संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 42: पट्टे के अंतर्गत अतिधारण क्या होता है (धारा 116)
किसी भी पट्टे की एक कालावधि होती है। उस कालावधि के अंतर्गत पट्टा विधमान रहता है। पट्टे का जब पर्यवसान हो जाता है या निरस्त हो जाता है या उसकी कालावधि समाप्त हो जाती है या उसकी शर्तों का पालन हो जाता है तब भी पट्टेदार पट्टा संपत्ति को धारण किए रहता है ऐसी स्थिति को अतिधारण कहा जाता है जिसका उल्लेख संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 116 के अंतर्गत किया गया है। इस आलेख के अंतर्गत इस ही धारा 116 से संबंधित प्रावधानों पर व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है।
अतिधारण— " अतिधारण" से आशय है पट्टेदार द्वारा पट्टाजनित सम्पत्ति का कब्जा. पट्टा की शर्तों के समाप्त होने के पश्चात् भी धारण किये रहना। इस सन्दर्भ में, एक ऐसे अतिधारक जो पट्टाकर्ता/भू-स्वामी की सहमति से तथा एक ऐसे अतिधारक जो पट्टाकर्ता/भू-स्वामी की सहमति के बगैर सम्पत्ति को धारण कर रहा हो विभेद किया जाना आवश्यक है। वह पट्टेदार जो सहमति के साथ पट्टा सम्पत्ति को, पट्टा की अवधि की समाप्ति के उपरान्त धारण करता है, "इच्छाजनित पट्टेदार" कहलाता है जबकि वह पट्टेदार जो बिना पट्टाकर्ता की सहमति से धारण करता है "मर्षण जात पट्टेदार" कहलाता है।
मर्षण जात पट्टेदार की हैसियत, एक अतिचारी के तुल्य होती है, इससे श्रेष्ठ नहीं होती है। ऐसे पट्टेदार को, किसी भी समय छोड़ने को नोटिस दिये बिना, पट्टा सम्पत्ति से बेदखल किया जा सकेगा। मर्षण जात पट्टे का सृजन संविदा द्वारा नहीं हो सकेगा। यह केवल विधि की विवक्षा से स्पष्ट होता है जब एक व्यक्ति विधितः सम्पत्ति का कब्जा एक निश्चित अवधि के लिए धारण करता है और विधितः सृजित हित के समापन के पश्चात् भी सम्पत्ति को धारण किये रहता है उस व्यक्ति की सहमति के बिना जो उसे पट्टा अवधि के समापन के उपरान्त धारण करने का हकदार है।
इच्छाजनित पट्टा भी विधि की विवक्षा से ही अस्तित्व में आता है, परन्तु इस मामले में धारणा अनुज्ञात्मक होती है। यदि पट्टे का सृजन एक म्यूनिसपिलिटी द्वारा नवीकरण की शर्त के साथ किया गया है और नवीकरण की शर्त यह थी पट्टेदार कीमत एवं किराया यथोल्लिखित तिथि तक अदा कर देगा, पर वह शर्त का अनुपालन करने में विफल रहा। ऐसा व्यक्ति पट्टेदार होगा भले ही म्यूनिसिपिलिटी पुराने दर पर ही दिया गया किराया स्वीकार कर ले तथा पट्टेदार बिना किसी नोटिस के पट्टा सम्पत्ति से बेदखल किया जा सकेगा।
जहाँ पट्टेदार पट्टा की अवधि के समापन के उपरान्त पट्टा सम्पत्ति को धारित किये रहता है और इस निमित्त उसे पट्टाकर्ता को अभिव्यक्त या विवक्षित सम्मति प्राप्त नहीं है, तो वह मात्र एक अतिचारी है और यदि वह पट्टाकर्ता के अध्यधीन हित धारक द्वारा पट्टा सम्पत्ति से बेदखल कर दिया जाता है तो वह सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने हेतु वाद संस्थित नहीं कर सकेगा और न ही अपने पूर्व कब्जे के आधार पर अपने हित/स्वत्व की उद्घोषणा हेतु वाद संस्थित कर सकेगा।
