अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :8 अधिनियम के अंतर्गत विशेष न्यायालय क्या है (धारा-14)
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989) के अंतर्गत अधिनियम से संबंधित अपराध धारा 3 में उल्लेखित किए गए हैं उनके विचारण के लिए विशेष न्यायालय की व्यवस्था इस अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत दी गई है। इस आलेख के अंतर्गत विशेष न्यायालय पर न्याय निर्णय सहित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
विशेष न्यायालय:-
जैसा कि इस अधिनियम को अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति पर होने वाले अत्याचारों के निवारण के उद्देश्य से बनाया गया है। इस अधिनियम में वे सभी व्यवस्थाएं अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को उपलब्ध कराने के प्रयास किए गए हैं जिन के अभाव में इन जातियों के लोगों को संपूर्ण न्याय प्राप्त नहीं हो पाता है। किसी मामले का विचारण किसी विशेष न्यायालय द्वारा किया जाता है तब विचारण में न्यायालय को सुविधा रहती है तथा न्यायालय के समक्ष कार्यभार भी कम होता है।
भारतीय न्यायालय की सबसे दुखद स्थिति यह है कि वहां मुकदमों की अधिकता है तथा न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या कम है। इस कारण पक्षकारों और पीड़ित व्यक्तियों को समय पर न्याय उपलब्ध नहीं हो पाता है।
किसी भी अधिनियम को संसद द्वारा बना दिया जाना एक अलग विषय है। यदि संसद किसी अधिनियम को बनाती है तो उसके पीछे उसका कोई लक्ष्य होता है। कोई उद्देश्य होता है जो जनता के जनहित से संबंधित होता है परंतु संसद का केवल अधिनियम बना देना ही समस्या का निराकरण नहीं होता है। संसद केवल अपने दायित्व को पूरा करती है वह जनहित में अधिनियम का निर्माण कर देती है परंतु इस अधिनियम में लक्षित उद्देश्य तब ही प्राप्त हो सकते हैं जब उस अधिनियम को संपूर्ण रुप से लागू किया जाए।
अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अधिनियम भी समाज में एक उद्देश्य से बनाया गया है। इन जातियों के सदस्यों पर अनंत काल से लोगों द्वारा अत्याचार किए जाने के दृश्य सामने आते रहे है। समाज के इन लोगों को ऊपर उठाने के उद्देश्य से तथा उन पर होने वाले अत्याचारों को समाप्त करने के उद्देश्य से इस अधिनियम को निर्मित किया गया है।
इस अधिनियम के उद्देश्य तभी प्राप्त हो सकते हैं जब इसे संपूर्ण रूप से लागू किया जा सके। अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्य अत्यंत दीन हीन होते हैं उन्हें न्यायालय तक लाना भी अत्यंत दूभर कार्य होता है। फिर न्यायालय में देरी भी एक प्रकार से न्याय के रास्ते में रोड़ा है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु ही इस अधिनियम के अंतर्गत विशेष न्यायालय की स्थापना की गई है।
संसद द्वारा प्रस्तुत किए गए अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 14 के अनुसार विशेष न्यायालय को इस रूप में प्रस्तुत किया गया है यहां इस आलेख में धारा को प्रस्तुत किया जा रहा है-
[विशेष न्यायालय और अनन्य विशेष न्यायालय-
(1) शीघ्र विचारण का उपबन्ध करने के प्रयोजन के लिए राज्य सरकार उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति की सहमति से, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, एक या अधिक जिलों के लिए एक अनन्य विशेष न्यायालय स्थापित करेगी :
परन्तु ऐसे जिलों में जहाँ अधिनियम के अधीन कम मामले अभिलिखित किये गये हैं, वहाँ राज्य सरकार, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति की सहमति से, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, ऐसे जिलों के लिए सेशन न्यायालयों को, इस अधिनियम के अधीन अपराधों का विचारण करने के लिए विशेष न्यायालय होना विनिर्दिष्ट करेगी : परन्तु यह और कि इस प्रकार स्थापित या विनिर्दिष्ट न्यायालयों को इस अधिनियम के अधीन अपराधों का सीधे संज्ञान लेने की शक्ति होगी।
(2) राज्य सरकार का, यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त संख्या में न्यायालयों की स्थापना करने का कर्तव्य होगा कि इस अधिनियम के अधीन मामले, यथासम्भव, दो मास की अवधि के भीतर निपटाए गये हैं।
