अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :4 अधिनियम के अंतर्गत दण्डादेश की आनुपातिकता, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) और दोषमुक्ति के विरुद्ध पुनरीक्षण (धारा-3)

Update: 2021-10-19 02:30 GMT

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989) के अंतर्गत इससे पूर्व के भाग में धारा तीन से संबंधित कुछ विशेष बातों को उल्लेखित किया गया था। इस आलेख के अंतर्गत दण्डादेश की आनुपातिकता, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3), दोषमुक्ति के विरुद्ध पुनरीक्षण और साथ ही अन्य विशेष बातें को भी प्रस्तुत किया जा रहा है जो इस धारा- 3 से संबंधित है।

दण्डादेश की आनुपातिकता:- दण्डादेश की आनुपातिकता के पक्ष पर उसे अभियुक्त के दाण्डिक आचरण की आपराधिकता के अनुसार विहित किया जाना है। दण्डादेशित करने की प्रणाली को ऐसी रीति में प्रवर्तित होना है, जो समाज की सामूहिक अन्तरात्मा को प्रदर्शित कर सके और उसे तथ्यों से इस तरह से उद्भूत होना चाहिए, जैसे दिया गया मामला मांग करता है। किस प्रकार के मामलों में मृत्युदण्ड प्रदान किया जाना चाहिए, विभिन्न न्यायिक निर्णयों में विचार-विमर्श की विषयवस्तु रही है, इसी तरह से ये दिशानिर्देश, जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302, (जो मृत्यु दण्डादेश दण्ड के अधिरोपित को प्राधिकृत करता है), की वैधता को सम्पुष्ट करते हुए अपने द्वारा इंडिगा अन्नम्मा बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, (1974) 4 एस० सी० सी० 443 के मामले में पूर्ववर्ती निर्णय के द्वारा अभिव्यक्त किए गये विचार से सहमत होते हुए बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) 2 एस० सी० सी० 684 के मामले में उच्चतम न्यायालय के द्वारा प्रतिपादित किए गये थे, का आज की तारीख तक पालन किया गया है, जो ये हैं कि-

(i) घोर आपराधिकता के सर्वाधिक गम्भीर मामलों में के सिवाय मृत्यु का अत्यधिक दण्ड अधिरोपित करना आवश्यक नहीं है।

(ii) मृत्युदण्ड के ऐसे विकल्प के पहले 'अपराधी' की परिस्थितियाँ भी 'अपराध' की परिस्थितियों पर विचारण की अपेक्षा करती हैं।

(iii) आजीवन कारावास नियम है और मृत्यु दण्ड अपवाद है। अन्य शब्दों में मृत्युदण्ड केवल तब अधिरोपित किया जाना चाहिए, जब अपराध की सुसंगत परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए दण्ड अपर्याप्त होना प्रतीत होता है और परन्तु और केवल परन्तु आजीवन कारावास का दण्डादेश अधिरोपित करने के विकल्प का प्रयोग अपराध को प्रकृति तथा परिस्थितियों तथा सुसंगत परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सदैव नहीं किया जा सकता है।

(iv) आवर्धक और परित्राणकारी परिस्थितियों के बीच संतुलन बनाया जाना है और ऐसे करने में परित्राणकारी परिस्थितियों को पूर्ण महत्व प्रदान किया जाना है और विकल्प का प्रयोग करने के पहले आवर्धक और परित्राणकारी परिस्थितियों के बीच संतुलन बैठाया जाना है।

स्वतंत्र साक्षी की परीक्षा न होना:- इसका प्रभाव यह अभिकथन किया गया था कि अपीलार्थी सूचनादात्री के घर में घुसा, उसे यह कहते हुए गाली दी कि वह विशेष जाति से सम्बन्धित है। सूचनादात्री और अन्य साक्षियों ने यह कहा कि घटना के दौरान घटना स्थल पर अनेक व्यक्ति पहुँच गये थे, परन्तु उसके कथन का समर्थन करने के लिए कोई साक्षी प्रस्तुत नहीं किया गया था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि स्वतंत्र साक्षी की परीक्षा न करना अभियोजन के लिए घातक है। दोषसिद्धि अपास्त किये जाने के लिए दायी है।

