके कथन का कोई भाग, सम्यक् रूप से साबित कर दिया गया है तो, अभियुक्त द्वारा और न्यायालय की अनुज्ञा से अभियोजन द्वारा उसका उपयोग ऐसे साक्षी का खंडन करने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 145 द्वारा उपबंधित रीति से किया जा सकता है और जब ऐसे कथन का कोई भाग इस प्रकार उपयोग में लाया जाता है तब उसका कोई भाग ऐसे साक्षी की पुनःपरीक्षा में भी, किंतु उसकी प्रतिपरीक्षा में निर्दिष्ट किसी बात का स्पष्टीकरण करने के प्रयोजन से ही, उपयोग में लाया जा सकता है।“ से स्पष्ट भी होता है।

    साक्षी का खंडन (Contradiction) क्या है?

    खंडन का शाब्दिक अर्थ है “A statement, fact or action that is opposite to or different from another one” अर्थात कोई कथन, तथ्य या एक्शन जो एक दूसरे के विपरीत या विरोधाभास की स्थिति में है।

    जब साक्षी/गवाह न्यायायल के समक्ष उपस्थित हो कर अपना अभिसाक्षीय(Testimony) देता है जिसमें उन तथ्यों की परिस्थिति के उल्लेख होता जो पुलिस अधिकारी के समक्ष बताई स्थिति से भिन्न या विपरीत है। तब कोर्ट के लिए यह आवश्यक हो जाता है ऐसे साक्षी के पूर्व में लिखित बयानों की परीक्षा की जाए जिससे मामले का दूध का दूध और पानी का पानी किया जा सके। बयानों के खण्डन करने के उद्देश से धारा 161 में रिकॉर्ड किए कथन धारा 162(1) में प्रतिषेध की सीमा से बाहर रखे गए है। [अप्पा भाई बनाम गुजरात राज्य, AIR 1988 S.C. 694 [1988 Cri.L.J. 848]

    यह उचित है कि, धारा 161(3) और 162 में प्रयुक्त “कथन” में वे सभी कथन शामिल हैं जो अन्वेषण के दौरान साक्षियों द्वारा पुलिस अधिकारी के समक्ष किए गए है ना की यह किसी एकल कथन (single statement) पर लागू होता है। इसलिए पुलिस अधिकारी के समक्ष दिए किसी तथ्य या परिस्थिति से संबंधित बयान में हुए लोप या त्रुटि को भी इसमें शामिल किया गया है। तहसीलदार सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य,एयर1959 Sc 1012. के मामले में कहा गया कि, हर लोप का खंडन नहीं किया जा सकता है। जब तक वह मामले में तात्विक (material) ना हो। इसलिए पुलिस अन्वेषण के दौरान कथन में तात्विक लोप होने पर ही उसका विचारण के क्रम में खंडन किया जा सकेगा।

    किसी साक्षी के कथनों का खंडन करने के लिए निम्नलिखित आवश्यक शर्तों का पूर्ण होना जरूरी है, जैसे-

    1. गवाह अभियोजन पक्ष द्वारा बुलाया गया हो।

    2. ऐसे गवाह ने पूर्व में पुलिस अधिकारों को बयान दिया हो

    3. ऐसा बयान लिखित हो।

    4. ऐसा बयान साबित हो चुका हो।

    उपरोक्त शर्तो के पूरा होने के बाद उस पक्षकार के कथन का खंडन किया जा सकेगा। ऐसा खंडन 145 साक्ष्य अधिनियम,1872 में बताए नियम के अनुसार किया जायेगा, जैसे-

    सीआरपीसी की धारा 145. पूर्वतन लेखबद्ध कथनों के बारे में प्रति परीक्षा – “किसी साक्षी की उन पूर्वतन कथनों के बारे में जो उसने लिखित रूप में किए हैं या जो लेखबद्ध किए गए हैं और जो प्रश्न गत बातों से सुसंगत हैं, ऐसा लेख उसे दिखाए बिना, या ऐसे लेख साबित हुए बिना, प्रति परीक्षा की जा सकेगी, किन्तु यदि उस लेख द्वारा उसका खण्डन करने का आशय है तो उस लेख को साबित किए जा सकने के पूर्व उसका ध्यान उस लेख के उन भागों की ओर आकर्षित करना होगा जिनका उपयोग उसका खण्डन करने के प्रयोजन से किया जाना है।“