"अतिधारण" का अभिप्राय है भूस्विामी एवं किराएदार के बीच सम्बन्ध जिसके अध्यधीन दोनों पक्षकारों की सहमति से किरायेदार को अनुमति दी जाती है कि वह अपने किरायेदारी को निरन्तर जारी रखे।
यदि भू-स्वामी पट्टे के समापन के पश्चात् सद्भावपूर्ण त्रुटि के अन्तर्गत एक महोने का किराया स्वीकार कर लेता है तथा त्रुटि का आभास होने के पश्चात् भू-स्वामी किराये की रकम किराएदार को तुरन्त वापस कर देता है, तो यह नहीं कहा जा सकेगा कि टेनेन्सी 'अतिधारण' द्वारा निरन्तर बनी रही। भू-स्वामी सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने हेतु प्राधिकृत होगा।
अतिधारण के मामलों में किराया की स्वीकृति अथवा भू-स्वामी की अभिव्यक्त या विवक्षित सम्मति से पट्टे का नवीकरण हो जाता है, किन्तु यह मूल पट्टे का चालू रहना नहीं होगा। यदि पट्टाकर्ता, पट्टेदार से किराया नहीं स्वीकार करता है, तो नवीन पट्टेदारी का सृजन नहीं होगा यदि एक अवैध पट्टे के फलस्वरूप पट्टेदार को सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त हो गया तथा वह पट्टाकर्ता को कई वर्षों तक किराये का भुगतान करता रहा तो ऐसी स्थिति में वादी इस धारा के अन्तर्गत मासानुमासो पट्टेदार समझा जायेगा पट्टेदार की बेदखली हेतु संस्थित किये जाने वाले वाद को दाखिल करने में हुए विलम्ब के कारण अतिधारण द्वारा पट्टेदारी का सृजन हुआ नहीं माना जायेगा।
यदि पट्टे की अवधि के समापन के पश्चात् पट्टेदार सम्पत्ति को अपने कब्जे में बनाये रख, उसने न किराये का भुगतान किया और न ही उससे किराये की माँग की गयी पर किराया स्वीकार किया गया, किन्तु त्रुटिवश महीने के द्वितीय पखवाड़े के किराये की माँग की गयी क्योंकि पट्टे की अवधि का समापन महीने की 15 तारीख को होता था।
इन तथ्यों के आधार पर यह अभिनिर्णीत हुआ कि पट्टेदार, पट्टाकर्ता की सम्मति से अतिधारण नहीं कर रहा है। अतिधारण की स्थिति को पुख्ता करने हेतु पढ़ेदार को यह साबित करना होगा कि पट्टे के पर्यवसान के उपरान्त वह न केवल पट्टा सम्पत्ति को धारण कर रहा है, अपितु यह भी साबित करना होगा कि पट्टाकर्ता ने उससे किराया स्वीकार किया था अथवा अन्यथा उसने अपनी सहमति पट्टे को निरन्तरता हेतु दी थी।
पर्यवसान के उपरान्त पट्टेदार को बेदखल करने हेतु दाखिल किये जाने वाला वाद समय से दाखिल न होना, या विलम्ब से दाखिल होना इस बात का प्रतीक नहीं है कि पट्टाकर्ता ने पट्टेदार को पट्टा सम्पत्ति में बने रहने के लिए अपनी सम्मति दे दी है।
पट्टाकर्ता द्वारा छोड़ने को नोटिस की तामील, ऐसी परिस्थिति में, इस बात का निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त नहीं है कि पट्टाकर्ता ने अतिधारण हेतु सम्मति दे दी है। इसी प्रकार एक सांविधिक पट्टेदार द्वारा किराये का भुगतान तथा लैण्डलार्ड द्वारा उसकी स्वीकृति इस बात का साक्ष्य नहीं है कि अतिधारण द्वारा एक नवीन पट्टेदारों का सृजन हो गया है।
लॅण्डलार्ड को सम्मति का, इस प्रयोजन हेतु स्वतंत्र साक्ष्य होना आवश्यक है। अतिधारण का सिद्धान्त तभी प्रवर्तित होता है जब पट्टे का पर्यवसान हो गया हो। यदि पट्टे को पर्यवसान अभी नहीं हुआ है तो अतिधारण अस्तित्व में नहीं आयेगा।