ईसाई समुदाय से सम्बन्धित व्यक्ति के द्वारा संस्थित की गयी कार्यवाही पोषणीय नहीं:-

पेपटला जान वीरन्ना बनाम स्टेट आफ आन्ध्र प्रदेश, 2003, क्रि० लॉ ज० 2204 (ए० पी०) के प्रकरण में याची के द्वारा यह स्वीकार किया गया है कि उसका पिता ईसाई है। इस सुझाव को कि वह हिन्दू नहीं है, इंकार करने के बजाय याची ने इसके बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया कि वह ईसाई कैसे नहीं है, जब उसके पिता और पुत्री ईसाई हैं। विचारण न्यायालय ने यह निष्कर्ष अभिलिखित किया कि याची ईसाई समुदाय से सम्बन्धित नहीं है। अन्यथा भी याची का नाम यह इंगित करता है कि वह ईसाई है और उसने इसके बारे में यह स्पष्टीकरण दिया कि उस समय से उसका हिन्दू होना कैसे जारी है। इसलिए अधिनियम को धारा 3 के अधीन कार्यवाही संस्थित करना बिना किसी आधार के है।

अनुसूचित जनजातियों की प्रास्थिति समुदाय के आधार पर, न कि धर्म के आधार पर प्रदत्त की गयी है:-

रोसम्मा थामस बनाम सी० आई० आफ पुलिस, 1999 (3) क्राइम्स, 143, पृष्ठ 147 (केरल) के मामले में यह कहा गया कि हिन्दू, इस्लाम और ईसाई धर्म में आस्था रखने वाले लोगों को इस तथ्य पर विचार करते हुए अनुसूचित जनजातियों के रूप में वर्णित किया गया है कि वे भारत के विशेष भाग में निवास कर रहे है। संविधान (अनुसूचित जनजाति) (संघशासित क्षेत्र) आदेश, 1951 (सी० ओ० 33) के अनुसार लक्षद्वीप, मिनिकाय और अमनदीव प्रायद्वीप के निवासी, जो और उनके माता-पिता दोनों, जो लक्षद्वीप के संघशासित क्षेत्र में उन प्रायद्वीपों में पैदा हुए थे, जो धर्म के द्वारा मुस्लिम हैं, अनुच्छेद 342 के अधीन प्रकाशित अनुसूचित जनजातियों की सूची में अनुसूचित जनजाति के रूप में घोषित किये गये हैं। इसी तरह से कतिपय क्षेत्रों में ईसाई धर्म में आस्था रखने वाले उत्तर-पूर्वी राज्यों में लोगों को उन राज्यों के सम्बन्ध में उक्त सूची में अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल किया गया। ये तथ्य स्पष्ट रूप से यह साबित करते हैं कि अनुसूचित जनजातियों की प्रास्थिति लोगों पर उस धर्म, जिसमें वे आस्था रखते हैं, के आधार पर नहीं बल्कि उस समुदाय, जिससे वे सम्बन्धित हैं और वह क्षेत्र जिसके वे निवासी हैं, के आधार पर प्रदत्त की गयी है।

दण्ड प्रक्रिया सहिंता की धारा 156(3) इस अधिनियम के अंतर्गत:-

स्टेट आफ महाराष्ट्र बनाम शशि कान्त, 2012 क्रि० लॉ ज० (एन० ओ० सी०) 568 (बम्बई) के मामले में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अधीन पारित किया गया यांत्रिक आदेश जहाँ अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के प्रावधानों का दुरुपयोग करते हुए अन्य व्यक्ति के साथ बदला लेने के असद्भावपूर्वक आशय के साथ मिथ्या परिवाद दाखिल किया गया था, पुलिस के द्वारा बिना कोई कारण अभिलिखित किये और बिना इस बात को सत्यापित किये कि क्या परिवाद अपराध का आवश्यक तथ्य प्रकट करता है, अन्वेषण निर्देशित करते हुए धारा 156 (3), दंड प्रक्रिया सहिंता के अधीन मजिस्ट्रेट के द्वारा पारित किया गया यांत्रिक आदेश नागरिकों को कठिनाई, अपमान तथा परेशानी कारित करता है।

