सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश पर पुनर्विचार किया, दोहराया- किशोर न्याय नियम, 2007 किशोरता के प्रश्न पर विचार करने के लिए प्रासंगिक नियम

Update: 2024-03-19 05:00 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2019 के फैसले पर पुनर्विचार किया, जिसमें किशोर के सवाल को पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट को भेजते हुए उसने राय दी कि जिन प्रासंगिक नियमों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, वे किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2001 हैं।

जस्टिस सीटी रविकुमार और जस्टिस राजेश बिंदल की खंडपीठ ने सहमति व्यक्त की कि स्पष्ट त्रुटि है और निर्णय लिया कि इसे ठीक किया जाना चाहिए, क्योंकि वादी को न्यायालय की त्रुटि के लिए पीड़ित नहीं किया जा सकता। ऐसा करते समय न्यायालय ने अपने 2019 के फैसले को सही किया, जिसके खिलाफ पुनर्विचार की मांग की गई और माना गया कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 पर गौर करना आवश्यक है।

खंडपीठ ने कहा,

"तथ्य से स्पष्ट त्रुटि को ध्यान में रखते हुए निर्णय में हुई गलती को इस कारण से ठीक किया जाना चाहिए कि किसी पक्ष को इस न्यायालय द्वारा की गई गलती या त्रुटि के लिए पीड़ित नहीं होना पड़ेगा। इसके लिए हमारे विचार में याचिकाकर्ता को अन्यत्र उपाय करने के लिए नहीं कहा जा सकता है।''

वर्तमान मामले में अपीलकर्ता/आरोपी व्यक्ति को हत्या के अपराध का दोषी ठहराया गया। अपनी सजा के खिलाफ अपीलकर्ता ने किशोरता का मुद्दा उठाया और दावा किया कि वह 18 साल का था। नतीजतन, मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने पहुंच गया।

इसमें अपीलकर्ता ने 2007 के नियमों के नियम 12 का हवाला दिया, जो उम्र निर्धारित करने की प्रक्रिया से संबंधित है। यह मांग की गई कि इस नियम के अनुसार, स्कूल से जन्मतिथि सर्टिफिकेट को निगम द्वारा दिए गए जन्म सर्टिफिकेट के मुकाबले प्राथमिकता दी जानी चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि स्कूल सर्टिफिकेट पर निर्भरता से अपीलकर्ता का मामला मजबूत हो जाता।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि 2007 के नियम लागू नहीं है, क्योंकि अपराध 2000 में हुआ, जब ये नियम लागू नहीं किए गए।

कोर्ट ने कहा,

“17. हमारा विचार है कि जिन प्रासंगिक नियमों पर ध्यान देने की आवश्यकता है, वे किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2001 हैं।''

गौरतलब है कि 2001 के नियमों के अनुसार, स्कूल से प्राप्त जन्म सर्टिफिकेट को ऐसी कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती।

इस फैसले पर पुनर्विचार करते समय न्यायालय ने मूर्ति बनाम कर्नाटक राज्य (2008) 7 एससीसी 517 के मामले पर अपनी निर्भरता रखी। इसमें, यह स्पष्ट रूप से माना गया कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000, और किशोर किशोर उम्र के प्रश्न पर विचार करते समय न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 लागू है।

इसके अलावा, हरि राम बनाम राजस्थान राज्य और अन्य, 2009 (13) एससीसी 211 के मामले में यह माना गया कि 2000 के अधिनियम द्वारा शुरू की गई किशोर आयु को 18 वर्ष तक बढ़ाने का लाभ लागू होगा।

इसे देखते हुए न्यायालय ने उपर्युक्त अनुच्छेद 17 की समीक्षा की और कहा:

"निर्णय के पैराग्राफ 17 के तहत उक्त आवश्यकता को किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 के तहत प्रासंगिक नियमों पर गौर करने की आवश्यकता के रूप में सही किया गया।"

केस टाइटल: गौरव कुमार @ मोनू बनाम हरियाणा राज्य में पुनर्विचार याचिका, डायरी नंबर, 38282, 2019

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