अतः यदि पट्टे के पर्यवसान के उपरान्त पट्टेदार पट्टा विलेख में उल्लिखित नवीकरण खण्ड के अन्तर्गत सम्पत्ति को धारण कर रहा है तो यह समझा जायेगा कि पट्टाधृत सम्पत्ति में उसके अधिकार पट्टा विलेख अस्तित्व में आये हैं तथा ऐसे पट्टेदार का मामला, धारा 116 के क्षेत्राधिकार से परे होगा।
अतिधारण का सिद्धान्त मूल पट्टेदार के सन्दर्भ में लागू होता है न कि उसके प्रतिनिधि के सन्दर्भ में अतः यदि मूल पट्टेदार की मृत्यु हो जाती है तथा सम्पत्ति का कब्जा उसका विधिक उत्तराधिकारी प्राप्त कर लेता है, तो वह ऐसा एक अतिचारी के रूप में करता हुआ माना जायेगा और लैण्डलार्ड इस धारा के अन्तर्गत मात्र अपनी सम्मति देकर ऐसे प्रतिनिधि को अपना पट्टेदार नहीं बना सकेगा जब तक कि दोनों पक्षकारों को सम्मति से एक नवीन पट्टेदारों का सृजन नहीं होता है।
धारा 116 में उल्लिखित पट्टेदारी केवल मूल पट्टेदार के पक्ष में सृजित होगी। इस प्रकार की पट्टेदारी निर्धारित अवधि के पट्टों में ही सृजित होती है न कि जोवनकाल के लिए सृजित पट्टों में आजीवन पट्टेदार के प्रतिनिधि समनुदेशिती के रूप में वर्षानुवर्षी पट्टेदार नहीं बनेंगे।
जब 1 तक कि धारा 107 में उल्लिखित औपचारिकताएँ पूर्ण न हो जायें। दूसरे शब्दों में ऐसे व्यक्ति वर्षानुवर्षी प्रकृति के पट्टेदार केवल तभी बनेंगे जब रजिस्ट्रीकृत दस्तावेज निष्पादित हो जाये। वे इच्छाजनित पट्टेदार बन सकेंगे अथवा मौखिक संविदा के आधार पर 1 वर्ष के लिए बिना रजिस्ट्रीकृत विलेख के।
अतिधारण की आवश्यक शर्ते- इस प्रयोजन हेतु दो शर्तें आवश्यक हैं-
(1) पट्टेदार पट्टा के पर्यवसान के उपरान्त पट्टा सम्पत्ति का कब्जा धारण किये हो।
(2) पट्टाकर्ता या उसका प्रतिनिधि पट्टेदार से किराया स्वीकार करे या अन्यथा पट्टेदार को सम्पत्ति में बने रहने की अनुमति दे।
इन शर्तों में यह प्रकल्पित है कि रेण्ट का भुगतान तथा इसको स्वीकृति ऐसे समय पर तथा इस प्रकार की जाये जो कब्जा चालू रखने हेतु लैण्डलार्ड को अनुमति के तुल्य हो" अन्यथा" शब्द का प्रयोग यह दर्शाता है कि पट्टाकर्ता द्वारा रेण्ट की स्वीकृति पट्टेदार के कब्जे को जारी रखने हेतु सहमति है।
पट्टेदार का सम्पत्ति में बने रहने का प्रश्न हो नहीं उठता जब तक कि पट्टे का पर्यवसान न हो जाये किराये का भुगतान एवं उसकी स्वीकृति ऐसे समय पर होनी चाहिए एवं इस प्रकार होनी चाहिए जो पट्टाकर्ता की सहमति के तुल्य हो तथा पट्टाकर्ता की सहमति कब्जा चालू रखने के लिए हो।
यदि किराये का भुगतान ऐसे समय पर किया गया हो जबकि पट्टाकर्ता द्वारा सहमति देने का कोई प्रश्न न हो तथा किसी भी पक्षकार ने भुगतान के लिए इस प्रकार दी गयी सम्पति को भुगतान हेतु सम्मति के रूप में स्वीकार किया हो। यदि ऐसा नहीं है तो धारा 116 प्रवर्तित नहीं होगी।
इस धारा को धारा 111 खण्ड (क) के साथ पढ़ा जाना चाहिए जो समय के अवसान द्वारा पट्टे के पर्यवसान से सम्बद्ध है। यह धारा पट्टाकर्ता एवं पट्टेदार के अधिकारों जैसा कि धारा 112 एवं 113 में उपबन्धित है, को प्रभावित नहीं करती है। इसमें उपबन्धित सिद्धान्त कृषि प्रयोजन हेतु पट्टों पर भी प्रभावी होगा।
