हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार के धारा 498A में बदलाव करके इसे कंपाउंडेबल बनाने का प्रस्ताव वापस लेने पर उठाया सवाल

Shahadat

10 Dec 2025 9:59 AM IST

  • हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार के धारा 498A में बदलाव करके इसे कंपाउंडेबल बनाने का प्रस्ताव वापस लेने पर उठाया सवाल

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने मंगलवार को सवाल किया कि महाराष्ट्र सरकार इंडियन पैनल कोड (IPC) की धारा 498A में प्रस्तावित बदलाव को कैसे वापस ले सकती है, जिसे 2018 में राज्य विधानसभा ने पास करके इसे कंपाउंडेबल अपराध बनाने की सिफारिश की थी।

    जस्टिस मनीष पिटाले और जस्टिस मंजुषा देशपांडे की डिवीजन बेंच को बताया गया कि राज्य विधानसभा ने 2018 में IPC की धारा 498A में बदलाव का प्रस्ताव दिया, जिससे यह कंपाउंडेबल अपराध बन गया। हालांकि, हाल ही में राज्य सरकार ने वह प्रस्ताव वापस ले लिया।

    वह प्रस्ताव केंद्र सरकार के ज़रिए भारत के राष्ट्रपति की मंज़ूरी के लिए भेजा गया था। हालांकि, सरकार ने वह प्रस्ताव वापस ले लिया।

    इस पर ध्यान देते हुए जस्टिस पिटाले ने सवाल किया कि राज्य की एग्जीक्यूटिव, राज्य विधानसभा द्वारा लिए गए फैसले को कैसे वापस ले सकती है।

    जस्टिस पिटाले ने कहा,

    "यह बहुत गंभीर मामला है... और हमने सुना है कि एग्जीक्यूटिव ने प्रस्तावित अमेंडमेंट वापस ले लिया... एग्जीक्यूटिव इसे कैसे वापस ले सकता है जब लेजिस्लेचर ने वह अमेंडमेंट पास कर दिया है... शक्तियों का सेपरेशन नाम की कोई चीज़ होती है..."

    जज ने इस पूरी प्रक्रिया में केंद्र सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठाया।

    जज ने कहा,

    "यूनियन भी ऐसा नहीं कर सकता जैसे वह समझ नहीं पा रहा हो... वह एग्जीक्यूटिव को लेजिस्लेचर के फैसले को वापस लेने की इजाज़त नहीं दे सकता... लेकिन ऐसा लगता है कि (यूनियन की तरफ से) कुछ खास नहीं किया गया..."

    बेंच ने 16 दिसंबर तक सुनवाई टालते हुए कहा,

    "यह बहस का विषय है लेकिन इसका मंच यह कोर्ट नहीं बल्कि खुद लेजिस्लेचर है... यह बहुत गंभीर मामला है। हमें उम्मीद है कि अगली सुनवाई तक यूनियन और राज्य भी इस मुद्दे पर अपना रुख साफ करेंगे।"

    खास बात यह है कि हाईकोर्ट ने अक्टूबर, 2022 में यूनियन से जवाब मांगा था कि क्या धारा 498A के तहत अपराध को कंपाउंडेबल बनाया जा सकता है।

    जस्टिस रेवती मोहिते-डेरे की अगुवाई वाली बेंच ने उस समय अपने आदेश में कहा था,

    "हम ध्यान दें कि हर दिन, हमारे पास कम से कम 10 याचिका/आवेदन आती हैं, जिनमें धारा 498A को सहमति से रद्द करने की मांग की जाती है, क्योंकि 498A नॉन-कंपाउंडेबल अपराध है। संबंधित पार्टियों को वे जहां भी रहते हैं, वहां से, गांवों से भी, खुद कोर्ट के सामने आना पड़ता है, जिससे संबंधित पार्टियों को आने-जाने के खर्च, मुकदमेबाजी के खर्च और शहर में रहने के खर्च के अलावा बहुत मुश्किलें होती हैं। अगर पार्टियां काम कर रही हैं, तो उन्हें एक दिन की छुट्टी लेनी पड़ती है।"

    जस्टिस मोहिते-डेरे की बेंच उस समय मामले की सुनवाई कर रही थी, उन्होंने तब कहा कि आंध्र प्रदेश राज्य ने 2003 में ही धआरा 498A को कंपाउंडेबल बना दिया था। इसलिए उन्होंने एडिशनल सॉलिसिटर जनरल को जल्द-से-जल्द संबंधित मंत्रालय के सामने यह मुद्दा उठाने का आदेश दिया था। यह आदेश एक परिवार के तीन सदस्यों की याचिका पर दिया गया, जिन पर धारा 498A के तहत मामला दर्ज किया गया और उन्होंने इस कार्रवाई को रद्द करने की मांग की।

    बेंच ने तब कहा था कि तीनों याचिकाकर्ता तीन अलग-अलग और दूर-दराज के जिलों - पुणे, सतारा और नवी मुंबई में रहते थे और उन्हें सुनवाई में शामिल होने के लिए मुंबई तक का लंबा सफर तय करना पड़ा, क्योंकि उन्हें सुनवाई के लिए खुद मौजूद रहना था।

    बेंच ने शिकायत करने वाली महिला और उसके ससुराल वालों के बीच आपसी समझौते के आधार पर पुणे के हड़पसर पुलिस स्टेशन में एप्लीकेंट्स के खिलाफ दर्ज FIR रद्द की। इसने कहा कि महिला कुल ₹25 लाख एलिमनी में से ₹10 लाख देने के बाद FIR रद्द करवाने के लिए मान गई।

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