राज्य के अधिकारी किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से बेदखल करके और फिर कोई मुआवज़ा न देकर 'गुंडों' की तरह काम नहीं कर सकते: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

Update: 2024-10-08 10:55 GMT

भूमि पर कब्जे से संबंधित मामले की सुनवाई करते हुए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा कि राज्य के अधिकारी गुंडों की तरह काम नहीं कर सकते और किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से बेदखल करके यह दावा नहीं कर सकते कि वे "अवैध रूप से बेदखल" व्यक्ति को कोई मुआवज़ा/किराया/मासिक लाभ नहीं देंगे।

ऐसा कहते हुए न्यायालय ने फिर से पुष्टि की कि किसी को भी उसकी संपत्ति के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, जो न केवल एक संवैधानिक अधिकार है, बल्कि मानवाधिकार भी है, यह देखते हुए कि वर्तमान मामले में महिला को उसकी स्वामित्व वाली भूमि से कथित रूप से बेदखल करने से संबंधित मामला 2007 से 17 वर्षों से लंबित था, जब अधिकारियों ने भूमि अधिग्रहण करने का निर्णय लिया था।

जस्टिस जी.एस. अहलूवालिया की एकल पीठ ने कहा,

"हालांकि किसी व्यक्ति को मुआवजा देने का अधिकार या राज्य का दायित्व, जो अपनी संपत्ति से वंचित है, भारत के संविधान के अनुच्छेद 300-ए के तहत स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया। यह अनुच्छेद में अंतर्निहित है। राज्य, जिसने सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए निजी संपत्ति अर्जित की है, यह नहीं कह सकता कि कोई मुआवजा नहीं दिया जाएगा। याचिकाकर्ता को उसकी निजी भूमि से अवैध रूप से बेदखल करने के लिए वैधानिक अधिकारी पर्याप्त मुआवजा देने के लिए बाध्य हैं।"

अदालत ने कहा,

"इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि किसी को भी उसकी संपत्ति के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, जो न केवल संवैधानिक है, बल्कि एक मानवाधिकार भी है। राज्य के अधिकारी गुंडों की तरह काम नहीं कर सकते हैं, जिससे किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से बेदखल किया जा सके। फिर यह दावा किया जा सके कि वे अवैध रूप से बेदखल किए गए व्यक्ति को कोई मुआवजा/किराया/मासिक लाभ नहीं देंगे, खासकर तब जब वे इस मामले को 17 साल तक दबाए बैठे रहे, यानी 3/7/2007 से, जब उन्होंने खुद फैसला किया कि जमीन का अधिग्रहण किया जाना चाहिए। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि राज्य के अधिकारी भूमि के कानून का सम्मान करने के लिए तैयार नहीं हैं और वे अपनी मर्जी के अनुसार काम कर रहे हैं।"

मामले की पृष्ठभूमि

कुछ भूमि के अधिग्रहण के लिए अधिसूचना जारी की गई, लेकिन याचिकाकर्ता शशि पांडे के स्वामित्व वाली भूमि को भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 6 के तहत जारी अधिसूचना में शामिल नहीं किया गया। अंततः मामला जिला न्यायालय में गया, जिसने 26 दिसंबर, 2001 को अपने निर्णय में कहा कि चूंकि पांडे की भूमि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 6 के तहत जारी अधिसूचना में शामिल नहीं थी, इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि याचिकाकर्ता की भूमि अधिग्रहित की गई। तदनुसार, इसने निर्देश दिया कि यदि भूमि स्वामी को बेदखल कर दिया गया तो कब्जा वापस दिलाया जाना चाहिए।

इसके बाद याचिकाकर्ता द्वारा रिट याचिका दायर की गई, जिसका निपटारा 21 अगस्त, 2006 के आदेश द्वारा किया गया, जिसमें कलेक्टर, जबलपुर को इस मुद्दे को उठाने और इस पर निर्णय लेने का निर्देश दिया गया कि राज्य सरकार भूमि अधिग्रहण करने के लिए इच्छुक है या नहीं। न्यायालय ने कहा कि यदि यह निर्णय लिया जाता है कि राज्य को भूमि की आवश्यकता नहीं है, तो राज्य विधि के अनुसार भूमि का कब्जा याचिकाकर्ता को लौटा देगा तथा याचिकाकर्ता अधिनियम की धारा 48 के अंतर्गत मुआवजा पाने का हकदार होगा।

यह भी माना गया कि यदि राज्य सरकार भूमि को अपने पास रखना चाहती है तो कलेक्टर मामले को आगे बढ़ाएगा तथा भूमि अधिग्रहण के लिए आवश्यक सभी कदम उठाएगा तथा याचिकाकर्ता अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार मुआवजा पाने का हकदार होगा। इसके बाद कलेक्टर, जबलपुर ने 3 जुलाई, 2007 को अपने आदेश में कहा कि चूंकि भूमि का कब्जा पहले ही ले लिया गया है तथा उसे NHAI को सौंप दिया गया है तथा बाईपास का निर्माण भी पूरा हो चुका है। इसलिए भूमि वापस करना जनहित में नहीं होगा। भूमि अधिग्रहण के लिए आवश्यक कार्रवाई करने का निर्देश भी दिया गया।