यह प्रावधान रेण्ट कन्ट्रोल अधिनियम के अन्तर्गत उत्पन्न होने वाले ऐसे विषयों पर लागू नहीं होगा जिनमें पट्टेदार के निष्कासन हेतु आदेश पारित हो चुका है, किन्तु उस आदेश के विरुद्ध अपील लम्बित है और इस स्थिति में लैण्डलार्ड, पट्टेदार द्वारा किराये के रूप में भेजा गया चैक स्वीकार करता है, तो पट्टेदार को कब्जा चालू रखने के लिए किसी नवीन अधिकार की आवश्यकता नहीं होगी। यदि सम्पत्ति का कब्जा धारक पट्टेदार नहीं है अपितु उपपट्टेदार है तो अतिधारण का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।
सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 108 खण्ड (ञ) पट्टेदार को पट्टा सम्पत्ति को पूर्णतः या अंशत: उपपट्टे के रूप में अन्तरित करने की अनुमति देता है। यदि पट्टे के पर्यवसान पर पट्टाकर्ता यह पाता है कि कई उपपट्टेदार सम्पत्ति धारण कर रहे हैं तथा उनमें से एक या कइयों से किराया स्वीकार करता है, तो धारा 116 का लाभ उपपट्टेदारों को प्राप्त होगा।
धारा 107 से शासित पट्टे के मामले में यदि पट्टाकर्ता ने किराया स्वीकार नहीं किया है पट्टे के पर्यवसान के उपरान्त अथवा उसके द्वारा किया गया कोई करार कि पूर्विक पट्टेदार बगैर किसी नवीन पट्टे के निष्पादन के पट्टा सम्पत्ति का कब्जा धारण किये रहे, तो यह धारा प्रवर्तनीय नहीं होगी।
एक टेनेन्ट ने अतिधारण द्वारा पट्टेदारी की माँग की। एक सहस्वामी ने पट्टेदार के निष्कासन हेतु वाद संस्थित किया। यह वाद अन्य सहस्वामियों को वाद का पक्षकार बनाये बिना पोषणीय है। यह इस सिद्धान्त पर आधारित है कि एक सहस्वामी का अधिकार अन्य सहस्वामियों के साथ सम्पूर्ण सम्पत्ति तक विस्तारित रहता है।
अतः उसके द्वारा उठाया गया कोई भी कदम अन्य सहस्वामियों के लाभ के लिए भी होगा। पट्टेदारी के पर्यवसान के उपरान्त यदि पट्टेदार, पट्टा सम्पत्ति का कब्जा बिना लैण्डलाई को अनुमति के जारी रखता है तब ऐसा पट्टेदार केवल एक अतिचारी होता है।
अतः अतिचारों के विरुद्ध एक सहस्वामी द्वारा संस्थित होने वाले वाद से सम्बन्धित नियम, टेनेन्ट के विरुद्ध सहस्वामियों द्वारा संस्थित किये जाने वाले वाद पर प्रभावी होंगे। अर्थात् एक सहस्वामी अपने स्वयं के अधिकार के अध्यधीन बिना अन्य सहस्वामियों को बाद का पक्षकार बनाये पट्टा सम्पत्ति की वापसी हेतु वाद संस्थित कर सकेगा। परन्तु इस नियम का एक अपवाद है।
जहाँ वाद संस्थित करने वाला सहस्वामी अन्य सहस्वामियों के अधिकारों को नकारते हुए एकान्तिक अधिकार का दावा करता है, तो वे सहस्वामी जिनके अधिकारों को नकारा गया है, वाद के आवश्यक पक्षकार होंगे तथा उनको पक्षकार न बनाया जाना, वाद के लिए घातक होगा।
अतिधारण का सिद्धान्त पट्टे के पर्यवसान के उपरान्त अस्तित्व में आता है। सर्वप्रथम पट्टे का पर्यवसान आवश्यक है। इससे पूर्व यह सिद्धान्त प्रवर्तित नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार यदि पूर्व रजिस्ट्रीकृत पट्टे के अन्तर्गत विकल्प का प्रयोग कर पट्टेदारी को जारी रखा जा रहा है तो यह सिद्धान्त प्रवर्तित नहीं होगा। दूसरे शब्दों में यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा जहाँ पट्टेदार कब्जा जारी रखता है नवीकरण खण्ड अथवा अभिवर्धन खण्ड के अन्तर्गत जो मूल रजिस्ट्रीकृत पट्टे में विद्यमान थे।
