आरोपी की नाबालिगता साबित करने के लिए FIR दर्ज होने के बाद तैयार किया गया बर्थ सर्टिफिकेट फर्जी साबित न होने पर ही वैध: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

Update: 2024-09-04 12:52 GMT

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि FIR दर्ज होने के बाद नाबालिगता साबित करने के लिए तैयार किया गया बर्थ सर्टिफिकेट तभी वैध है जब यह साबित न हो कि यह फर्जी है।

कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का उस आदेश खारिज किया, जिसमें उसने कहा कि बर्थ सर्टिफिकेट FIR दर्ज होने के बाद जारी किया गया, इसलिए यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 में दिए गए प्रासंगिक आचरण के दायरे में आएगा।

जस्टिस हरप्रीत सिंह बरार ने कहा,

"हालांकि सर्टिफिकेट FIR दर्ज होने के बाद तैयार किया गया लेकिन ऐसा कुछ भी रिकॉर्ड में नहीं लाया गया, जिससे यह पता चले कि इसकी सामग्री गढ़ी गई है या हेरफेर की गई।"

अदालत ने अश्विनी कुमार सक्सेना बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2012) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि जब तक दस्तावेजों या सर्टिफिकेट को गढ़ा या हेरफेर किया हुआ नहीं पाया जाता है तब तक न्यायालय या जेजे बोर्ड से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वह लगातार जांच करे और उनकी सत्यता की जांच करे। ऐसे में ट्रायल कोर्ट को याचिकाकर्ता को संदेह का लाभ देना चाहिए था।

अदालत हरियाणा के रोहतक में 2019 में एडिशनल सेशन जज-सह-विशेष न्यायाधीश द्वारा पारित किए गए विवादित आदेश के खिलाफ पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसके तहत बलात्कार और POCSO Act के मामले में याचिकाकर्ता द्वारा उसे किशोर घोषित करने के लिए दायर आवेदन खारिज कर दिया गया।

संक्षेप में तथ्य

मुकदमे के लंबित रहने के दौरान याचिकाकर्ता ने उत्तर प्रदेश के स्वार रामपुर में पंचायत राज विभाग के ADO द्वारा जारी बर्थ सर्टिफिकेट सहित विभिन्न दस्तावेजों के आधार पर उसे किशोर घोषित करने के लिए आवेदन दायर किया।

अदालत ने यह कहते हुए याचिका खारिज किया कि बर्थ सर्टिफिकेट FIR दर्ज होने के बाद तैयार किया गया इसलिए यह मुकदमे के निर्णय को प्रभावित कर सकता है।

याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि बर्थ सर्टिफिकेट सार्वजनिक रिकॉर्ड के अनुसार तैयार किया गया और सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा बनाए रखा गया। इस तरह याचिकाकर्ता ने सर्टिफिकेट की सामग्री को संभवतः गढ़ा नहीं हो सकता था या इसे जारी करवाने में अनुचित प्रभाव का इस्तेमाल नहीं किया हो सकता था।

वकील ने कहा,

"इसके अलावा याचिकाकर्ता की जन्म तिथि भी स्कूल सर्टिफिकेट से पुष्टि की गई, जो FIR दर्ज होने से बहुत पहले याचिकाकर्ता के पिता द्वारा प्रस्तुत हलफनामे के आधार पर तैयार किया गया।”

प्रस्तुतियों की जांच करने के बाद अदालत ने याचिकाकर्ता द्वारा दिए गए तर्क में सार पाया।

न्यायालय ने कहा कि इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि किशोरवय का निर्धारण अपराध की तिथि पर किया जाना चाहिए। 2000 के अधिनियम की धारा 7-A में यह प्रावधान है कि जब भी किसी न्यायालय के समक्ष किशोरवय होने का दावा किया जाता है तो न्यायालय जांच करेगा और ऐसे साक्ष्य लेगा जो आवश्यक हो।"

अश्वनी कुमार सक्सेना बनाम मध्य प्रदेश राज्य, (2012) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा किया गया, जहां यह माना गया,

“धारा 7- A न्यायालय को केवल जांच करने के लिए बाध्य करती है, जांच या ट्रायल नहीं, दंड प्रक्रिया संहिता के तहत नहीं बल्कि JJ Act के तहत जांच धारा 7 ए और नियम 12 में प्रयुक्त कुछ अभिव्यक्तियां काफी महत्वपूर्ण हैं। उन प्रावधानों के वास्तविक दायरे और विषय-वस्तु को समझने के लिए उनका संदर्भ आवश्यक है। धारा 7-ए में न्यायालय जांच करेगा आवश्यक साक्ष्य लेगा और हलफनामा नहीं जैसी अभिव्यक्तियों का प्रयोग किया गया।”

वर्तमान मामले में जज ने उल्लेख किया कि बर्थ सर्टिफिकेट जो कि जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम 1969 की धारा 12 और 17 और उत्तर प्रदेश जन्म और मृत्यु नियम 2003 के नियम 8 के तहत पंचायत राज विभाग द्वारा जारी किया गया, याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत किया गया, जिसमें उसकी जन्म तिथि 10.10.2001 दर्शाई गई।

न्यायालय ने कहा कि सर्टिफिकेट को अस्वीकार नहीं किया जाएगा, क्योंकि यह एफआईआर दर्ज होने के बाद तैयार किया गया, जब यह साबित नहीं हुआ कि यह फर्जी है।

जस्टिस बरार ने इस बात पर भी गौर किया कि याचिकाकर्ता के पिता ने 2010 में स्कूल में हलफनामे में यही जन्मतिथि बताई।

इसके परिणामस्वरूप न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता ने अपनी नाबालिगता को सफलतापूर्वक साबित कर दिया।

टाइटल- XXXX बनाम XXXX

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