कोर्ट कमिश्नर क्या होता है और इसकी नियुक्ति के सम्बन्ध में क्या कानून है?
सिविल कोर्ट ने दाखिल मुकदमों के निस्तारण के लिए न्यायालय को विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखना होता है। किन्तु कुछ ऐसे विषय होते है जिन्हें दस्तावेजों से समाज पाना अथवा दस्तावेजों के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना मुश्किल होता है।
उदहारण के लिए जब पक्षकारों के मध्य विवाद आने-जाने वाले रास्ते के लिए हो और वादी का कहना को कि आवागमन के लिए सिर्फ एक ही रास्ता है और वो भी प्रतिवादी द्वारा रोक लिया गया है, तो ऐसी स्थिति में सिर्फ साक्ष्य/सबूतों के आधार पर न्यायालय किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकता है।
चूँकि इस तरह की भौतिक स्थिति को न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया जा सकता और ना ही न्यायालय उस खास भौतिक स्थिति तक जाकर कोई निष्कर्ष दे सकता है। एक कमीशन मूल रूप से न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को न्यायालय की ओर से कार्य करने के लिए दिए गए निर्देश या भूमिकाएं हैं और इसके पीछे का विचार उन कार्यों का निष्पादन है जिससे न्यायालय को पूर्ण न्याय देने में मदद मिले। कमीशन का संचालन करने वाले ऐसे व्यक्ति को "कोर्ट-कमिश्नर" के रूप में जाना जाता है।
कोर्ट कमिश्नर की नियुक्ति कब एवं किस स्थिति में की जाती है?
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 75 में कमीशन नियुक्त करने की शक्ति प्रदत्त की गयी है एवं आदेश 26 में इसकी प्रक्रिया विस्तार से वर्णित है। कमीशन जारी करने की अदालत की शक्ति विवेकाधीन है और अदालत द्वारा पार्टियों के बीच पूर्ण न्याय करने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है। इसका प्रयोग न्यायालय द्वारा या तो वाद के पक्षकार के आवेदन पर या स्वप्रेरणा से किया जा सकता है।
धारा 75 निन्मलिखित परिस्थितियों में कमीशन जारी करने का आदेश दे सकता है:
(1) किसी व्यक्ति की परीक्षा/बयान दर्ज करने के लिए,
(2) स्थानीय अन्वेषण/जांच करने के लिए,
(3) लेखा/खातों की परीक्षा/जांच एवं उनके समायोजन के लिए,
(4) बंटवारा करने के लिए,
(5) ऐसा अन्वेषण जिसमे वैज्ञानिक, तकनीकी या विशेषज्ञ की आवश्यकता हो,
(6) ऐसी कोई सम्पति जो शीघ्र एवं प्रकृत्या क्षयशील (जल्दी ख़राब हो जाने वाली) हो एवं वाद के निस्तारण तक न्यायालय की अभिरक्षा में, को बेचने के लिए,
(7) कोई अनुसचिवीय कार्य करने के लिए
समय-समय पर उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों ने कमीशन जारी कर कमिश्नर नियुक्ति के सम्बन्ध में इससे सम्बंधित व्याख्या की है। उदहारण के लिए, कोर्ट-कमिश्नर की नियुक्ति किस पड़ाव पर होनी चाहिए, इस सम्बन्ध में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने सरला जैन बनाम संगु गंगाधर, C.R.P.No. 5837/2015, के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित किये गए फैसले मोहम्मद मेहताब खान बनाम खुशनुमा इब्राहीम खान, (2013) 9 SCC 221, का हवाला देते हुआ बताया कि कि विवादित संपत्ति के सीमांकन के उद्देश्य से ट्रायल कोर्ट द्वारा एडवोकेट-कमिश्नर की नियुक्ति करना और प्रतिवादी की संपत्ति के लिए सीमा पत्थर तय करना प्री-ट्रायल डिक्री देने के बराबर है क्योंकि ऐसा करना मूल दावे में की गयी प्रार्थना का हिस्सा है।
