लोक अदालत अवार्ड के खिलाफ सिविल उपाय नहीं, केवल हाईकोर्ट में अनुच्छेद 227 के तहत याचिका ही रास्ता : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 (LSA Act) के तहत लोक अदालत द्वारा पारित किसी भी पुरस्कार (Award) को निष्पादन न्यायालय के माध्यम से न तो रद्द किया जा सकता है और न ही उसकी वैधता को सामान्य सिविल कार्यवाही में चुनौती दी जा सकती है। ऐसे अवार्ड के खिलाफ एकमात्र उपाय संविधान के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत हाईकोर्ट की सुपरवाइजरी (पर्यवेक्षी) अधिकारिता का सहारा लेना है।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए यह टिप्पणी की। हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की रिट याचिका इस आधार पर खारिज कर दी थी कि उन्होंने पहले ही निष्पादन न्यायालय में आदेश 21 नियम 101 सीपीसी के तहत आपत्तियां दाख़िल कर रखी हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की इस सोच को गलत और असंगत करार दिया। अदालत ने कहा कि लोक अदालत के पुरस्कार को कानून के तहत अंतिमता (statutory finality) प्राप्त होती है और उसे एक डिक्री की तरह लागू किया जाता है लेकिन उसकी वैधता को किसी सामान्य सिविल मुकदमे या अपीलीय प्रक्रिया से चुनौती नहीं दी जा सकती।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि निष्पादन न्यायालय की भूमिका केवल लोक अदालत के पुरस्कार को लागू करने तक सीमित है।
निष्पादन न्यायालय न तो उस अवार्ड को रद्द कर सकती है न ही उसकी शर्तों या उसके आधार बने समझौते की वैधता पर फैसला कर सकती है। इसलिए, निष्पादन कार्यवाही में उठाई गई आपत्तियों को प्रभावी वैकल्पिक उपाय मानकर हाईकोर्ट द्वारा रिट याचिका न सुनना विधिक योजना के विपरीत है।
पीठ ने साफ तौर पर कहा कि लोक अदालत के अवार्ड के खिलाफ कोई साधारण सिविल या अपीलीय उपाय उपलब्ध नहीं है। केवल संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत हाईकोर्ट की असाधारण और पर्यवेक्षी अधिकारिता का ही सहारा लिया जा सकता है।
इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने मामले को वापस हाईकोर्ट को भेजते हुए कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा लोक अदालत के 14 मई 2022 के डिक्री स्वरूप आदेश को चुनौती देने के लिए दायर रिट याचिका सुनवाई योग्य थी और हाईकोर्ट को इसे वैकल्पिक उपाय के नाम पर खारिज नहीं करना चाहिए था।