एक वाद में अपीलार्थी ने अपनी सम्पत्ति प्रति उत्तरदाता को 21 वर्ष की अवधि के लिए किराए पर दिया था और यह अवधि 29 फरवरी, 1984 को समाप्त हो रही थी। वादी ने अपने अधिवक्ता के माध्यम से प्रतिवादी को नोटिस भेजा कि पट्टा कालावधि के समापन के फलस्वरूप 29 फरवरी, 1984 को समाप्त हो रहा है अतः प्रतिवादी वादी को सूचित करे कि किस तिथि को एवं किस समय पट्टा सम्पत्ति का कब्जा वह उसे संदत्त करेगा।
किन्तु प्रतिवादी ने वादी को न कोई उत्तर दिया और न हो उसे सम्पत्ति का कब्जा प्रदान किया। इन तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि वादी न केवल पट्टा सम्पत्ति का कब्जा पाने का अधिकारी है अपितु भावी मध्यवर्ती लाभ पाने का भी अधिकारी है।
न्यायालय ने यह भी अभिप्रेक्षित किया कि यदि पट्टेदार पट्टा की अवधि समाप्त होने के पश्चात् भी सम्पत्ति को अपने कब्जे में धारण किए रहता है तथा न्यायालय में किराया की रकम जमा करता है तो इस कृत्य से यह नहीं समझा जाना चाहिए कि मकान मालिक ने किराया स्वीकार कर लिया है।
सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 116 का लाभ पाने के लिए यह आवश्यक है कि किरायादार किराये का भुगतान सीधे मकान मालिक को करे या प्रस्तुत करे तथा मकान मालिक उसे स्वीकार करे। पट्टे के नवीकरण हेतु यह आवश्यक है कि पट्टे के दोनों पक्षकार एक मत के हों। पट्टे को अवधि के समापन के उपरान्त पट्टेदार का सम्पत्ति में बना रहना विधि सम्मत नहीं है।
ऐसी स्थिति में यदि कोई प्राधिकारी (प्रस्तुत प्रकरण में आयकर अधिकारी) पट्टेदार को नोटिस जारी करता है तो इससे पट्टाकर्ता एवं पट्टेदार के बीच सम्बन्ध का न तो नवीनीकरण होगा और न ही नवीन सम्बन्ध स्थापित होगा।
विभिन्न न्यायिक निर्णयों के आधार पर अतिधारण के सम्बन्ध में स्थिति को इस प्रकार सुस्पष्ट किया जा सकता है -
"अभिव्यक्त संविदा के अतिरिक्त, पक्षकारों के आचरण निःसन्देह इस निष्कर्ष को न्यायोचित ठहराते हैं कि पट्टे के पर्यवसान के उपरान्त चाहे समय के अवसान से या अन्यथा, भूस्वामी पट्टेदार के साथ एक नवीन संविदा करता है, परन्तु क्या आचरण से ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकेगा सदैव प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। किराये को अभिस्वीकृति (या वर्द्धित किराया) एक ऐसी परिस्थिति है जो अतिधारण द्वारा नवीन पट्टेदारी के दावे को समर्थन देती है।
अतिधारण का सिद्धान्त वहाँ प्रवर्तनीय नहीं है जहाँ कि पट्टाकर्ता ने वाद संस्थित होने के पश्चात्अ पने खाते में जमा पैसे निकाल लिये तथा उन पैसों को वाद संस्थित होने के पश्चात् अपने खाते में जमा कर लिया। ऐसे मामले में अतिधारण का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।
पट्टा की अवधि के समापन के पश्चात् कब्जा-पट्टा की अवधि के समापन के पश्चात् एक पट्टेदार के लिए यह नहीं कहा जा सकता है कि वह विधित सम्पत्ति को धारण कर रहा है यदि ऐसा कब्जा अन्यथा संविधितः संरक्षित नहीं है, किन्तु उसे बलपूर्वक सम्पत्ति से बेदखल नहीं किया जा सकेगा, चाहे वह दखल करने वाला व्यक्ति कितना ही उत्तम हित धारक क्यों न हो।