कलेक्टर, जबलपुर द्वारा पारित इस आदेश का भी उनके उत्तराधिकारी द्वारा पालन नहीं किया गया। 17 वर्ष बीत जाने के बावजूद भी न तो भूमि का कब्जा याचिकाकर्ता को वापस किया गया तथा न ही भूमि का अधिग्रहण किया गया। वर्तमान याचिका 2016 से लंबित थी। यहां NHAI ने स्पष्ट रुख अपनाया कि यह मामला 2010 में अस्तित्व में आया और संबंधित भूमि की आवश्यकता नहीं है।

क्या याचिकाकर्ता को कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना उसकी संपत्ति से वंचित किया जा सकता है?

पहले मुद्दे को संबोधित करते हुए न्यायालय ने तुकाराम काना जोशी बनाम एमआईडीसी, (2013) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा किया, जिसमें यह देखा गया,

“संपत्ति के अधिकार को अब न केवल संवैधानिक या वैधानिक अधिकार माना जाता है, बल्कि यह एक मानवाधिकार भी है। हालांकि, यह संविधान की मूल विशेषता या मौलिक अधिकार नहीं है। मानवाधिकारों को व्यक्तिगत अधिकारों के दायरे में माना जाता है, जैसे स्वास्थ्य का अधिकार, आजीविका का अधिकार, आश्रय और रोजगार का अधिकार, आदि। हालांकि, अब मानवाधिकार और भी अधिक बहुआयामी आयाम प्राप्त कर रहे हैं। संपत्ति के अधिकार को ऐसे नए आयाम का एक हिस्सा माना जाता है।”

सुप्रीम कोर्ट ने कहा,

“अनुच्छेद 300-ए केवल राज्य की शक्तियों को सीमित करता है कि किसी भी व्यक्ति को कानून के अधिकार के बिना उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा। कानून की उचित मंजूरी के बिना कोई वंचित नहीं किया जा सकता। किसी अन्य तरीके से वंचित करना अनुच्छेद 300-ए के तहत अधिग्रहण या कब्ज़ा करना नहीं है। दूसरे शब्दों में, यदि कोई कानून नहीं है तो कोई वंचना नहीं है।"

इसके बाद जस्टिस अहलूवालिया ने कहा कि यह स्पष्ट है कि संपत्ति रखने का अधिकार न केवल भारत के संविधान के अनुच्छेद 300-ए के तहत संवैधानिक अधिकार है, बल्कि यह "मानव अधिकार भी है। कानून के अनुसार ही किसी को उसकी संपत्ति से वंचित किया जा सकता है।"

क्या याचिकाकर्ता को उसके अवैध कब्जे के लिए मुआवजा मिलना चाहिए?

न्यायालय ने कहा कि चूंकि राज्य सरकार ने भूमि वापस नहीं करने का निर्णय लिया, इसलिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 48 के तहत याचिकाकर्ता को मुआवजा नहीं मिलेगा। हालांकि धारा 48 के "सादृश्य" का उल्लेख करते हुए और इस तथ्य के मद्देनजर कि संपत्ति रखने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 300-ए के तहत एक संवैधानिक अधिकार है, न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता अवैध कब्जे की तिथि से लेकर भूमि के वास्तव में अधिग्रहित या वापस किए जाने तक किराया/मासिक लाभ/मुआवजा पाने का हकदार है।

इस मुद्दे के संबंध में न्यायालय ने हरि कृष्ण मंदिर ट्रस्ट बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2020) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा किया, जिसमें यह देखा गया,

“कानून के अधिकार के अलावा, बेदखली के मामले में मालिक सरकार के खिलाफ परमादेश की कार्यवाही करके कब्जे की बहाली प्राप्त कर सकता है। भले ही मुआवजे का दावा करने का अधिकार या किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित करने के लिए राज्य का मुआवजा देने का दायित्व संविधान के अनुच्छेद 300-ए में स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया, लेकिन यह अनुच्छेद में अंतर्निहित है। सार्वजनिक उद्देश्य के लिए निजी संपत्ति का अधिग्रहण करने की मांग करने वाला राज्य यह नहीं कह सकता कि कोई मुआवजा नहीं दिया जाएगा। वैधानिक अधिकारी पर्याप्त मुआवजा देने के लिए बाध्य हैं।”

