कानून पार्लियामेंट द्वारा बनाया जाता है। इसे सामान्य बोध में विधायिका द्वारा कानून निर्माण कहा जाता है। लेकिन कानून केवल वही नहीं होता जो विधायिका द्वारा बना दिया जाए अपितु उसमे नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का भी दखल होता है। यह वैश्विक अवधारणा है कि कोई भी कानून इस प्रकार नहीं बनाया जाएगा कि उसमे नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का अभाव हो।
न्याय प्रशासन में प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का महत्वपूर्ण स्थान है। न्याय की सार्थकता प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों पर ही निर्भर करती है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों की उपेक्षा करते हुए किया गया न्याय निर्णयन अर्थहीन होता है। इस आलेख में नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों पर चर्चा की जा रही है।
हिन्दुस्तान डिटरजेन्ट कॉरपोरेशन बनाम वेस्ट बंगाल स्मॉल इण्स्ट्रीज डेवलपमेन्ट कारपोरेशन के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि सरकार एवं उसके तंत्र को अपनी कार्यवाहियों में प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन अवश्य करना चाहिए। न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर के शब्दों में प्राकृतिक न्याय एक विचारशील सर्वव्यापिता है। इसका सार शुद्ध अन्तःकरण है।
केशव मिल्स बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया के मामले में नैसर्गिक न्याय से अभिप्राय शक्ति के उचित, निष्पक्ष एवं युक्तियुक्त प्रयोग से लिया गया है।
मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि- प्राकृतिक न्याय मानवतावादी सिद्धान्त है। जिसका आशय विधि में निष्पक्षता स्थापित करना है।
प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त प्राकृतिक न्याय के मुख्य दो सिद्धान्त है-
(i) दोनों पक्षों को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाना, तथा
(ii) किसी व्यक्ति का अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं होना अर्थात् न्यायाधीश का कार्य नहीं करना।
सुनवाई का अवसर
नैसर्गिक न्याय (प्राकृतिक न्याय) का यह एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है एक लैटिन सूत्र है Audi alteram partem अर्थात दूसरे पक्ष को भी सुनो।
प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त की यह अपेक्षा है कि विवाद के सभी पक्षों को सुनवाई का समुचित प्रदान करते हुए न्यायनिर्णयन किया जाना चाहिये। कोई भी पक्ष सुने बिना नहीं रह जाये, यही इस सूत्र का सार है।
नवाब खाँ बनाम स्टेट ऑफ गुजरात के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सुनवाई का अवसर प्रदान किये बिना दिया गया न्याय अकृत होता है। ऐसे न्याय का कोई अर्थ नहीं होता।
यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम टी. आर. वर्मा के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रत्येक पक्ष को सब सुसंगत साक्ष्य, जिस पर वह निर्भर करता है, प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिये और उसे साक्षियों की प्रति परीक्षा करने का अवसर भी दिया जाना चाहिये।
किसी एक पक्ष को सुनकर किया गया न्याय एक पक्षीय न्याय होता है जिसका कोई महत्व नहीं होता और जिसे अपास्त भी किया जा सकता है।
प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त राज्य सरकार पर भी लागू होता है। राज्य सरकार भी इस सिद्धान्त से विमुख नहीं हो सकती। इस सिद्धान्त का जितना महत्व सिविल मामलों में है, उतना ही महत्व 'आपराधिक मामलों' (Criminal Cases) में भी है। आपराधिक मामलों का विचारण भी एक तरफा नहीं होना चाहिये।
अभियोजन पक्ष के साथ-साथ अभियुक्त को भी सुनवाई का समुचित अवसर मिलना चाहिये।
आपराधिक मामलों में तो व्यवस्था यहाँ तक है कि यदि अभियुक्त निर्धन है और उसके पास अपनी प्रतिरक्षा हेतु अधिवक्ता की नियुक्ति के लिए पर्याप्त साधन नहीं है तो उसे राज्य के व्यय पर अधिवक्ता की सेवायें उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि वह अपनी प्रतिरक्षा भली भाँति कर सके। यही सुनवाई का अधिकार है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 304 तथा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 में इस सम्बन्ध में आवश्यक प्रावधान किये गये हैं। दिलावर सिंह बनाम स्टेट ऑफ दिल्ली के मामले में आपराधिक विचारण में अभियुक्त की ओर से पैरवी (प्रतिरक्षा) करने वाला कोई अधिवक्ता नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने ऐसे अभियुक्त के लिए न्याय मित्र की नियुक्ति किये जाने की अनुसंशा की है।
इसी प्रकार मोहम्मद हुसैन उर्फ जुल्फिकार बनाम स्टेट के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि गंभीर आरोपों में अभियुक्त को अधिवक्ता की सेवायें उपलब्ध कराये बिना मृत्यु दण्ड से दण्डित किया जाना संवैधानिक उपबन्धों का उल्लंघन है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि आपराधिक मामलों में भी अभियुक्त अवसर प्रदान किया जाना चाहिये।
अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं होना
प्राकृतिक न्याय का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त- अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं होना अर्थात् किसी भी व्यक्ति को अपने ही मामले में अथवा ऐसे मामले में जिसमें उसका हित निहित हो न्यायनिर्णयन का कार्य नहीं करना चाहिये।
इसका सीधा सा कारण यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपने ही मामले की सुनवाई करेगा तो उसका झुकाव सदैव अपनी तरफ रहेगा और वह निष्पक्ष न्याय नहीं कर पायेगा।
इसे पक्षपात के विरुद्ध नियम भी कहा गया है। यह नियम भी यही कहता है कि कोई भी व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता।
मेट्रोपोलिटन प्रोपटीज कंपनी लिमिटेड बनाम लेनन के मामले में यह कहा गया है कि विश्वास न्याय की नींव है। यदि पक्षकार का विश्वास टूट जाता है तो न्याय व्यर्थ एवं विफल लगने लगता है। इसीलिये यह धारणा बनी है कि न्याय केवल किया जाना ही पर्याप्त नहीं है अपितु यह दिखना भी चाहिये कि न्याय किया गया है।
इसे झुकाव का नियम भी कहा गया है, जिसे सदैव टाले जाने की अपेक्षा की गई है कुछ अन्य मामलों में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि - किसी व्यक्ति अथवा न्यायाधीश को अपने ही द्वारा दिये गये निर्णय के विरुद्ध अपील की सुनवाई नहीं करनी चाहिये। नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए जिससे अभियुक्त एवं परिवादी दोनों के साथ न्याय हो सके।