(3) विशेष न्यायालय या अनन्य विशेष न्यायालय में प्रत्येक विचारण में कार्यवाहियाँ, दिन-प्रतिदिन के लिए जारी रहेंगी, जब तक कि उपस्थित सभी साक्षियों की परीक्षा न हो जाये, जब तक कि विशेष न्यायालय या अनन्य विशेष न्यायालय, अभिलिखित होने वाले कारणों से उसको आगामी दिन से परे स्थगन करना आवश्यक नहीं पाता हो :
परन्तु जब विचारण, इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध से सम्बन्धित है, तब विचारण, यथासम्भव, आरोप-पत्र को फाइल करने की तारीख से दो मास की अवधि के भीतर पूरा किया जायेगा।]
इस धारा के अंतर्गत तीन उपधाराओं को शामिल किया गया है। धारा 14 की उपधारा 1 के अनुसार धारा 14 के अंतर्गत विशेष न्यायालय की स्थापना का उद्देश्य इस अधिनियम के अंतर्गत होने वाले अपराधों के संबंध में पीड़ित को जल्दी न्याय प्रदान किया जा सके।
किसी भी एक या एक से अधिक जिले के लिए राज्य सरकार विशेष न्यायालय की स्थापना कर सकती है जैसे कि कुछ जिले छोटे होते हैं तथा कुछ जिले बड़े होते हैं। दो से अधिक जिले मिलाकर भी एक विशेष न्यायालय की स्थापना की जा सकती है। इस धारा के अंतर्गत उपबंध दिया गया है कि विशेष न्यायालय किसी भी मामले को सीधे संज्ञान में ले सकते हैं।
कोई भी प्रकरण सर्वप्रथम संबंधित पुलिस थाने के क्षेत्राधिकार में प्रस्तुत किया जाता है जो कि प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट की कोर्ट होती है परंतु इस स्थिति में प्रकरण सीधे विशेष न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है जो कि सत्र न्यायाधीश की कोर्ट होती है।
इस धारा से यह स्पष्ट है कि एक विशेष न्यायालय एक जिला एवं सत्र न्यायालय होता है जिसका पीठासीन अधिकारी जिला एवं सत्र न्यायाधीश या अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश होता है अर्थात विशेष न्यायालयों में मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट पीठासीन अधिकारी नहीं होते हैं अपितु न्यायाधीश रैंक के अधिकारी विशेष न्यायालय के पीठासीन अधिकारी होता है तथा उनके द्वारा मामले का सीधा संज्ञान लिया जा सकता है।
इस धारा की उपधारा 2 भी महत्वपूर्ण प्रावधान प्रस्तुत करती है जिसके अनुसार इस अधिनियम के अंतर्गत होने वाले अपराधों को 2 माह के भीतर निपटाने का प्रावधान किया गया है। हालांकि यह बात व्यवहारिक रूप से ठीक नहीं है और अब तक वास्तविकता के धरातल पर प्रस्तुत हो भी नहीं पायी है। क्योंकि न्यायालय में किसी भी प्रकरण में अनेक चरण होते हैं और न्यायाधीश को अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए किसी प्रकरण में अपना निर्णय प्रस्तुत करना होता है तथा पक्षकारों के मध्य न्याय देना होता है। यह अत्यंत तकनीकी कार्य है फिर भी यह अधिनियम इस धारा के अंतर्गत शीघ्र न्याय की ओर निर्देश प्रस्तुत करता है। 2 माह के भीतर प्रकरणों को निपटाने का निर्देश इस धारा के अंतर्गत विशेष न्यायालय को दिया गया है।
अधिनियम की धारा 14, सपठित धारा 2 (घ) यह स्पष्ट करती है कि विशेष न्यायालय को सत्र न्यायाधीश के द्वारा संभाला जाना है। अधिनियम की धारा 2 (घ) विशेष न्यायालय को धारा 14 में विशेष न्यायालयों के रूप में विनिर्दिष्ट सत्र न्यायालय के रूप में परिभाषित करती है।
प्रत्येक सत्र न्यायालय विशेष न्यायालय नहीं होता है परन्तु प्रत्येक विशेष न्यायालय राज्य सरकार के द्वारा जारी की गयी अधिसूचना के कारण सत्र न्यायालय होगा। अग्रेतर अधिनियम की धारा 14 में यह सष्ट रूप से प्रावधान किया गया है कि विशेष न्यायालय मामलों के त्वरित निस्तारण के प्रयोजन के लिए गठित किये जाते हैं।
इसलिए संसद का आशय बहुत स्पष्ट है कि यह सुपुर्दगी प्रक्रिया से अभिमुक्ति देना चाहती है। विशेष न्यायालय को ऐसी शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं, जिसका उपभोग सत्र न्यायालय नहीं करता है।
इसमें कोई विवाद नहीं है कि न्याय न केवल किया जाना चाहिए वरन् अभिव्यक्त रूप में तथा निःसंदेह किया जाना दिखना चाहिए। हमारी संवैधानिक परम्परा में इसका अभाव है कि हम अपनी दाण्डिक न्याय प्रणाली के अधीन केवल प्रतिकूल सांविधिक आशय के स्पष्ट अभिव्यक्तकरण के अधीन ऐसे निर्णयों को, जो अधिकारों, हितों तथा विधिमान्य प्रत्याशाओं को प्रभावित करते हैं प्रदान करने में प्रक्रियात्मक निष्पक्षता के अनुसार सारवान निष्पक्षता के साथ ही साथ प्रक्रियात्मक निष्पक्षता दोनों को आत्मसात किये हुए हैं।