ऐसे मामले में, उक्त उद्देश्य के लिए कमिश्नर की नियुक्ति नहीं की जा सकती है। इसके अलावा, इस मामले में यह माना गया कि एक एडवोकेट-कमिश्नर की नियुक्ति के लिए, न्यायालय को निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना होगा:
(1) दोनों पक्षों की कुल दलीलें;
(2) वाद में दावा की गई राहत;
(3) अंतरिम चरण में एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए एडवोकेट-कमिश्नर की नियुक्ति प्री-ट्रायल डिक्री प्रदान करने के लिए नहीं होगी; तथा
(4) पक्षों के बीच वास्तविक विवाद को तय करने के लिए एडवोकेट-आयुक्त की नियुक्ति की आवश्यकता।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने आई. सी. कारपोरेशन बनाम देवू निगम, [AIR 1990 Bom 152], के मामले में न्यायालय के कमीशन सम्बन्धी शक्तियों पर विस्तृत चर्चा करते हुए निर्धारित किया कि भारत से बाहर निवासी गवाह की जांच के लिए कमीशन जारी करने का प्रश्न हमेशा आसान नहीं होता है।
न्याय के हित, नागरिक प्रक्रिया संहिता द्वारा निर्मित न्यायालय की शक्ति, विवेक के प्रयोग को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत और कई जटिल कारकों को अंतिम निर्णय में प्रवेश करना चाहिए। फिर भी उन सिद्धांतों के साथ शुरू करने के लिए जो नागरिक प्रक्रिया संहिता की योजना के विश्लेषण से निकलते हैं, उन्हें निर्णय का प्राथमिक आधार बनाना चाहिए।
इसलिए, आयोगों के मुद्दे के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता की योजना का एक संक्षिप्त विश्लेषण महत्वपूर्ण है। किसी भी व्यक्ति की जांच करने या स्थानीय निरीक्षण, खातों की जांच, विभाजन करने आदि जैसे अन्य कार्य करने के लिए आयोग जारी किए जाते हैं।
एक गवाह की परीक्षा के लिए एक आयोग जारी किया जा सकता है "किसी भी न्यायालय (उच्च न्यायालय नहीं) को राज्य के अलावा अन्य राज्य में स्थित है जिसमें न्यायालय स्थित है"। लेकिन जिस न्यायालय को कमीशन जारी किया जाता है, उसे "उस स्थान पर अधिकार क्षेत्र रखने वाला न्यायालय होना चाहिए जिसमें जांच की जाने वाली व्यक्ति रहता है"।
एक "राज्य" और "जिस स्थान पर गवाह रहता है, उसके अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय" का संदर्भ विधायी मंशा के स्पष्ट संकेत हैं कि धारा 76 (1) केवल तभी लागू होती है जब एक गवाह की जांच की जाती है जो भारत के भीतर रहता है।
यदि ऐसा नहीं होता, तो शब्द "राज्य के अलावा एक राज्य जिसमें न्यायालय स्थित है" और ऐसे न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का संदर्भ बेमानी होगा। यह विधियों की व्याख्या का एक स्थापित नियम है कि किसी भी शब्द का ऐसा अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि वह निरर्थक हो जाए।
भारत के भीतर गवाहों की जांच के लिए आयोग जारी करने के न्यायालय के अधिकार को परिभाषित करने के बाद, नागरिक प्रक्रिया संहिता यह निर्धारित करने के लिए आगे बढ़ती है कि अगर आयोग पर जांच की जाने वाली गवाह "भारत के भीतर नहीं" किसी भी स्थान पर रहती है तो क्या किया जाना चाहिए।
धारा 77 भारत के बाहर रहने वाले एक गवाह की जांच के लिए कमीशन जारी करने से संबंधित एक विशेष प्रावधान है। धारा 76(1) के विपरीत, धारा 77 भारत में न्यायालय को "भारत के भीतर नहीं किसी भी स्थान पर रहने वाले गवाह की जांच करने के लिए अनुरोध पत्र" जारी करने का अधिकार देती है।
अनुरोध पत्र "एक कमीशन जारी करने के बदले" जारी किया जा सकता है। यहाँ "के बदले" का अर्थ के बजाय है। इसलिए, यह स्पष्ट करता है कि एक गवाह के भारत के भीतर नहीं रहने वाले स्थान पर रहने के मामले में, न्यायालय कमीशन जारी नहीं कर सकता है, अनुरोध पत्र जारी कर सकता है।