यह विशेष संप्रदाय के लोगों के मस्तिष्क तथा शरीर पर अधिरोपित अत्याचारों को समाप्त करने के लिए अधिनियमन है। उसी समय यह भी ध्यान में रखा जाना है कि किसी अन्य आधार पर पहले से विद्यमान पूर्ववर्ती दुश्मनी के कारण इस अधिनियम में मिथ्या फंसाव की गुंजाइश है। इसलिए न्यायालयों को कोई कदायित्व नियत करने के पहले सतर्कतापूर्वक सावधानीपूर्वक तथा सम्पूर्ण रूप से जाँच करनी चाहिए, क्योंकि जब अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन मिथ्या फंसाव की गुंजाइश है और जहाँ न्यूनतम देश विहित किया गया है।

निर्दोष व्यक्ति के लिए संरक्षण:-

अत्याचार अधिनियम के अधीन अपराध कारित करने वाले निर्दोष व्यक्ति को उसी रीति में अग्रिम जमानत मंजूर नहीं की जानी चाहिए, जिस रीति में अग्रिम जमानत समान दण्डादेश से दण्डनीय अन्य मामलों में मंजूर की जाती है।

अभी भी प्रश्न यह रह जाता है कि क्या ऐसे मामलों में, जहाँ अधिनियम के अधीन कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है, वहाँ धारा 18 के अधीन रोक विचार किए जाने के लिए प्रवर्तित होती है। हम उक्त निर्णय को यह प्रतिपादित करने के रूप में पढ़ने में असमर्थ है कि अपवर्जन ऐसी स्थितियों में प्रयोज्यनीय होता है। यदि कोई व्यक्ति यह दर्शाने में समर्थ हो कि प्रथम दृष्टया यह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्य के विरुद्ध कोई अत्याचार कारित नहीं किया है और यह कि अभिकथन असद्भावपूर्वक था और प्रथम दृष्टया मिथ्या था और यह कि प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता है, तब हम ऐसे मामलों में धारा 18 को लागू करने के लिए कोई औचित्य नहीं देखते है।

बालोटिया के मामले में इस न्यायालय के मस्तिष्क में यह विचार है कि अत्याचार के अपराधियों को अग्रिम जमानत मंजूर नहीं की जानी चाहिए, जिससे कि वह पीड़ित व्यक्तियों से अत्याचार न कर सके। इस विचार से संगत यह निश्चित रूप में नहीं कहा जा सकता है कि निर्दोष व्यक्ति, जिसके विरुद्ध प्रथम दृष्टया कोई मामला न हो अथवा अभिव्यक्त रूप में मिथ्या मामला हो, से उस तरह से व्यवहार नहीं किया जा सकता है जैसा कि उन व्यक्तियों के साथ किया जाता है, जो प्रथम दृष्टया अपराध के अपराधी हैं।

दोषमुक्ति के विरुद्ध पुनरीक्षण:-

एक प्रकरण में परिवादी का यह प्रकथन इस कारण से झूठा साबित होता है कि मृत जानवर की हड्डी, जिससे अभियुक्त के द्वारा परिवादी की माँ पर प्रहार किया गया था. पुलिस के द्वारा अन्वेषण के दौरान जब्त नहीं की गई थी, न तो उसे न्यायालय के समक्ष साक्ष्य में प्रस्तुत किया गया था, जिसके अभाव में परिवादी के प्रकथन पर कोई विश्वास व्यक्त नहीं किया जा सकता है।

