'फ्रेम्ड एज़ अ टेररिस्ट: माय फोर्टीन ईयर स्ट्रगल टू प्रूव माय इनोसेंस' : जेल में 14 साल तक किया संघर्ष
सुरभि करवा
24 Jan 2020 8:15 AM IST
"(जेल लाइब्रेरी) में जाकर मैं एक कुर्सी पर बैठा। मुझे कुर्सी पर बैठने जैसी साधारण सी बात से मेरी गरिमा और आत्म-सम्मान का एहसास हुआ, वह एहसास जो एक लम्बे वक़्त से गायब सा हो गया था। जेल से छूटने पर मैंने पहला काम चार कुर्सियां खरीदने का किया, ताकि मैं आत्म-सम्मान के साथ दूसरों से बात कर सकूँ........"
- किताब से
'फ्रेम्ड एज़ अ टेररिस्ट: माय फोर्टीन ईयर स्ट्रगल टू प्रूव माय इनोसेंस' मोहम्मद आमिर खान और मानवाधिकार कार्यकर्ता नंदिता हसकर द्वारा लिखी गयी एक अत्यंत संवेदनशील किताब है। यह किताब 2016 में छपकर आई, इसलिए शायद यह रिव्यू देरी से लिखा गया है।
इस किताब का कानून के विद्यार्थियों और कानून से जुड़े अन्य लोगों तक पहुंचना ज़रूरी है। यह किताब संघर्ष, सत्य और उम्मीद का एक व्यक्तिगत लेखा झोखा ही नहीं है बल्कि भारतीय क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम और न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर एक झकझोर देने वाली व्याख्या भी है।
फरवरी, 1998 की एक सर्द शाम को 19 वर्ष के मोहम्मद आमिर खान को पुलिस, पुरानी दिल्ली के एक मोहल्ले से उठा कर ले जाती है। उसके बाद जो होता है वह है प्रताड़ना, झूठे अभियोजन और अपनी निर्दोषी साबित करने की 14 वर्ष लम्बी लड़ाई। अवर्णनीय तरीकों से प्रताड़ित कर पुलिस, आमिर से लगभग 150 खाली पन्नों पर हस्ताक्षर करवाती है और आने वाले 15 सालों तक 15 से अधिक आतंकवाद सम्बन्धी मामलों में उन पर आधारहीन आरोप लगाती है।
आमिर और उनके परिवार को सीमित साधनों में कई मोर्चों पर न्याय के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है। अंतत: आमिर निर्दोष करार दये जाते हैं और उन्हें उनके संवैधानिक अधिकारों के हनन के लिए 5 लाख का मुआवज़ा दिया जाता है। यह किताब उसी संघर्ष की कहानी है।
जेल, समाज का प्रतिबिम्ब?
आमिर को उनके 14 साल के संघर्ष के दौरान कई अलग-अलग जेलों में रखा गया, जिनमें तिहाड़ जेल, दिल्ली और दसना जेल, ग़ज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश भी शामिल है। किताब जेल की मानविक और मनोवैज्ञानिक पक्ष की एक विस्तृत व्याख्या है। आमिर के अनुसार जेल, समाज का प्रतिबिम्ब है। समाज के पूर्वाग्रह, उसके भेदभाव जेलों में भी प्रतिरूपित होते हैं।
किताब मृत्यु दंड प्राप्त कैदियों, आतंकवाद में अभियोजित कैदियों, हाई सिक्योरिटी सेल में बंद कैदियों सभी की स्थितियों का वर्णन करती है।
जेल राज्य सूची का विषय है, हालांकि आज भी औपनिवेशिक जेल अधिनियम, 1894 भारतीय जेलों पर मुख्य अधिनियम है लेकिन अलग-अलग राज्यों के अलग अलग जेल मैनुअल हैं। अलग-अलग राजनैतिक माहौल हैं, इसलिए अलग-अलग राज्यों के जेलों की स्थिति भी अलग-अलग है।
किताब के वह भाग जहां आमिर अपने जेल अनुभवों को शेयर करते हैं, वहां अलग-अलग राज्यों के जेल में खाने की स्थिति से लेकर, मानवाधिकार लागू करने में दिखने वाले अंतर साफ़ नज़र आते हैं। उत्तर प्रदेश की जेल में उन्हें आगाह किया जाता है कि , यह दिल्ली नहीं है, यूपी है।
हम कानून के छात्रों के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आमिर की कहानी कैदियों के मानवाधिकारों से सम्बंधित उन सभी केस लॉ को एक मानवीय चेहरा देती है, जिनके बारे में हम लॉ स्कूल में पढ़ते हैं। सुनील बत्रा से लेकर हुसैन आरा खातून तक, ये सभी केस लॉ एक कैदी के जीवन में क्या मायने रखते हैं और उनको लागू करने में हम कहां असफल हुए हैं, यह आमिर की कहानी दर्शाती है।
पढ़ने लिखने का अधिकार, एकांत कारावास की मनाही, अखबार पढ़ने का अधिकार, कैदियों के आत्म-सम्मान के अधिकार- ये सभी अधिकार सुप्रीम कोर्ट 1980 के दशक से दोहराता आ रहा है, लेकिन भ्रष्टाचार, यौन शोषण, आदि कई बाधाओं के चलते इन अधिकारों की वास्तविकता क्या है?- आमिर के अनुभव हमें बताते हैं।
उत्पीड़न/यातना की तकनीकी?