पदम सेन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, AIR 1961 SC 218, के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की बेंच ने माना है कि अदालत के पास वादी के कब्जे में से खाता बही को जब्त करने के लिए एक एडवोकेट-कमिश्नर नियुक्त करने के लिए धारा 151 के तहत कोई अंतर्निहित शक्ति नहीं है। प्रतिवादी द्वारा आवेदन कि उसे आशंका है कि उनके साथ छेड़छाड़ की जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि कोर्ट एडवोकेट-कमिश्नर की नियुक्ति करके उन्हें जबरन जब्त नहीं कर सकता है, लेकिन वह उन्हें समन कर सकता है और अगर पेश नहीं किया जाता है, तो वह पक्षकार को दंडित कर सकता है और उसके खिलाफ प्रतिकूल अनुमान भी लगा सकता है।
यदि दस्तावेज जाली हैं और जबकि वादी के कब्जे में हो तो प्रतिवादी जालसाजी साबित कर सकता है और प्रविष्टियों पर विवाद कर सकता है। सुप्रीम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि किसी एक पक्ष के पक्ष में साक्ष्य एकत्र करना न्यायालय का कार्य नहीं है।
हरियाणा वक्फ़ बोर्ड बनाम शांति स्वरुप एवं अन्य, [(2008) SCC 671], के मामले सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि उन मामलों में जिनमे विवादित जमीन की सीमा निर्धारण आवश्यक हो, उसमे यह उचित होगा कि न्यायालय आदेश 26 नियंम 9 सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत स्थानीय अन्वेषण के निर्देश जारी कर उनकी नियुक्ति करे।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने जम्मी वेंकट कृष्ण राव और अन्य बनाम जम्मी वेंकट हनुमा रवींद्रनाथ, [2015 (5) ALT 14], के मामले में निर्धारित किया कि कमिश्नर द्वारा संपत्ति की भौतिक विशेषताओं को नोट करना न्यायालय को संपत्ति की पहचान के संबंध में उचित निर्णय लेने में सक्षम बनाता है।
इस उद्देश्य के लिए कमिश्नर की नियुक्ति का मतलब सबूत इकट्ठा करना नहीं है, खासकर जब वादी यह तर्क दे रहे हैं कि प्रतिवादी भौतिक विशेषताओं को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं, उक्त कमिश्नर द्वारा नोट किया गया है, यह न्यायालय को भौतिक पहचान को समझने में सक्षम बनाता है। मुकदमे की तारीख और उसके बाद के किसी भी विलोपन को अदालत द्वारा मुकदमे के दौरान आसानी से जाना जा सकता है।
झारखण्ड उच्च न्यायालय जादू महतो बनाम झारखंड राज्य, [2018 SCC OnLine Jhar 1351] के मामले में आयुक्त की नियुक्ति के लिए याचिकाकर्ताओं के आवेदन को खारिज करने की अपील पर सुनवाई करते हुए विचार व्यक्त किया कि याचिकाकर्ता द्वारा निचली अदालत में मालिकाना हक और कब्जे की घोषणा के लिए मुकदमा दायर किया गया था क्योंकि सर्कल अधिकारी ने याचिकाकर्ता को नोटिस जारी किया था, जिसमें उसे 3 डेसीमल भूमि पर अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया गया था।
याचिकाकर्ता को उसके घर से बेदखल कर दिया गया और प्रतिवादी अधिकारियों द्वारा मुख्य द्वार को सील कर दिया गया। इन सभी तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए वास्तविक सच्चाई को समझाने के लिए एक एडवोकेट-कमिश्नर नियुक्त करना आवश्यक था। उच्च न्यायालय ने माना कि निचली अदालत ने याचिकाकर्ताओं के आवेदन को खारिज करने में गलती की थी।
