Transfer Of Property Act के अंतर्गत जन्म लेने के पहले बच्चे के फायदे में प्रॉपर्टी का ट्रांसफर

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 अजन्मे बालक के लाभ के लिए किए जाने वाले अंतरण पर भी प्रतिबंध लगाता है। इससे संबंधित संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 13 है।
इस अधिनियम में वर्णित सिद्धान्त ऐसे अन्तरणों पर लागू होते हैं जिनमें अन्तरक और अन्तरिती दोनों ही जीवित व्यक्ति हों। ऐसे अन्तरण जो अन्तरक की मृत्यु के पश्चात् प्रभावी होते हैं उनकी वैधानिकता भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 द्वारा निर्धारित होती है, किन्तु यदि सम्पत्ति का अन्तरण अजन्मे अन्तरिती के पक्ष में किया जा रहा है तो ऐसे अन्तरण की वैधानिकता इस धारा तथा धारा 14 और 20 द्वारा निर्धारित होगी। वस्तुतः क्रमश: धाराएँ 13, 14 और 20 इस अधिनियम में वर्णित सिद्धान्त का अपवाद प्रस्तुत करती हैं।
यदि कोई अन्तरक अपनी सम्पत्ति अन्तरण द्वारा ऐसे व्यक्ति को देता हो जो अन्तरण की तिथि को अजात (अजन्मा) है तो ऐसे व्यक्ति के पक्ष में अंतरण का निर्धारण प्रथमत: इस धारा में वर्णित सिद्धान्त के अनुसार होगा।
अजात व्यक्ति – अजात व्यक्ति से आशय एक ऐसे व्यक्ति से है जो अन्तरण की तिथि को पैदा न हुआ हो। यदि ऐसा व्यक्ति गर्भस्थ शिशु है तो उसे इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए सारतः अस्तित्ववान माना जाता है और ऐसा व्यक्ति सम्पत्ति पाने का अधिकारी होता है। गर्भस्थ शिशु को हिन्दू और ईसाई दोनों विधियों के अन्तर्गत भी अस्तित्ववान माना गया है। मुस्लिम विधि के अन्तर्गत ऐसे व्यक्ति के पक्ष में सम्पत्ति का अन्तरण वर्जित है।
इस धारा के अन्तर्गत अजन्मे व्यक्ति के पक्ष में सम्पत्ति का अन्तरण निम्नलिखित शर्तों के अन्तर्गत वैध होगा :
अजन्मे व्यक्ति के पक्ष में प्रत्यक्ष रूप से सम्पत्ति का अन्तरण सम्भव नहीं है क्योंकि वह सम्पत्ति ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति के पक्ष में अन्तरण केवल परोक्ष रूप में सम्भव होगा।
अजन्मे व्यक्ति के पक्ष में हित सृष्ट से पूर्व कतिपय ऐसे व्यक्तियों के पक्ष में हित सृष्ट करना आवश्यक है जो अन्तरण की तिथि को अस्तित्व में हो। ऐसे व्यक्ति एक या एक से अधिक हो सकेंगे। वस्तुतः ऐसे व्यक्ति अन्तरित सम्पत्ति को अन्तरितों तक पहुंचाने का कार्य करते हैं। अतः इन्हें न्यासी की संज्ञा दी जा सकती है। ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के हित के समापन पर सम्पत्ति अजन्मे व्यक्ति को मिल जानी चाहिए। अतः अजन्मे व्यक्ति को तत्समय सम्पत्ति ग्रहण करने के लिए अस्तित्व में होना चाहिए। यदि वह अस्तित्व में नहीं होगा तो उसके पक्ष में सृष्ट हित शून्य होगा।
अजन्मे अन्तरितों के पक्ष में सृष्ट हित तभी वैध होगा जबकि उसे अन्तरक का अन्तरित सम्पत्ति में सम्पूर्ण अवशिष्ट हित दिया गया हो। अवशिष्ट हित' से आशय है यह हित जो जीवित व्यक्तियों के पक्ष में पूर्विक हित सृष्ट करने के पश्चात् अन्तरक में अवशिष्ट या बाकी हो। इस धारा में प्रयुक्त पदावलि 'सम्पूर्ण अवशिष्ट हित' अन्तरित सम्पत्ति के विस्तार तथा प्रदत्त हित के आत्यन्तिक प्रकृति से सम्बद्ध हैं। इसका सम्बन्ध हित के निहित होने को निश्चितता से नहीं है।