यह ऐसा मामला है, जिसमें परिवादी के अनुरोध पर विधि की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग किया गया था, क्योंकि उसने विशेष रूप से जाति का रंग देने के विचार से परिवादी पर ऐसे संकेतक शब्दों का प्रयोग किया था, जिससे कि उसके मामले को अधिनियम की धारा 3 (1) (i) के अधीन लाया जा सके।

विधायिका ने उक्त अधिनियम को अल्पसंख्यकों के हित को सुरक्षित तथा संरक्षित करने के विचार से, न कि उसे तुच्छ मामलों में वैयक्तिक कुलर बनाने के अस्त्र के रूप में प्रयोग करने के विचार से अधिनियमित किया है और स्वयं वर्तमान मामले की अपेक्षा उक्त अधिनियम के घोर दुरुपयोग का सबसे बेकार उदाहरण नहीं हो सकता है। इस प्रकरण में पुनरीक्षण तद्नुसार निरस्त किया गया।

विरले से विरलतम मामले की परिधि:-

उच्चतम न्यायालय ने मोहन अन्ना चावन के मामले में यह अभिनिर्धारित किया था कि प्रदान किए जाने वाले न्यायसंगत और उपयुक्त दण्डादेश को निर्णीत करने के लिए आवर्धक और परित्राणकारी परिस्थितियों, जिसमें अपराध कारित किया गया हो, के बीच सुसंगत परिस्थितियों के आधार संतुलन बैठाया जाना है।

टीपू सुल्तान विरुद्ध राजस्थान राज्य, 2018 क्रिमिनल लॉ जर्नल 3165 के मामले में विद्वान विचारण न्यायालय ने आवर्धक और परित्राणकारी परिस्थितियों के बीच संतुलन बैठाते समय हत्या, प्रच्छंन गृह अतिचार अथवा रात्रौ गृह भेदन, जहाँ एक अभियुक्त के द्वारा मृत्यु अथवा घोर उपहति कारित की गयी हो, के अपराध के साथ सामूहिक बलात्संग तथा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अधीन अपराध पर विचार किया है और उस आधार पर आजीवन कारावास तथा मृत्युदण्ड के बीच विकल्प के पास में मृत्यु दण्ड का अत्यधिक दण्ड अधिरोपित करना पसन्द किया है।

चूँकि पूर्वोक्त विचार-विमर्श की दृष्टि में हम यह पाते हैं कि अभियुक्त आवेदक के विरुद्ध सामूहिक बलात्संग का आरोप साबित नहीं हुआ है और उस आधार पर वर्तमान मामले में आवर्धनकारी तथा परित्राणकारी परिस्थितियों के तुलन पत्र साम्या विक्षुब्ध होगी, क्योंकि केवल हत्या का आरोप मामले को विरले से विरलतम की श्रेणी में नहीं लाएगा, जिससे के लिए मृत्युदण्ड प्रदान किया जाना है।

यदि विचारण न्यायालय अभियुक्त अपीलार्थीगण को मूलतः अन्य अपराधों के साथ केवल हत्या के अपराध के लिए दोषसिद्ध किया हो परन्तु सामूहिक बलात्संग के अपराध के लिए दोषसिद्ध न किया हो, तब वह संभाव्यतः मृत्युदण्ड का अत्यधिक दण्ड प्रदान करना पसन्द नहीं करेगा। इसलिए वर्तमान मामला "विरले से विरलतम" मामला होने के परीक्षण पर खरा नहीं उतरता है और इसलिए न्यायालय मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास से लघुकृत करता है।

जहाँ तक विचारण न्यायालय के द्वारा मृत्युदण्ड प्रदान करते समय जुर्माने का अधिरोपण न करने को प्रश्नगत करते हुए राजस्थान राज्य के द्वारा दाखिल को गयी अपील का सम्बन्ध है, चूँकि हम मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित करने का निश्चय किए हैं, इसलिए हम अभियुक्त प्रत्यर्थीगण पर जुर्माना भी अधिरोपित करने के लिए उपयुक्त समझे हैं।

