S.36A(4) NDPS Act | सरकारी वकील जांच एजेंसी का हिस्सा नहीं, विस्तार मांगने के लिए उनसे विवेक का प्रयोग करने की उम्मीद: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने दोहराया

Update: 2024-04-23 09:38 GMT

पंजाब एंड हरियाणा हाइकोर्ट ने ऐसे आरोपी को डिफॉल्ट जमानत दे दी, जिसकी याचिका ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दी थी, जिसने मामले की जांच के लिए जांच एजेंसी को समय बढ़ा दिया।

न्यायालय ने पाया कि लोक अभियोजक (पीपी) ने मामले की जांच के लिए समय मांगने वाली स्वतंत्र रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की, जो एनडीपीएस अधिनियम (NDPS Act) की धारा 36ए (4) के तहत अनिवार्य प्रावधान है।

NDPS Act की धारा 36ए (4) के अनुसार वाणिज्यिक मात्रा से जुड़े किसी अपराध में यदि 180 की अवधि के भीतर जांच पूरी करना संभव नहीं है तो स्पेशल कोर्ट पीपी की रिपोर्ट पर उक्त अवधि को एक वर्ष तक बढ़ा सकता है, जिसमें जांच की प्रगति और आरोपी को 180 से अधिक हिरासत में रखने के विशिष्ट कारणों का संकेत दिया गया हो।

जस्टिस संदीप मौदगिल ने कहा,

"लोक अभियोजक राज्य सरकार का महत्वपूर्ण अधिकारी होता है और उसे दंड प्रक्रिया संहिता के तहत राज्य द्वारा नियुक्त किया जाता है। वह जांच एजेंसी का हिस्सा नहीं होता। वह स्वतंत्र वैधानिक प्राधिकरण होता है। लोक अभियोजक से अपेक्षा की जाती है कि वह जांच एजेंसी को जांच पूरी करने में सक्षम बनाने के उद्देश्य से समय विस्तार के लिए अदालत को रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले जांच एजेंसी के अनुरोध पर स्वतंत्र रूप से विचार करेगा।"

अदालत ने कहा कि समय विस्तार की मांग करने के लिए पीपी को जांच एजेंसी के अनुरोध पर स्वतंत्र रूप से विचार करने के बाद नामित अदालत को रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी, जिसमें जांच की प्रगति का संकेत हो और जांच एजेंसी को जांच पूरी करने में सक्षम बनाने के लिए आरोपी को आगे हिरासत में रखने का औचित्य प्रकट करना हो।

पीपी को अपने अनुरोध या आवेदन और रिपोर्ट के साथ जांच अधिकारी के अनुरोध को संलग्न करना होगा। उसमें यह प्रकट करना होगा कि उसने अपना विचार व्यक्त किया और जांच की प्रगति से संतुष्ट है तथा जांच पूरी करने के लिए और समय दिए जाने को आवश्यक मानता है।

न्यायालय प्रदीप कुमार द्वारा दायर पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें NDPS Act, 1985 की धारा 36-ए (4) के तहत चालान दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने के आवेदन को स्वीकार करने तथा याचिकाकर्ता द्वारा NDPS Act, 1985 की धारा 20 के तहत मांगी गई डिफ़ॉल्ट जमानत को अस्वीकार करने का आदेश रद्द करने की मांग की गई।

प्रस्तुतियां सुनने के बाद न्यायालय ने पाया कि एफआईआर 30 अगस्त, 2023 को दर्ज की गई तथा जांच एजेंसी के पास उपलब्ध 180 दिनों की अवधि समाप्त होने से पहले समय बढ़ाने के लिए आवेदन प्रस्तुत किया गया, जिसे एडिशनल सेशन जज, पलवल द्वारा 26 फरवरी, 2024 को जांच समाप्त करने के लिए 30 दिनों के अतिरिक्त विस्तार द्वारा स्वीकार किया गया।

जस्टिस मौदगिल ने बताया,

"यह स्वीकृत तथ्य है कि सरकारी अभियोजक की कोई रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि अनुमोदन का प्रश्न भी नहीं उठता, क्योंकि सरकारी अभियोजक द्वारा याचिकाकर्ता-आरोपी को 180 दिनों से अधिक हिरासत में रखने की मांग करने वाला कोई आवेदन स्वीकार नहीं किया गया।"

न्यायालय ने कहा,

"NDPS Act की धारा 36(ए)(4) जांच को शीघ्र पूरा करने तथा पुलिस की मर्जी के अनुसार अनावश्यक रूप से लंबी जांच के दौरान आरोपी को लगातार हिरासत में न रखने देने की विधायी मंशा के अनुरूप है।"

न्यायालय ने कहा कि आरोपित आदेश NDPS Act की धारा 36 ए (4) की अनिवार्य शर्तों को पूरा नहीं करता है तथा उचित रिपोर्ट के अभाव में निचली अदालत को याचिकाकर्ता को निर्धारित समय के भीतर चालान दाखिल करने में अभियोजन पक्ष की चूक के कारण जमानत पर रिहा होने के उसके अपूरणीय अधिकार से वंचित नहीं करना चाहिए।

न्यायालय ने कहा,

"इसके अलावा जांच पूरी करने के अलावा याचिकाकर्ता को निर्धारित अवधि तक हिरासत में रखने के लिए कोई विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए। तदनुसार, इस न्यायालय का विचार है कि सीआरपीसी की धारा 167 (2) के अनुसार, याचिकाकर्ता के पक्ष में अपूरणीय अधिकार अर्जित हो गया, जब पुलिस जांच पूरी करने में विफल रही और कानून के अनुसार उसके खिलाफ चालान पेश नहीं किया और सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत जमानत का उक्त अधिकार पूर्ण है, जो विधायी आदेश है और न्यायालय का विवेकाधिकार नहीं है।”

उपर्युक्त के आलोक में न्यायालय ने माना कि अभियुक्त के पास अपूरणीय अधिकार है, जो उसे तब भी प्राप्त होता है जब 180 दिनों की अवधि अंतिम तिथि को ट्रायल कोर्ट द्वारा बढ़ा दी जाती है, जिस दिन 180 दिनों की अवधि समाप्त हो गई। इसलिए वह सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत 'डिफ़ॉल्ट बेल' के लाभ का हकदार है।

केस टाइटल- प्रदीप कुमार बनाम हरियाणा राज्य

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