दूसरे शब्दों में, अजन्मे व्यक्ति के पक्ष में निहित हित जैसे जीवन कालिकहित अथवा किसी निश्चित कालावधि के लिए अथवा सम्पत्ति का एक अंशमात्र का अन्तरण वैध नहीं है। यह अवधारणा इस सिद्धान्त पर आधारित है कि किसी अन्य व्यक्ति के पक्ष में हित अन्तरित करने वाला व्यक्ति उक्त सम्पत्ति के मुक्त अन्तरण के सम्बन्ध में एक से अधिक पौढ़ों को प्रतिबन्धित नहीं कर सकेगा।
सम्पूर्ण अवशिष्ट हित अन्तरित करने के पश्चात् अन्तरक अन्तरित सम्पत्ति से पूर्णतः मुक्त हो जाएगा।
जहाँ तक उन व्यक्तियों का प्रश्न है जो अन्तरण की तिथि को जीवित थे और जिनके पक्ष में पूर्विक हित सृष्ट किया गया है, उनके सम्बन्ध में अन्तरक किसी भी प्रकार का हित सृष्ट कर सकता है। यदि इस प्रकार सृष्ट हित विधि द्वारा प्रतिषिद्ध नहीं है। ऐसे व्यक्तियों के पक्ष में सृष्ट हित अधिकतम उनके जीवनकाल के लिए तथा न्यूनतम किसी भी कालावधि के लिए हो सकता है।
उदाहरण- 'अ' को उसके जीवनकाल के लिए 'ब' को 10 वर्ष के लिए स को 8 वर्ष के लिए इत्यादि।
गिरिजेश दत्त बनाम दातादीन के बाद में अ ने अपनी सम्पत्ति अपने भतीजे की पुत्री 'ब' को इस शर्त के साथ दान दिया कि उसे उक्त सम्पत्ति में आजीवन हित प्राप्त होगा, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र यदि जीवित रहेगा तो उसे उसके जीवन भर के लिए हित प्राप्त होगा। यदि वह सन्तान विहीन मरती है तो उसके भतीजे को सम्पत्ति मिलेगी।
'ब' की मृत्यु सन्तान विहीन हुई। चूँकि पुत्री को इस अन्तरण द्वारा सीमित हित प्रदान किया गया था, अतः कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि अन्तरण शून्य होगा। भतीजे के पक्ष में सृष्ट किया गया हित इस अधिनियम की धारा 16 के अन्तर्गत शून्य घोषित किया। धारा 16 उपबन्धित करती है। कि यदि कोई अन्तरण धारा 13 या 14 में वर्णित प्रावधान के फलस्वरूप शून्य हो जाता है तो उसी संव्यवहार में सृष्ट हित जो पूर्विक हित की निष्फलता के पश्चात् प्रभावित होना आशयित है, वह भी शून्य हो जाएगा।
एक वाद में 'अ' नामक एक व्यक्ति ने वाद की विषयवस्तु में अपने पुत्र 'ब' के पक्ष में आजीवन हित तथा 'व' के अजन्मे पुत्रों के पक्ष में आत्यन्तिक हित सृष्ट करते हुए एक समझौता विलेख निष्पादित किया। कुछ समय पश्चात् 'ब' ने एक अभित्यजन विलेख निष्पादित करते हुए अपना आजीवन हित अपने पिता 'अ' के पक्ष में छोड़ दिया। प्रश्न यह था कि क्या 'ब' द्वारा 'अ' के पक्ष में अभित्यजन विलेख निष्पादित करने के कारण, 'ब' के पुत्रों का उक्त सम्पत्ति में हित समाप्त हो गया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि 'ब' के पुत्रों का हित समाप्त नहीं होगा, क्योंकि उन्हें सम्पत्ति में आत्यन्तिक हित प्राप्त था।
अजन्मे व्यक्ति के पक्ष में सृष्ट में हित, इस धारा में वर्णित उपरोक्त शर्तों के पूर्ण होने पर वैध होगा अन्यथा अवैध और अजन्मे अन्तरिती को हित नहीं प्राप्त होगा।