अभियोजन के कर्तव्य:-

गुजरात राज्य बनाम नानिया उर्फ राजेन्द्र कुमार गुणवन्तराय राजगोड़, 2018 क्रि० लॉ ज० 4963 : 2019 के मामले में कहा गया है-

हालांकि, जहाँ तक अत्याचार अधिनियम की धारा 3 (1) (x) का सम्बन्ध है, साक्ष्य यह इंगित करता है कि अभियुक्त-नानिया और भोलियो के द्वारा इत्तिलाकर्ता और साक्षियों की जाति के सम्बन्ध में अपमानजनक प्रकथन किया गया था, जो अत्याचार अधिनियम की धारा 3 (1) के निर्णायक और मूलभूत आवश्यक तत्वों में से एक है, जिसका अभियोजन मामले में अभाव है। ऐसा व्यक्ति, जो अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति का सदस्य न हो, को केवल अधिनियम की धारा 3 के अधीन अभियोजित किया जा सकता है।

इसलिए अभियोजन के लिए यह साबित करना आवश्यक था कि अभियुक्त अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के सदस्य नहीं थे। अन्वेषक के द्वारा बिना मन के तथा सामान्य कथन के सिवाय उसकी जानकारी में यह आया है कि अभियुक्तगण ऊँची जाति के सदस्य थे, यह साबित करने के लिए कोई सशक्त साक्ष्य नहीं है कि इस तथ्य को मामले के अभिलेख पर लाया गया था।

इस प्रक्रम पर भी कोई साक्ष्य नहीं बताया गया है और इस प्रकार अभियुक्त के विरुद्ध उक्त प्रावधान के अधीन कोई मामला नहीं बनता है। ऐसे साक्ष्य के अभाव में अभियुक्त का अत्याचार अधिनियम की धारा 3 (1) (x) के अधीन दण्डनीय अपराध के लिए विचारण नहीं किया जा सकता था।

अधिनियम के अधीन अपराध पर टिप्पणी:-

भारत का संविधान' अस्पृश्यता को समाप्त करता है, परन्तु उन सामाजिक दृष्टिकोणों, जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध ऐसे अपराधों को कारित करने के लिए अग्रसर करते हैं, को ध्यान में रखते हुए इस आशंका के लिए औचित्य है कि यदि ऐसे व्यक्तियों को, जो ऐसे अपराधों को कारित करने के लिए अभिकथित किए गये हों, को अग्रिम जमानत का लाभ प्रदान किया जाता है, तब अग्रिम जमानत पर रहते हुए अपने पीड़ितों को आतंकित करते हुए तथा उचित अन्वेषण को निवारित करते हुए अपनी स्वतन्त्रता के दुरुपयोग की प्रत्येक संभावना है। यह इस संदर्भ में है कि अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 18 को समाविष्ट किया गया है। ऐसे अपराध, जो अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3 के अधीन प्रगणित किए गये हों, ऐसे अपराध हैं, जो कम से कम अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को समाज की दृष्टि में अपमानित करते हैं और उन्हें गरिमा तथा आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने से निवारित करते हैं।

ऐसे अपराध अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को उन्हें गुलामी की अवस्था में रखने के विचार से अपमानित करते हैं। ये अपराध भिन्न श्रेणी गठित करते हैं। और इनकी तुलना दण्ड संहिता के अधीन अपराधों से नहीं की जा सकती।