प्रतिकर पर विधि:-
न्यायालय पोड़ित व्यक्ति के प्रतिकर के दृष्टिकोण पर विचार करना संगत तथा उचित समझता है। राज्य सरकार ने संहिता की धारा 357 (क) के अधीन पीड़ित प्रतिकर सा बनाया है, जिससे कि पीडित व्यक्ति, जो निकाय के विरुद्ध अपराध के कारण हानि अथवा क्षति किया है, को प्रतिकर प्रदान किया जा सके। पीडित प्रतिकर योजना को पीड़ित व्यक्तियों/उनके आश्रितों के पुनर्वासन के परोपकारी उद्देश्य से शामिल किया गया है।
विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति:-
मंगली प्रसाद बनाम अपर सत्र न्यायाधीश के मामले में यह कहा गया है कि अवर न्यायालय को अधिनियम की धारा 2 (घ) के अर्थान्तर्गत विशेष न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया है, परन्तु जब तक मजिस्ट्रेट के द्वारा उसके समक्ष अभियुक्त को भेजा न गया हो, तब तक वह अधिनियम की धार 14 अधीन अपराध का कोई संज्ञान नहीं ले सकता है और वह अपनी शक्ति के प्रयोग में अथवा मजिस्ट्रेट की तरह अपराध का संज्ञान लेने में अथवा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अधीन परिवाद याचिका सम्बद्ध पुलिस थाना में भेजने के लिए मजिस्ट्रेट के रूप में भी कार्य नहीं कर सकता है, सत्र न्यायाधीश का आदेश बिना अधिकारिता के था और अभिखण्डित किया गया।
विशेष न्यायाधीश की शक्तियाँ- एक मामले में, अवर न्यायालय को अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 2 (घ) के अर्थान्तर्गत विशेष न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था, परन्तु जब तक मजिस्ट्रेट के द्वारा अभियुक्त को उसके समक्ष भेजा न गया हो तब तक वह इस अधिनियम की धारा 14 के अधीन अपराध का संज्ञान नहीं ले सकता है और वह अपनी शक्ति के प्रयोग में अथवा मजिस्ट्रेट की तरह अपराध का संज्ञान लेने में या धारा 156 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के अधीन परिवाद याचिका को सम्बद्ध पुलिस थाना में भेजने के लिए भी मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य नहीं कर सकता है।
इस वाद में उस पर विधि के अनुसार कार्यवाही करने के निर्देश के साथ अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष परिवाद याचिका भेजने का विकल्प छोड़ा गया था तथा इसके पश्चात जब उसे मामला पुनः वापस भेजा जायेगा, तब उसे मामले का विचारण करना था, क्योंकि उसे अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 2 (घ) के अर्थान्तर्गत न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था और इसके पश्चात् अवर न्यायालय विचारण पर अग्रगर हो सकता है।
विशेष न्यायाधीश की अधिकारिता:-
हनुमान सिंह बनाम यूनियन आफ इंडिया, 1997 क्रि० लॉ ज० 1054 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि विशेष न्यायाधीश की अधिकारिता, जिसने वर्तमान मामले में अपील को सुना और निस्तारित किया था, विधि के किसी प्रावधान द्वरा अथवा राज्य सरकार/उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये किसी विनिर्दिष्ट अथवा सामान्य आदेश द्वारा अपवर्जित नहीं की गयी थी।
चूँकि सत्र न्यायाधीश, जिसके समक्ष अपील की गयी थी, सत्र खण्ड, अजमेर के भीतर इस प्रकार कार्य करने वाले अपर सत्र न्यायाधीश को ऐसी अपील को सुनने तथा निस्तारित करने के लिए सौपने हेतु विधिक रूप से सक्षम था और अधिनियम की धारा 14 के प्रयोजनों के लिए सत्र न्यायाधीश के रूप में भी विनिर्दिष्ट किया गया था, इसलिए उसके द्वारा विशेष न्यायाधीश, अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति मामले, जो ऐसी अपील को सुनने तथा निर्णीत करने के लिए सक्षम था, को अपील का स्थानान्तरण करना अविधिमान्य नहीं है।
विशेष न्यायाधीश द्वारा संज्ञान:-
जहाँ अधिनियम के अधीन अपराध के लिए न्यायालय के समक्ष आरोप पत्र दाखिल किया गया था. यह अभिनिर्धारित किया गया कि विशेष व्यायाधीश सम्बद्ध मजिस्ट्रेट से मामले को सुपुर्दगी के बिना सीधे आरोप पत्र ले करके अपराध का संज्ञान नहीं ले सकता है।