संविधान विशेषाधिकार का चार्टर नहीं: प्रमोशन में आरक्षण के लिए वैधानिक संशोधन जरूरी, कार्यकारी आदेश पर्याप्त नहीं : पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट

Update: 2025-11-07 09:31 GMT

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि संविधान के अनुच्छेद 309 के तहत बनाए गए सक्षम वैधानिक नियम के अभाव में केवल कार्यकारी कार्रवाई या नीतिगत निर्णय के आधार पर पदोन्नति में आरक्षण लागू नहीं किया जा सकता।

जस्टिस संदीप मौदगिल की पीठ ने पाया कि हरियाणा स्वास्थ्य विभाग अधीनस्थ कार्यालय लिपिकीय स्टाफ (समूह-सी) सेवा नियम 1997 और समूह-बी सेवा नियम, 1982 में पदोन्नति में ऐसे आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। इसके बावजूद, विभाग ने आरक्षण का विस्तार करते हुए अनुसूचित जाति (SC) वर्ग से संबंधित कनिष्ठों को पदोन्नति का लाभ देकर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर कार्य किया।

न्यायालय ने कहा,

"वर्तमान मामले में प्रतिवादी-विभाग ने वैधानिक नियमों में बिना किसी संशोधन के न्यायिक निर्णय से प्रेरणा लेते हुए कार्यकारी कार्रवाई द्वारा पदोन्नति में आरक्षण शुरू करने की मांग की। ऐसा दृष्टिकोण सामाजिक न्याय और प्रशासनिक योग्यता के बीच संतुलन की उपेक्षा करता है जिसे संविधान निर्माताओं और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने बनाए रखने की मांग की।"

कोर्ट ने दोहराया कि सार्वजनिक सेवा में पदोन्नति केवल एक प्रक्रियात्मक उत्थान नहीं है बल्कि यह योग्यता, अनुभव और समर्पण की संस्थागत मान्यता का प्रतिनिधित्व करती है।

न्यायालय ने कहा कि जब लगातार अच्छा प्रदर्शन करने वाले कर्मचारियों को आरक्षण के नाम पर दी गई त्वरित पदोन्नति के कारण विस्थापित किया जाता है तो समावेशन और निष्पक्षता के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है।

न्यायालय ने टिप्पणी की कि संविधान विशेषाधिकार का चार्टर नहीं है बल्कि न्याय का ढाँचा है।

कोर्ट ने कहा,

"वंचित वर्गों की सुरक्षा एक स्थायी संवैधानिक जनादेश है। फिर भी इसे कानूनसंगत तरीकों से अपनाया जाना चाहिए, जो समानता और दक्षता के बड़े सिद्धांतों के अनुरूप हो।"

पीठ ने स्पष्ट किया,

"न्यायिक निकायों को संवैधानिक नैतिकता के संरक्षक के रूप में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एक वर्ग के उत्थान की तलाश में राज्य अनजाने में दूसरे वर्ग को अलग-थलग न करे। न्याय, न्यायसंगत होने के लिए सभी के प्रति निष्पक्ष रहना चाहिए।"

याचिकाकर्ताओं ने स्वास्थ्य विभाग में क्लर्क के रूप में सेवा शुरू की थी। बाद में असिस्टेंट के रूप में पदोन्नत हुए। 1997 के नियमों के तहत डिप्टी सुपरिटेंडेंट के पद पर पदोन्नति के लिए उनकी नाम वरिष्ठता सूची में शामिल थे।

21 सितंबर, 2010 को आयोजित पदोन्नति प्रक्रिया के दौरान कुछ जूनियर अधिकारियों को पदोन्नति में आरक्षण लागू करके अनुसूचित जाति श्रेणी के तहत पदोन्नत कर दिया गया।

31 मई, 2013 को सुपरिटेंडेंट के पद पर पदोन्नति के दौरान भी इसी पैटर्न को दोहराया गया। बार-बार अभ्यावेदन देने के बावजूद कि लागू नियमों में पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान नहीं है। याचिकाकर्ताओं को कोई राहत नहीं मिली, जिसके बाद उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि विभाग की कार्रवाई संविधान के अनुच्छेद 14 और 16(1) का उल्लंघन करती है और सेवा पदोन्नति को नियंत्रित करने वाले वैधानिक ढांचे के विपरीत है। उनका मुख्य तर्क यह था कि पदोन्नति में आरक्षण केवल वैधानिक संशोधन के माध्यम से ही शुरू किया जा सकता है न कि कार्यकारी आदेश से।

कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक और कानूनी ढांचे की विस्तृत जाँच की। इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के फैसले का जिक्र करते हुए कोर्ट ने दोहराया कि पदोन्नति में आरक्षण शुरू में अस्वीकार्य था और 77वें संवैधानिक संशोधन (1995) द्वारा अनुच्छेद 16(4ए) का समावेश केवल राज्य को आरक्षण प्रदान करने की सक्षम शक्ति प्रदान करता है न कि स्वचालित अधिकार। यह शक्ति भी अपर्याप्त प्रतिनिधित्व और पिछड़ेपन के मात्रा निर्धारित डेटा को इकट्ठा करने के बाद ही उपयोग की जा सकती है।

कोर्ट ने पाया कि वर्तमान मामले में 1997 या 1982 के सेवा नियमों में कोई संशोधन नहीं किया गया और मात्रा निर्धारित डेटा एकत्र करने के लिए कोई अभ्यास नहीं किया गया। इसलिए विभाग का न्यायिक घोषणाओं और नीतिगत निर्देशों पर निर्भर रहना कानूनी रूप से अस्थिर था।

कोर्ट ने कहा,

"न्यायिक घोषणाएँ व्याख्यात्मक उपकरण हैं, संशोधन के माध्यम नहीं। वे विधायी या वैधानिक कार्रवाई का स्थान नहीं लेते। शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत नियमों में वह पढ़ना मना करता है, जिसे सक्षम प्राधिकारी ने जानबूझकर छोड़ दिया।"

याचिका स्वीकार करते हुए कोर्ट ने माना कि सेवा नियमों में संशोधन किए बिना पदोन्नति में आरक्षण देने की विभाग की कार्रवाई अल्ट्रा वायर्स (अधिकार से परे) थी और संवैधानिक तथा वैधानिक योजना के विपरीत थी।

न्यायालय ने निर्देश दिया कि याचिकाकर्ताओं को डिप्टी सुपरिटेंडेंट (21.09.2010 से प्रभावी) और सुपरिटेंडेंट (31.05.2013 से प्रभावी) के पदों पर पिछली तारीख से पदोन्नति दी जाए। साथ ही वरिष्ठता, वेतन निर्धारण और बकाया सहित सभी परिणामी लाभ भी प्रदान किए जाएं।

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