हाईकोर्ट के आदेश में राज्य के साथ-साथ कलेक्टर, जबलपुर की ओर से पेश हुए वकील द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्क को भी नोट किया गया है, जिन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता किसी भी मुआवजे का हकदार नहीं है। यदि अदालत मुआवजा देने के लिए इच्छुक है तो कलेक्टर को राज्य से निर्देश लेना होगा।

हाईकोर्ट ने इस दलील पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा,

"कलेक्टर, जबलपुर द्वारा की गई उपरोक्त दलीलें हरि कृष्ण मंदिर ट्रस्ट (सुप्रा) के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित निर्णय के आलोक में चौंकाने वाली हैं। इसके अलावा, यह मामला पिछले 8 वर्षों से लंबित है और अधिकारी अपनी मेज से फाइल को प्रतिवादी नंबर 3 की मेज पर स्थानांतरित करने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं। यह एक बार फिर स्पष्ट किया जाता है कि एनएचएआई ने विशेष रूप से दावा किया है कि उन्हें विवादित भूमि की आवश्यकता नहीं है।"

इस प्रकार, यह माना गया कि वैधानिक अधिकारी याचिकाकर्ता को उसकी निजी भूमि से अवैध रूप से बेदखल करने के लिए पर्याप्त मुआवजा देने के लिए बाध्य हैं।

न्यायालय ने आगे कहा,

"यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह याचिका वर्ष 2016 से लंबित है। पिछले 8 वर्षों से कलेक्टर, जबलपुर द्वारा अपने पूर्ववर्ती द्वारा पारित दिनांक 3/7/2007 के आदेश के अनुपालन के साथ-साथ सिविल कोर्ट तथा हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेशों के अनुपालन के लिए कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की गई। इस प्रकार कलेक्टर, जबलपुर की मंशा स्पष्ट है तथा वे हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेश का पालन करने के लिए इच्छुक नहीं हैं।"

न्यायालय ने यह भी कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मामला पिछले आठ वर्षों से लंबित है, जहां कलेक्टर द्वारा अपने पूर्ववर्ती द्वारा पारित आदेश के साथ-साथ सिविल कोर्ट तथा हाईकोर्ट के आदेशों का अनुपालन करने के लिए कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की गई। न्यायालय ने कहा कि कलेक्टर की मंशा स्पष्ट है तथा वे न्यायालय के आदेशों का पालन करने के लिए इच्छुक नहीं हैं।

कलेक्टर जबलपुर का आचरण

हाईकोर्ट ने कलेक्टर के आचरण की भी निंदा की, जिसमें उन्होंने "मामले को दबाए रखा और याचिकाकर्ता के बहुमूल्य मानवाधिकारों के साथ-साथ संवैधानिक अधिकारों का हनन किया।"

इसने उल्लेख किया कि 3 जुलाई, 2007 को तत्कालीन कलेक्टर ने आदेश पारित किया, जिसका वास्तव में "कभी पालन नहीं किया जाना था। यह केवल कागजी औपचारिकता साबित हुई।" 2016 में वर्तमान याचिका दायर किए जाने के बाद कलेक्टर, जबलपुर, जो मामले की पृष्ठभूमि से अच्छी तरह वाकिफ थे, उन्होंने भूमि अधिग्रहण के लिए कोई कदम नहीं उठाया।

इसने यह भी उल्लेख किया कि जब न्यायालय ने अपने 24 सितंबर के आदेश (इस वर्ष पारित) में इस पहलू की ओर इशारा किया तो कलेक्टर ने संबंधित एसडीएम को साधारण हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया, जिसमें बताया गया हो कि अधिग्रहण के लिए कोई कार्यवाही शुरू किए बिना भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा।

इसके बाद न्यायालय ने कहा,

"इन परिस्थितियों में यह न्यायालय इस विचार पर है कि यह दीपक सक्सेना, कलेक्टर, जबलपुर के खिलाफ अवमानना ​​कार्यवाही शुरू करने के लिए उपयुक्त मामला है। तदनुसार, दीपक सक्सेना, कलेक्टर, जबलपुर को कारण बताओ नोटिस जारी किया जाता है कि इस न्यायालय द्वारा रिट याचिका नंबर 380/2005 में 21/8/2006 को पारित आदेशों का उल्लंघन करने के लिए उनके विरुद्ध अवमानना ​​की कार्यवाही क्यों न प्रारंभ की जाए। कार्यालय को एक अलग मामला दर्ज करने का निर्देश दिया जाता है।

इसके बाद न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह याचिकाकर्ता को 5 फरवरी, 1988 से उसकी 29150 वर्ग फीट भूमि से अवैध रूप से बेदखल करने के लिए प्रति माह 10,000/- रुपये का मुआवजा दे, जब तक कि भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता के अधिकार अधिनियम, 2013 के तहत भूमि का विधिवत अधिग्रहण नहीं हो जाता।

केस टाइटल: शशि पांडे बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य, रिट याचिका संख्या 5793/2016

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