सार्वजनिक विश्वास से जुड़े धोखाधड़ी के मामले में समझौता आपराधिक दायित्व को समाप्त नहीं कर सकता: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि सार्वजनिक विश्वास से जुड़े धोखाधड़ी के मामलों में पक्षों के बीच समझौता आपराधिक दायित्व को समाप्त नहीं कर सकता। कोर्ट ने कहा कि ऐसे अपराध निजी विवादों के दायरे से परे होते हैं और सार्वजनिक संस्थाओं की अखंडता पर आघात करते हैं।
याचिकाकर्ता पर सरकारी नौकरी का वादा करके शिकायतकर्ता से 4.5 लाख की धोखाधड़ी करने का आरोप लगाया गया।
जस्टिस सुमीत गोयल ने अग्रिम ज़मानत खारिज करते हुए कहा,
"याचिकाकर्ता ने सोची-समझी और कपटपूर्ण तरीके से शिकायतकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों के साथ धोखाधड़ी की। कथित समझौता धोखाधड़ी के उन अपराधों में आपराधिक दायित्व को समाप्त नहीं कर सकता, जो सार्वजनिक विश्वास को प्रभावित करते हैं और केवल निजी प्रकृति के नहीं हैं। FIR दर्ज करने में देरी का उचित कारण है और यह अभियोजन पक्ष के मामले को कमजोर नहीं करता है।"
शिकायतकर्ता गुरविंदर सिंह और अमरजीत सिंह ने IPC की धारा 420 और 120-बी के तहत FIR दर्ज कराई थी। शिकायतकर्ताओं ने आरोप लगाया कि गुरप्रीत सिंह ने सह-आरोपी लखवीर सिंह के साथ मिलकर सरकारी नौकरी का वादा करके उनसे 4,50,000 की धोखाधड़ी की। शिकायतकर्ताओं ने आरोप लगाया कि पैसे लेने के बाद जिनमें से कुछ (1,40,000) सीधे गुरप्रीत सिंह के खाते में ट्रांसफर कर दिए गए, आरोपी अपना वादा पूरा करने में नाकाम रहे और कॉल का जवाब देना बंद कर दिया।
याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि आरोप निराधार हैं और याचिकाकर्ता की अपराध में कोई सीधी भूमिका नहीं है। सिवाय इसके कि एक अन्य सह-आरोपी ने उसके खाते से पैसे ट्रांसफर किए। आगे यह भी दलील दी गई कि 29 अगस्त, 2025 को शिकायतकर्ताओं के साथ समझौता हुआ था, जिसके तहत याचिकाकर्ता ने प्राप्त राशि वापस कर दी थी। याचिकाकर्ता ने इस आधार पर अग्रिम ज़मानत की मांग की कि वह एक गरीब मज़दूर है और उसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है इसलिए हिरासत में पूछताछ अनावश्यक है।
इस याचिका का विरोध करते हुए राज्य सरकार ने दलील दी कि परिस्थितियों में कोई ठोस बदलाव न होने के कारण यह तीसरी अग्रिम ज़मानत याचिका है, जो प्रक्रियात्मक रूप से अस्वीकार्य है। गुण-दोष के आधार पर राज्य सरकार ने तर्क दिया कि आरोपों में जानबूझकर धोखाधड़ी और छल शामिल है। याचिकाकर्ता के बैंक खाते का इस्तेमाल ठगी की गई राशि का एक हिस्सा प्राप्त करने के लिए किया गया और धन के स्रोत का पता लगाने और साज़िश की पूरी तह तक पहुँचने के लिए हिरासत में पूछताछ ज़रूरी है।
कोर्ट ने कहा कि लगातार ज़मानत याचिकाएं सुनवाई योग्य हैं। हालांकि उनके लिए परिस्थितियों में पर्याप्त बदलाव का प्रमाण ज़रूरी है जो इस मामले में नहीं था।
जज ने पाया कि FIR में धोखाधड़ी और साज़िश के विशिष्ट और गंभीर आरोपों का खुलासा हुआ। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता को ठगी की गई राशि का एक हिस्सा प्राप्त हुआ था। इस अपराध में सरकारी नौकरी दिलाने के बहाने निर्दोष लोगों को पैसे देने के लिए उकसाना शामिल था। यह ऐसा कृत्य है, जो सार्वजनिक भर्ती प्रक्रियाओं की ईमानदारी में जनता के विश्वास को कम करता है।
कोर्ट ने कहा,
"प्रयुक्त धोखे की प्रकृति न केवल पीड़ितों को आर्थिक नुकसान पहुंचाती है, बल्कि लोक प्रशासन की पवित्रता को भी कमज़ोर करती है, जिससे सार्वजनिक रोज़गार/भर्ती प्रक्रियाओं में निष्पक्षता और पारदर्शिता में विश्वास कम होता है।"
समझौते पर आधारित दलील खारिज करते हुए कोर्ट ने दोहराया,
"कथित समझौता धोखाधड़ी के उन अपराधों में आपराधिक दायित्व को समाप्त नहीं कर सकता, जो सार्वजनिक विश्वास को प्रभावित करते हैं और केवल निजी प्रकृति के नहीं हैं।"
कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि धोखाधड़ी और षड्यंत्र के अपराध अग्रिम ज़मानत के चरण में समझौता योग्य नहीं हैं। एक बार धोखाधड़ी प्रथम दृष्टया सिद्ध हो जाने पर धन की वापसी अपराध को समाप्त नहीं करती है।