श्रेया सिंघल जजमेंट के पांच सालः अब तक पूरी तरह से अमल में नहीं आ पाया फैसला

LiveLaw News Network

25 March 2020 4:06 PM IST

  • श्रेया सिंघल जजमेंट के पांच सालः अब तक पूरी तरह से अमल में नहीं आ पाया फैसला

    देवदत्ता मुखोपाध्याय व सिद्घार्थ देव

    सुप्रीम कोर्ट का 24 मार्च 2015 को श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में दिया गया फैसला भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के क्षेत्र में दिया गया महत्वपूर्ण फैसला है। यह पहला और इकलौता मौका था, जब केवल अभ‌िव्यक्ति को नियंत्रित करने वाले एक कानून असंवैधानिक करार दिया गया था।

    जैसा कि सेखरी और गुप्ता ने कहा है कि धारा 66 ए का प्रावधान ऐसा उत्तर संवैधानिक कानून था, जिसे पुलिस नियमित रूप से इस्तेमाल करती थी, वही इसे कई पूर्व-संवैधानिक कानूनों और धारा 377, आईपीसी (समलैंगिकता को अपराध करार देना), धारा 497, आईपीसी (व्यभिचार को अपराध करार देना) जैसे कम इस्तेमाल होने वाले कानूनों से अलग करती थी। इन्हें भी बाद में सुप्रीम कोर्ट ने समाप्त कर दिया था।

    इस ऐतिहासिक फैसले की पांचवीं वर्षगांठ पर, हम जांच करेंगे कि क्या यह फैसला अपने वादों के अनुरूप आचरण कर पाया और भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के कानूनों में व्यापक सुधार का प्रस्‍थान ‌बिंदु बन पाया।

    हालांकि शुरुआत करने से पहले , दोबारा समझ लेते है कि 24 मार्च 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था। इस मामले में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (आईटी अधिनियम) के तीन प्रमुख प्रावधानों को चुनौती दी गई थी। आलेखों की सीरीज का यह पहला आलेख है, इसमें मामले के सभी पहलुओं की जांच की गई है।

    विशेष रूप से, आईटी एक्ट की धारा 66 ए की चर्चा की गई है, जिसके जरिए ऑनलाइन अभिव्य‌ि‌क्ति को आपराधिक करार दिया गया। धारा 66 ए को असंवैधानिक करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दो सिद्धांत पेश किए थे, पहला- अस्पष्टता की स्थिति में शून्य का सिद्धांत और दूसरा सभी माध्यमों में भेदभाव की अनुमति।

    अस्पष्टता, अतिशय, और उत्तेजना का कारण

    अस्पष्टता की स्थिति में शून्य का सिद्धांत इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश बनाम बालदेव प्रसाद में गैर अ‌‌भिव्यक्ति के संदर्भ में लागू किया गया था, जहां अदालत ने गुंडा एक्ट के प्रावधानों को खत्म किया था, क्योंकि वे प्रावधान यह परिभाषित करने में विफल थे कि गुंडा कौन है? और एके रॉय बनाम भारत संघ मामले में लागू किया ‌था, जहां न्यायालय ने आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं को परिभाषित करने में विफल रहने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश के प्रावधानों को रद्द किया गया था।

    सुप्रीम कोर्ट ने केए अब्बास बनाम भारत संघ और करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में सिद्धांत की प्रासंगिकता एक भाषण संदर्भ में महत्व दिया ‌था, लेकिन इन मामलों में न्यायालय ने सिद्धांत का उल्लंघन करने के कारण असंवैधानिक मानते हुए किसी भी प्रावधान को खत्म नहीं किया।

    हालांकि, श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के मामले में न्यायमूर्ति नरीमन दलील को तार्किक निष्कर्ष तक ले गए और धारा 66 ए को यह कहते हुए रद्द कर दिया किया, यह इंटरनेट उपयोगकर्ताओं, कानून प्रवर्तन एजेंसियों और अदालतों के लिए स्पष्ट मानक तय करने में बहुत अस्पष्ठ है।

    विशेष रूप से, निर्णय अस्पष्टता सिद्धांत की स्‍थति में शून्य पर बनाता है और यह अतिशय सिद्धांत को अपनाता है, जो अमेरिका में अभिव्यक्‍ति की आजादी से संबंधित मामलों के जर‌िए विकसित हुआ है। सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संरक्षित अभिव्य‌क्ति अनजाने में असंरक्षित अभिव्यत्ति की श्रेणी में नहीं आए।

    श्रेया सिंघल मामले में, न्यायमूर्ति नरीमन ने विचार किया है कि प्रावधान के वाक्यांश कैसे उस तरीके से जुड़ते हैं, जिस तरीके से इन्हें लागू किया जाता था। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि प्रावधान के तहत संरक्षित और निर्दोष अभिव्यक्तियों को भी शामिल किया गया है, इसलिए कठोर प्रभाव रखता है। नतीजतन, धारा 66 ए को.. अतिशयता के आधार पर समाप्त किया गया।

    यह निर्णय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत संरक्षित अभिव्यक्ति व भाषण की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के लिए भी महत्वपूर्ण है।