    जैसे, यदि पुलिस अधिकारी से उसके एविडेंस के दौरान पूछा जाए कि क्या रिकॉर्ड का अमुक कथन उसके समक्ष साक्षी ने किया था? ऐसा किसी सबूत के बिना साबित नहीं होता है तो यह विचारण न्यायालय का कर्तव्य है की कथन के उस भाग का जो पुलिस अधिकारी के समक्ष किया और वो कथन जो कोर्ट के सामने साक्षी ने विटनेस बॉक्स में दिया है, दोनों का विरोधाभास रिकॉर्ड करें और उसे कथन के खंडन के लिए प्रयोग करें। इसलिए हर मामले में कथनों के खंडन का अभिलेखन (recording of contractions) उस मामले की हालात के अनुसार किया जायेगा। (सय्यद हुसैन बनाम राज्य, AIR 1958 Bom 225)

    बयानों के खण्डन या बयान में हुए लोप का साक्षिक मूल्य-

    सीआरपीसी की धारा 162, को पढ़ने से यह स्पष्ट है कि इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है की यह धारा मात्र साक्षियों के लिखित बयानों को विचारण के क्रम में खंडन करने की उपयोगिता को ही दर्शाती है, इसके अलावा किसी जांच या विचारण में इसका कोई उपयोग नहीं है।

    बालेश्वर राय बनाम बिहार राज्य के मामले कहा गया कि धारा 162 “अन्वेषण के दौरान” किए कथनों के कोर्ट में साक्ष्य में साबित नहीं किए जाने की बात करता है न की यह हर उस कथन की उपयोगिता पर प्रतिबंध लगाता है जो अन्वेषण के समय में साक्षियों द्वारा कहे गए थे। क्योंकि “अन्वेषण के दौरान” व “अन्वेषण के समय” दोनों ही अभिव्यक्तियों में भेद है। अन्वेषण के दौरान से तात्पर्य है कि, अधिकारी के समक्ष अन्वेषण लंबित हैं। जिसमें बयानों का रिकॉर्ड किया जाना उसके द्वारा अन्वेषण के क्रम में आगे बढ़ने के लिए उठाया गया एक कदम है।

    इससे यह भी स्पष्ट है कि ऐसे कथन बिना किसी विलम्ब के रिकॉर्ड किए जाने चाहिए। यदि पुलिस अधिकारी द्वारा ऐसे विलम्ब का उचित स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता तो कोर्ट को इसकी वैधता पर विचार करना चाहिए। [हरबीर सिंह बनाम शीशपाल सिंह]

    महत्वपूर्ण है कि ऐसा बयान केवल और केवल पुलिस अधिकारी को ही दिया गया होना चाहिए। अन्य व्यक्ति को या पुलिस अधिकारी को सहायता प्रदान करने वाले व्यक्ति के समक्ष दिया है तो धारा 162 के अर्थों में प्रयुक्त प्रतिबंध उस पर लागू नहीं होगा।

    हमेशा यह धारणा रही है कि पुलिस द्वारा सदेव ही बयान सही और उचित साधनों द्वारा लिया जाए आवश्यक नहीं। यदि ऐसा होता तो, धारा 163 सीआरपीसी या धारा 24,25,26 भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1872(IEA) के अंतर्गत पुलिस अधिकारी या प्राधिकारवान व्यक्ति द्वारा कोई उत्प्रेरणा, धमकी या वचन का दिया जाना वर्जित नहीं किया जाता। इसके अतिरिक्त, अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए मामले पर पूर्ण विश्वास किया जाना भी उचित संकल्पना नहीं है।

    इसी करण इन बयानों का उपयोग खंडन करने में किया जा सकता है ना की उसके किसी तथ्य को संपोषित(corroboration) करने में। इसलिए विधि यह मानती है कि यह कथन सारवान साक्ष्य नहीं है। केवल और केवल इसके आधार पर मामले को तय नहीं किया जा सकता है, परंतु इसका विचारण में खंडन के लिए सीमित उपयोग किया जा सकेगा। [परंतुक 162(1)सीआरपीसी]

    इसके अलावा इसके कुछ ऐसी परिस्थितियां है जिनमें इस धारा का प्रतिबंध लागू नहीं होता है। यह अपवाद निम्नलिखित है-