उसका कब्जा न्यायिक कब्जा है जो अवैध बेदखली के विरुद्ध विधि द्वारा संरक्षित है, परन्तु स्वयमेव सदैव इसको तुलना विधिक कब्जा के साथ नहीं की जा सकेगी।
पट्टा की अवधि के समापन के उपरान्त पट्टाकर्ता द्वारा किराया स्वीकार किया जाना युक्तियुक्ततः इस निष्कर्ष निकालने के लिए आधार प्रस्तुत करता है कि पट्टेदार, पट्टाकर्ता को सम्मति से निरन्तर कब्जा धारण किये हैं और पट्टाकर्ता की सम्मति से सम्पत्ति का कब्जा धारण किये हैं। अतः भाषानुभाषी प्रकृति के पट्टे का सृजन होगा।
इस मामले में हुण्डई मोटर ने मोहन को-आपरेटिव इण्डस्ट्रियल इस्टेट, नई दिल्ली में एक सम्पत्ति पट्टे पर 3 वर्ष की अवधि के लिए लिया था। पट्टे की शर्तों के अन्तर्गत पट्टा नवीकृत हो सकता था। पुनः तीन वर्ष के लिए अन्तिम देय किराया पर 15% वृद्धि के साथ मोटर कम्पनी ने शर्तों के अनुसार पट्टे के नवीकरण हेतु पट्टाकर्ता को पत्र लिखा किन्तु पट्टाकर्ता ने यह जवाब दिया कि वह नवीकरण हेतु तैयार है यदि कम्पनी बाजार की दर पर किराया देने को तैयार हो।
परन्तु मोटर कम्पनी इसके लिए तैयार नहीं हुई। मोटर कम्पनी पूर्ववर्ती पट्टा विलेख में उल्लिखित शर्तों के अनुसार ही नवीकरण पर अड़ी रही। पट्टे की अवधि के समापन के फलस्वरूप मोटर कम्पनी की स्थिति अतिधारण द्वारा पट्टेदार की थी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन तथ्यों के आधार पर यह अभिनिर्धारित किया कि अतिधारण द्वारा पट्टेदार भी अपने कब्जे को बनाये रखने हेतु वाद संस्थित करने के लिए प्राधिकृत हैं।
पट्टाकर्ता की सम्मति -
एक अतिधारण के लिए पट्टाकर्ता की सम्मति आवश्यक है। सम्मति प्रत्यक्ष या विवक्षित भी हो सकेगी। यदि सम्पत्ति धारण का विरोध लम्बे अन्तराल तक नहीं किया जाता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकेगा कि लैण्डलार्ड ने अपनी सम्मति दे दी है।
जहाँ सम्पत्ति का पट्टा म्यूनिसिपल कार्पोरेशन द्वारा किया गया था. कालावधि के समापन के पश्चात् सम्पत्ति का किराया सहायक राजस्व अधिकारी द्वारा स्वीकार किया गया जबकि किराया आयुक्त द्वारा स्टैण्डिग कमेटी के अनुमोदन से स्वीकार किया जाना चाहिए था।
इन तथ्यों पर यह अभिनिर्णीत हुआ कि अतिधारण द्वारा पट्टे का सृजन नहीं हुआ है। पट्टेदार की बेदखली हेतु वाद संस्थित करने में हुए विलम्ब के फलस्वरूप यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकेगा कि धारणाधिकार हेतु पट्टाकर्ता की संस्तुति प्राप्त हो गयी थी। यह साबित होना आवश्यक है कि पट्टाकर्ता की प्रत्यक्ष सम्मति थी।
पट्टाकर्ता की निष्क्रिय विफलता के कारण पट्टेदार के निष्कासन हेतु, यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकेगा कि पट्टा सम्पत्ति के अतिधारण हेतु पट्टाकर्ता ने अपनी सम्मति प्रदान कर दी है। किन्तु यदि यह अन्तराल लम्बा है यथा 10 वर्ष का, तो यह निष्कर्ष निकाला जायेगा कि उसने निश्चयतः अपनी सम्मति प्रदान कर दी है तथा पट्टेदार को अतिचारी नहीं माना जायेगा पट्टाकर्ता द्वारा पट्टा अवधि के अवसान के तुरन्त बाद उस पट्टेदार के विरुद्ध निष्कासन हेतु कदम न उठाना इस बात का प्रतीक नहीं है कि पट्टाकर्ता ने उसे पट्टे को चालू रखने हेतु सम्मति दे दी है।
