पुनः जांच का आदेश केवल हाईकोर्ट जैसी श्रेष्ठ अदालत ही दे सकती है, मजिस्ट्रेट नहीं : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट
पुनः जांच का आदेश केवल हाईकोर्ट जैसी श्रेष्ठ अदालत ही दे सकती है, मजिस्ट्रेट नहीं : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी मामले में पुनः जांच का आदेश केवल हाईकोर्ट जैसी श्रेष्ठ अदालत ही दे सकती है। मजिस्ट्रेट को ऐसा आदेश देने का अधिकार प्राप्त नहीं है।
जस्टिस जसजीत सिंह बेदी ने कहा,
“पुनः जांच के आदेश केवल हाईकोर्ट जैसी श्रेष्ठ अदालत ही पारित कर सकती है। मजिस्ट्रेट ऐसा आदेश नहीं दे सकता। वहीं फर्दर इन्वेस्टिगेशन जांच एजेंसी का अधिकार क्षेत्र है। हालांकि बेहतर यही है कि इसका पूर्व सूचना मजिस्ट्रेट को दी जाए, क्योंकि धारा 173(2) दंड प्रक्रिया संहिता के तहत प्राथमिक रिपोर्ट पहले ही दायर हो चुकी होती है।”
अदालत ने यह भी कहा कि यदि CrPC की धारा 173(2) व 173(8) के तहत कई रिपोर्ट्स दाखिल की गई हों तो केवल हाईकोर्ट ही किसी रिपोर्ट को आरोप तय करने की प्रक्रिया से बाहर करने का आदेश दे सकता है। यदि ऐसा न किया जाए तो ट्रायल कोर्ट सभी रिपोर्ट्स पर विचार करके या तो आरोप तय करेगा या आरोपी को बरी करेगा।
मामला संक्षेप में
याचिका FIR रद्द करने से जुड़ी थी, जो IPC की धारा 120-बी, 406, 420, 506 (बाद में 201 और 109 भी जोड़ी गईं) के तहत थाना एलेनाबाद, जिला सिरसा में दर्ज की गई थी। शिकायतकर्ता (याचिकाकर्ता) ने आरोप लगाया था कि छह अभियुक्तों ने राजनीति से जुड़े लोगों के नाम का हवाला देकर उसके बेटे को चंडीगढ़ पुलिस में ASI की नौकरी दिलाने का झांसा देकर लगभग 42 लाख ठग लिए। बाद में केवल 2 लाख लौटाए गए और शेष रकम लौटाने से इनकार कर शिकायतकर्ता को धमकाया गया।
इस बीच अभियुक्तों ने जमानत के लिए हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, जहां अदालत ने टिप्पणी की कि शिकायतकर्ता भी इस कथित घोटाले का हिस्सा है और उसे भी आरोपी बनाया जाना चाहिए। इसके बाद पुलिस अधीक्षक ने ट्रायल कोर्ट में पुनः जांच की अनुमति मांगी, जिसे खारिज कर दिया गया। अंततः एक पूरक रिपोर्ट दाखिल की गई, जिसमें शिकायतकर्ता को भी आरोपी बना दिया गया।
अदालत की टिप्पणियां
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि वह मूल रूप से शिकायतकर्ता था। बाद में उसे आरोपी बनाना अनुच्छेद 20(3) के खिलाफ है, क्योंकि जांच के दौरान उसने जो सामग्री दी थी, उसे अब उसके खिलाफ प्रयोग किया जा रहा है। यह आत्म-अभियोग की श्रेणी में आता है।
हाईकोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि फर्दर इन्वेस्टिगेशन किसी भी चरण पर हो सकती है, बशर्ते नए सबूत सामने आए हों। अदालत ने 1961 के स्टेट ऑफ बॉम्बे बनाम काठी कालू ओगाड फैसले का हवाला देते हुए कहा कि अनुच्छेद 20(3) का संरक्षण तभी मिलता है, जब व्यक्ति औपचारिक रूप से आरोपी के रूप में नामित हो।
अदालत ने नोट किया कि इस मामले में याचिकाकर्ता को औपचारिक रूप से आरोपी तभी बनाया गया, जब 06.03.2025 को पूरक चालान दाखिल किया गया। इसलिए उससे पहले दिए गए किसी भी बयान या सामग्री को आत्म-अभियोग नहीं माना जा सकता और वह अनुच्छेद 20(3) के संरक्षण का हकदार नहीं है।