    1. इसका एक संविधिक अपवाद सीआरपीसी की धारा 162(2) में मिलता है। उपयोगिता की दृष्टि से उपधारा(1) का प्रतिषेध मृत्यकालिक कथनों पर और बरामदगी वाले कथनों पर लागू नहीं होगा। (धारा 32(1) और धारा 27 भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1872)

    ऐसा इसलिए है क्योंकि, जब मृतक पुलिस अधिकारी को अपनी मृत्यु के संव्यवहार की परिस्तिथ्यों के विषय में बताता है तब उसका ऐसा बयान धारा 32(1)IEA के अनुसार साक्ष्य में प्रयुक्त किया जा सकता है। [कौशल राव बनाम बॉम्बे राज्य,AIR 1985SC 22]

    वही दूसरी तरफ धारा 27(IEA) में बरामदगी की कार्यवाही सत्य को उजागर करने और साक्ष्यों को एकत्रित करने में सहायक है और अन्वेषण प्रक्रिया में इसे नींव का पत्थर माना जाता है। इसलिए सारे प्रतिबंधों से इसे मुक्त रखा गया है। यदि कोई व्यक्ति या अभियुक्त पुलिस अभिरक्षा में कोई बयान पुलिस अधिकारी को देता है तब उसका उपयोग कोर्ट में एक साक्ष्य के रूप में किया जा सकता है।

    परंतु ऐसा बयान मामले से संबंधित विशेष व्यक्तिगत सूचना के विषय में होना चाहिए, संस्वीकृतियुक्त (confessional statements) बयानों का पर लागू नहीं होता। [मुकेश बनाम दिल्ली एनसीटी,AIR 2017sc2161, देवमान उपाध्याय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, AIR 1960Sc1125]

    2. धारा 162 के बयान दंडिक प्रक्रिया में प्रयुक्त नहीं किए जा सकते है, परंतु यदि किसी अन्य प्रकृति की कार्यवाही में ऐसा प्रतिबंध लागू नहीं होगा। इसी नियम को तय करते हुए पुनिया.P.D. संकोला बनाम बलवाद्रा (1985 cri.L.J. 159) के मामले निर्णीत किया गया की, धारा 162(1) की बाध्यता सिविल कार्यवाहियों पर, अनुच्छेद 32 या 226 की कार्यवाहियों पर लागू नहीं होती है।

    3. मामले का विचारण कर रहे न्यायायल पर यह प्रतिबंध लागू नहीं होता। क्योंकि धारा 165 IEA,1872 के अंतर्गत कोर्ट के पास मामले का उचित निर्णय करने की पूर्ण शक्ति है। इसलिए कोर्ट कैसा भी प्रश्न पूछ सकता है, चाहे उसकी प्रकृति संपुष्टि कारक हो या खंडन करने जैसी। धारा 311सीआरपीसी के उपबंधो के अनुसार किसी भी गवाह को बुला के उसका परीक्षण कर सकता है। [रघुनंदन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, AIR 1974SC]

    4. धारा 161 के कथन पुलिस डायरी का मुख्य अंग होते है। जिस पुलिस अधिकारी द्वारा उन्हें अन्वेषण के क्रम में रिकॉर्ड किया होता है वह विटनेस बॉक्स में परीक्षा के दौरान अपनी स्मृति ताजा करने के लिए धारा 159 IEA में बताए नियमानुसार प्रयुक्त कर सकता है।

    धारा 161 का उद्देश अपराध के संबंध में अभियोजन कथानक के विषय में साक्ष्य एकत्रित करना, मुख्य दोषियों को खोजना और इसके लिए साक्षियों की परीक्षा करना है। रही बात, इसके साक्षिक मूल्य की तो यह केवल गवाहों के बयानों के खण्डन के लिए प्रयुक्त किए जा सकेंगे, यदि विचारण के दौरान कोई बात पुलिस द्वारा लिखित कथनों से असंगत हो तो। जैसा कि हम जानते हैं; धारा 161 साक्षियों के साथ अभियुक्त व्यक्ति पर भी लागू होती है। इसलिए धारा 162 में वर्णित प्रतिबंध का कार्य अभियुक्तों को पुलिस अधिकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली द्वेषपूर्ण कार्यवाही से संरक्षित करना है और झूठे गवाहों से बचाना भी है।

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