कुछ अतिरिक्त दर्शित किया जाना आवश्यक है जैसे किराये की माँग पट्टा अवधि की समाप्ति के उपरान्त पट्टाकर्ता द्वारा किराये को माँग हेतु वाद संस्थित करना इस बात का संकेत है कि वह पट्टा की निरन्तरता को स्वीकार करता है।
8 यदि पट्टाकर्ता ने चार से पाँच वर्ष तक अतिधारण के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट किया तत्पश्चात् रेन्ट हेतु वाद संस्थित किया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि वाद संस्थित किये जाने से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकेगा कि उसने अतिधारण हेतु अपनी सम्मति दे दी है। ऐसे मामले में भूस्वामी किराया वसूल करने के लिए प्राधिकृत नहीं होगा विशेषकर पट्टा को समाप्ति के उपरान्त।
अतिधारण का प्रभाव - जब पट्टेदार, पट्टे की अवधि के पर्यवसान के बाद पट्टा सम्पत्ति अपने कब्जे में बनाये रखता है, तो उसे पट्टा सम्पत्ति को अतिधारित करता हुआ कहा जाता है, पर जैसा कि रैन्किन सी० जे० द्वारा गोपाल चन्द्र बनाम खटेर करिकरों के वाद में अभिप्रेक्षित किया था कि "पट्टे की अवधि के समापन के उपरान्त अतिधारण के कृत्य से निश्चयतः किसी भी प्रकार की पट्टेदारी का सृजन नहीं होता है" धारा के अभिव्यक्त प्रावधान से यह सुस्पष्ट है कि पट्टे की अवधि के समापन के उपरान्त पट्टा सम्पत्ति को अपने कब्जे में बनाये रखने मात्र से ही उसे अतिधारण द्वारा पट्टेदार बनने का अधिकार नहीं होगा, अपितु यह भी आवश्यक है कि इस प्रयोजन हेतु पट्टाकर्ता को सम्मति होनी चाहिए चाहे वह सम्मति किराया लेकर दी गयी हो अथवा अन्यथा।"
यदि पट्टेदार भूस्वामी की सम्मति से सम्पत्ति का कब्जा धारण किये रहता है तो वह प्रथम दृष्टया इच्छाधारी पट्टेदार हैं। पर यदि पट्टेदार मूल पट्टे की अवधि के समापन के उपरान्त की अवधि के लिए किराये का भुगतान करता है तो यह माना जायेगा कि वह मात्र इच्छाजनित पट्टेदार नहीं है। यह कामन लॉ विधि है। धारा 116 यह प्रकल्पना करती है कि यदि पट्टेदार पट्टा सम्पत्ति का कब्जा चालू रखता है।
तथा कब्जे की निरन्तरता को पट्टाकर्ता की सम्मति मिल जाती है तो विधि में यह निष्कर्ष निकाला जायेगा कि किसी तत्प्रतिकूल संविदा के अभाव में पट्टा भाषानुभाषी अथवा वर्षानुवर्षी आधार पर नवीकृत हुआ समझा जायेगा। कब्जे को चालू रखने हेतु सम्मति किराये की स्वीकृति द्वारा अथवा किसी अन्य कृत्य द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकेगा। नवीकृत पट्टेदारी एक नवीन पट्टेदारी है।
अतः एक नवीन पट्टेदारी तब उत्पन्न होती है जब कब्जे की निरन्तरता हेतु पट्टाकर्ता को सम्मति हो जो किराये की स्वीकृति या किसी अन्य कार्य द्वारा अभिव्यक्त हो। यहाँ यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि धारा 116 का शीर्षक अपने को प्रकट करता है "अतिधारण का प्रभाव" के रूप में, जबकि यह धारा वस्तुत: पट्टेदार द्वारा "अविधारण" के प्रभाव से सम्बन्धित है।
भारतीय विधि में अतिधारण का यह प्रभाव है कि पट्टा भाषानुभाषो या वर्षानुवर्षी आधार पर पट्टाकर्ता को सम्मति से नवोकृत होता है, इस आधार पर कि किस प्रयोजन हेतु धारा 106 के अन्तर्गत पट्टे का सृजन हुआ था।