    न्यायालय के अनुसार केवल उन भाषणों को प्रतिबंध‌ित माना जा सकता है, जिनका सार्वजनिक व्यवस्‍था के साथ आसन्न संबंध है या अनुच्छेद 19 (2) के तहत संरक्षित हितों से संबंध है। कोर्ट ने व्हिटनी बनाम कैलिफोर्निया मामले में जस्टिस ब्रैंडिस के प्रसिद्ध फैसले पर भी भरोसा किया है, जिसमें जस्टिस ब्रैंडिस ने कहा है कि किसी भाषण को गैरकानूनी तभी माना जा सकता है, जब उससे तत्काल हिंसा की गंभीर आशंका हो।

    हालांकि, भाटिया जैसे विद्वानों का सुझाव है कि यह बेहतर होता अगर न्यायमूर्ति नरीमन "आसन्न कानून विहीन कार्रवाई के लिए उकसावे" के मानक की तर्ज पर उकसावे को ब्रैंडेनबर्ग बनाम ओहियो के फैसले क आधार पर तय करते, बजाय कि पुराने पड़ चुके 'क्लियर एंड प्रेंजेंट डेंजर टेस्ट' के। इन सिद्धांतों को लागू करते हुए कोर्ट ने धारा 66 ए को गैरकानूनी पाया था क्योंकि यह जनता के साथ साझा किए गए संदेशों तक सीमित नहीं थी और यदि उस व्यक्ति पर भी लागू होती थी, जिसने उकसाने की ऐसी कोई गतिविधि नहीं की है,‌ जिससे सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा पैदा ‌हो।

    माध्यमों का भेदभाव

    राज्य का एक तर्क यह था कि इंटरनेट पर भाषण को प्रतिबंधित करने वाले कानूनों को न्यायिक समीक्षा के एक मानक के अधीन होना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि इसकी पहुंच, उपयोग में आसानी और अपेक्षाकृत अधिक अज्ञातता के कारण इंटरनेट एक खतरनाक माध्यम है। कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि यह ऐसे कानून पास करना संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है, जो कि इंटरनेट पर गैर-कानूनी सामग्री साझा करने पर अधिक कठोर तरीके से दंडित करते हों, अपेक्षाकृत यदि सामग्री ऑफ़लाइन तरीके से साझा की गई है। हालांकि, ऐसे कानून को अनुच्छेद 19 (2) के तहत का पालन करना चाहिए।

    न्यायालय द्वारा इस तरह का अवलोकन 2020 में भारतीय इंटरनेट उपयोकर्ताओं के लिए में विशेष महत्व रखता है। भारत की इंटरनेट आबादी में कई गुना वृद्धि हुई है और फिलहाल 650 मिलियन से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं। भारत में ऐसे उपभोक्ताओं की संख्या किसी भी अन्य देश से ज्यादा है,जो इंटरनेट पहली बार आए हैं और जो सोशल नेटवर्क से जुड़े हैं।

    असंवैधानिक कानून के बाद जीवन

    श्रेया सिंघल के फैसले की एक विरासत यह है कि यह असंवैधानिक कानूनों के जीवन चक्र के संदर्भ में बहुत कुछ सिखाती है। यह मामला हमें सिखाता है कि फैसले के वास्तविक प्रभाव को सुनिश्चित करने के लिए कार्यान्वयन और प्रवर्तन के संदर्भ में बहुत कुछ किया जाना है।

    उदाहरण के तौर पर, इंटरनेट फ़्रीडम फाउंडेशन द्वारा नवंबर 2018 में प्रकाशित एक वर्किंग पेपर के कहा गया है कि 2015 में धारा 66 ए के ख़त्म होने के बावजूद, इस प्रावधान के तहत पुलिस एफआईआर दर्ज कर रही है। ट्रायल कोर्ट और ‌हाईकोर्ट में भी यह धारा लागू की जा रही है।

    श्रेया सिंघल मामले की मूल याचिकाकर्ता पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज ने इसी संबंध में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दिसंबर 2018 में फैसले को लागू कराने के लिए एक आवेदन दायर किया था। न्यायालय ने भी इस बात से नाराजगी जताई थी कि धारा 66 ए के तहत इंटरनेट उपयोगकर्ताओं पर मुकदमा दर्ज किया जाना रुका नहीं है, हालांकि ऐसी गलतियों में लिप्त अधिकारियों पर उसने कोई जुर्माना नहीं लगाया थाऔर सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के उच्च न्यायालयों और मुख्य सचिवों को जजमेंट की प्रतियां दी थी।

    और उन्हें जिला अदालतों और पुलिस स्टेशनों उक्त आदेश से अवगत कराने का आदेश दिया गया था। हालांकि इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन को आरटीआई के माध्यम से पता चला है कि कुछ उच्च न्यायालयों को सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की सूचना अब तक नहीं मिली है। , और उन्होंने आरटीआई दायर किए जाने के बाद ही श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के फैसले को जिला अदालतों तक भेजा।

    धारा 66ए को रद्द किए जाने जैसे न्यायिक फैसले के प्रचार के लिए संचार साधनों का अभाव और अधिकारियों का ढीलाढाला रवैया भारत में रणनीतिक मुकदमेबाजी की सीमाओं की बानगी है। श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ जैसे मामलों में मिली न्यायिक जीत को जमीन पर वास्तविक परिणामों में बदलने के लिए, निरंतर निगरानी जरूरी है।

    ( यह लेख श्रेया सिंघल बनाम यून‌ियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पांच वर्षगांठ के अवसर पर प्रकाशित तीन आलेखों की श्रृंखला का पहला भाग है। भाग 2 में आईटी एक्ट के 69 ए के संबंध में कोर्ट के फैसले पर चर्चा की जाएगी।)

    ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

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