पुलिस कस्टडी में यातना और उत्पीड़न हमारे सिस्टम का एक खुला राज़ है। टार्चर इस हद तक स्वीकार्य हो चूका है कि बिना टार्चर के पुलिस द्वारा जांच-पड़ताल करना संभव है, ऐसा बिलकुल असंभव माना जाता है। आमिर के टार्चर के अनुभव इसी स्वीकार्यता की व्याख्या है।
रोलर, लक्ष्मण झूला, इलेक्ट्रिक वायर, तेज रौशनी का प्रयोग, सिगरेट बट से जलाना, आंखों पर जबरन पट्टी बांधकर रखना - आदि वे तरीके हैं जो आमिर बताते हैं कि उन्हें शारीरिक और मानसिक तौर पर तोड़ने के लिए इस्तेमाल किये गए।
आमिर टार्चर की इन तकनीकों के अलावा, टार्चर के प्लान, शेड्यूल आदि के बारे में भी बताते हैं। वे लिखते हैं कि, "किसी ने किसी को बताया नहीं कि क्या करना है, ऐसा लगा जैसे उन्होंने सब पहले से प्लान कर लिया था।"।
आमिर के ये अनुभव स्पष्ट करते हैं कि टार्चर एक स्वीकार्य प्रैक्टिस है। आप टार्चर की परिष्कृत तकनीकों, उनके शेड्यूल आदि विकसित नहीं कर सकते यदि उसे सिस्टम में आम स्वीकार्यता प्राप्त न हो।
आधारहीन अभियोजन (रोंगफुल प्रॉसिक्यूशन) और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम-
न्याय पाने के लिए सोने के हाथ और लोहे के पैर होने चाहिए- आमिर क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के साथ अपने संघर्ष पर लिखते हैं कि सीमित संसाधनों वाले व्यक्ति के लिए न्याय पाना बेहद कठिन है। परिवार वालों को पुलिस द्वारा परेशान किया जाना, कोर्ट की भाषा और पेचीदा कानूनी प्रक्रियाओं को समझने में दिक्कतें, साधनों की कमी के चलते एक मुनासिब वकील पाने की परेशानियां, अपील कोर्ट की पहुंच से बाहर फीस, ये वो दिक्कतें हैं जो मुश्किल तबके के व्यक्ति के लिए न्याय को उसकी पहुंच से बाहर कर देती है।
आमिर का अनुभव आधारहीन अभियोजानों में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की हर एक मशीनरी की भूमिका और उनकी असफलताओं का रेखांकित करता है। वे मुख्य कारण जो ऐसे अभियोजनों के लिए जिम्मेदार हैं, वो आमिर की कहानी में निम्न कारकों के रूप में सामने आते हैं।
तफ्तीश के स्टेज पर लीगल ऐड का अभाव, गुणवक्तापूर्ण लीगल ऐड का अभाव, टार्चर द्वारा कन्फेशन रिकॉर्ड करना और उनकी आतंकी मामलों में कोर्ट में स्वीकारता, स्टॉक गवाहों का प्रयोग आदि।
सिस्टम के पूर्वाग्रह
यह किताब क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के हर स्तर पर कार्यरत पूर्वाग्रहों को प्रस्तुत करती है। कस्टडी के दौरान आमिर को उनकी मुस्लिम पहचान के तौर पर प्रोफाइल किया गया। जेल में साथ कैदियों द्वारा उन्हें 'देशद्रोही' कहते हुए टारगेट किया गया। आमिर 9/11 के हमले के बाद जेल प्रशासन से लेकर न्यायपालिका में उनकी ओर रवैये में आए बदलाव की भी बात करते हैं।
आमिर उन पूर्वाग्रहों के अनुभव भी बताते हैं जहां सिखों के प्रति सिस्टम एक अलग रवैया रखता था। कश्मीरी कैदियों के अनुभवों को भी उन्होंने इस सन्दर्भ में उल्लेखित किया है। आमिर के अनुभव हमारे इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे दर्शाते हैं कि पूर्वाग्रह कैसे फेयर ट्रायल के अधिकार को नुकसान पहुंचाते हैं।
मेरी नज़र में यह किताब इसलिए पढ़ी और समझी जानी चाहिए क्योंकि आमिर की कहानी हमारे सिस्टम की वर्किंग के मानवीय परिणामों को चिन्हित करती है। यह किताब हमें सजग करती है कि सिस्टम के पूर्वाग्रह, गलत अभियोजन और सीमित साधन कैसे एक व्यक्ति के जीवन को आमूलचूल रूप से प्रभावित कर सकते हैं और यह मात्र आमिर की कहानी नहीं है। अक्षरधाम बम ब्लास्ट केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला दर्शाता है कि आमिर की कहानी कई लोगों की कहानी है। ज़रूर पढ़िए।