सीपीसी का आदेश 39 नियम 7 किसी भी संपत्ति के निरीक्षण के लिए प्रदान करता है जो मुकदमे की विषय वस्तु है और इस उद्देश्य के लिए न्यायालय किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य पार्टी के कब्जे में किसी भी भूमि या भवन में प्रवेश करने के लिए अधिकृत कर सकता है। आदेश 26 नियम 9 में यह भी प्रावधान है कि विवाद में किसी भी मामले को स्पष्ट करने के लिए यदि न्यायालय स्थानीय जांच को आवश्यक समझता है तो वह एक कमीशन नियुक्त कर सकता है और रिपोर्ट मांग सकता है।
CPC के आदेश 26 नियम 10 में यह प्रक्रिया निर्धारित की गई है जिसका नियम 9 के तहत नियुक्त कमिश्नर को पालन करना होगा। सीपीसी के तहत दी गई इस प्रक्रिया का उपयोग किया जाएगा जहां निरीक्षण एक तथ्यात्मक विवाद का न्यायसंगत और निष्पक्ष तरीके से निर्णय लेने के लिए अभिन्न हो जाता है। कोर्ट ने आगे कहा कि यह एडवोकेट-कमिश्नर की नियुक्ति के लिए एक उपयुक्त मामला था और इसलिए ट्रायल जज के आदेश को रद्द कर दिया गया था।
संवैधानिक न्यायालयों के कोर्ट-कमिश्नर की नियुक्ति के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट ने बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ, (1984) 3 SCC 161, के मामले में यह साफ़ किया कि सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए किसी भी प्रयोजन के लिए कमीशन नियुक्त कर सकते है।
सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि संविधान के अनुच्छेद 32 का प्रयोग कर कमीशन की नियुक्ति सीपीसी के अंतर्गत नियुक्त कमीशन से अलग है। आगे यह कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट अपने अधिकार-क्षेत्र का प्रयोग करते हुए मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की जांच के लिए आयोग की नियुक्ति कर सकता है।
राधेश्याम रस्तोगी बनाम आशीष कुमार , [(2008) 10 SCC 225] के मामले में जब बेदखली का आदेश पारित किया गया और स्वतंत्र अभियंता/एडवोकेट कमिश्नर की नियुक्ति हेतु प्रार्थना पत्र ख़ारिज कर दिया गया. इसे में सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि बेदखली का आदेश प्राथमिक रूप से त्रुटिपूर्ण है क्योंकि स्वतंत्र अभियंता/अधिवक्ता आयुक्त की नियुक्ति के लिए प्रार्थना खारिज कर दी गई थी. एक स्वतंत्र अभियंता आयुक्त की नियुक्ति की जानी चाहिए ताकि यह पता लगाया जा सके कि किराएदार परिसर जीर्ण-शीर्ण स्थिति में है या नहीं और इसके लिए विध्वंस और पुनर्निर्माण की आवश्यकता है।
नादर महाजन संगम एस. वेलैचामी नादर कल्लूरी बनाम जिला रजिस्ट्रार (समितियां), [(1997)10 SCC 170] के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सोसाइटी के सदस्यों के बीच चुनाव से सम्बंधित विवाद होने पर सिविल कोर्ट को एक एडवोकेट को कमिश्नर के रूप में नियुक्त करने का निर्देश दिया जो सोसाइटी का नियम अनुरूप चुनाव करवाएगा और चुनाव होने तक प्रबंधन का प्रभार संभालेगा वह न्यायालय के प्रति जवाबदेह होगा। चूँकि चुनाव ही सोसाइटी के सञ्चालन के लिए अतिआवश्यक था, अतः विवाद के निपटारे के एडवोकेट-कमिश्नर की नियुक्ति न्याय हित में जरुरी पायी गयी।
निष्कर्ष:
आयुक्त की नियुक्ति हर मामले में परिस्थितियों द्वारा निर्देशित होती है और इन परिस्थितियों पर स्वतंत्र रूप से न्यायालय द्वारा विचार किया जाना चाहिए। उपरोक्त अनुच्छेदों में निर्धारित कानून और प्रक्रिया के मूल्यांकन से यह पता चलता है कि स्थानीय दौरों के लिए और भौतिक विशेषताओं की जांच के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति आम तौर पर सिविल मुकदमेबाजी में एक अनिवार्य प्रक्रिया है।