धारा 3 ( 1 ) (x) का विस्तार क्षेत्र:-

ई० के० नयनार बनाम एम० ए० कुट्टयप्पन, 1997 (2) क्राइम्स 119 (केरल) के मामले में यह तर्क किया गया था कि किसी व्यक्ति को उसकी उपस्थिति के बिना बोर्ड पर यह प्रदर्शित करके भी अपमानित किया जा सकता है कि अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति से सम्बन्धित लोगों को किसी स्थान में प्रवेश करने के लिए अनुज्ञात नहीं किया जायेगा, को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है, इसके कारण कोई कृत्य सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 7 (1) (घ) को आकर्षित करते हुए अस्पृश्यता के आधार पर अपमान, न कि वर्ष 1989 को अधिनियम संख्यांक 33 की धारा 3 (x) के अधीन यथा अनुचिंतित अपमान हो सकता है।

अधिनियम की धारा 3 ( 1 ) (x) की प्रयोज्यता:-

अधिनियम की धारा 3 (1) (x) तब प्रयोज्य होती है, जब कोई व्यक्ति साशय जनता को दृष्टिगोचर किसी स्थान में अनुसूचित जातियों अथवा अनुसूचित जनजातियों के किसी सदस्य को अपमानित अथवा अभिप्रासित करता है। अधिनियम विशेष अधिनियमिति है, जो अनुसूचित जातियों अथवा अनुसूचित जनजातियों के सदस्य के विरुद्ध अत्याचारों को दण्डित करने के लिए आशयित है।

रवीन्द्र कुमार मिश्रा बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश, के प्रकरण में परिवादी के विरुद्ध आवेदक पर उपारोपित दुरुपयोग के शब्द केवल 'मूर्ख' और 'नासमझ' हैं, जिनका उस समाज से कोई सम्बन्ध नहीं है और इन शब्दों से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि अपमान अथवा अभित्रास उस समाज के संदर्भ में है, जिससे परिवादी सम्बन्धित है। इसलिए अधिनियम की धारा 3 (1) (x) के अधीन आरोप अपास्त किया गया।

यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिनियम के अधीन दण्डनीय अपराध केवल उस व्यक्ति पर, जो अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के सदस्य से सम्बन्धित न हो, उपारोपित किया जा सकता है, चूंकि वर्तमान मामले में, याचीगण अनुसूचित जाति समुदाय से सम्बन्धित थे, इसलिए प्रावधान आकर्षित नहीं होगा अत्याचार निवारण अधिनियम के अधीन अपराध से सम्बन्धित प्रथम सूचना रिपोर्ट में परिवाद, जहाँ तक यह याचीगण से सम्बन्धित है, अभिखण्डित किये जाने के लिए दायी था।

दोषमुक्ति:-

अपीलार्थीगण की विधिविरुद्ध जमाव बनाये जाने के कारण दोषसिद्धि विधि में अन्यायसंगत है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1999 के अधीन भी कोई मामला नहीं बनता है, क्योंकि अपीलार्थीगण का कृत्य किसी जाति के आधार पर नहीं किया गया था और यह शुद्ध सिविल विवाद के कारण होना प्रतीत होता है। इसलिए अपीलार्थीगण दोषमुक्त किये जाने के हकदार हैं।

परिवाद मामला पर विधि:-

शब्दों "और ऐसे मामले में, जहाँ अभियुक्त उस क्षेत्र के परे, जिसमें वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, के स्थान में निवास कर रहा हो" को दिनांक 23.6.2006 से प्रभावी दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम (केन्द्रीय अधिनियम 25 वर्ष 2005) के द्वारा अन्तः स्थापित किया गया था। विधायिका की राय में उक्त संशोधन आवश्यक था, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों, जो दूर स्थानों पर निवास कर रहे थे, को उन्हें परेशान करने के लिए उनके विरुद्ध मिथ्या परिवाद दाखिल किए गये थे।

मिथ्या परिवाद दूर स्थान पर निवास करने वाले व्यक्तियों को उन्हें मात्र परेशान करने के लिए उनके विरुद्ध दाखिल किए गये थे। यह देखने के लिए कि निर्दोष व्यक्तियों को अविवेकहीन व्यक्तियों के द्वारा परेशान न किया जाय, यह खण्ड मजिस्ट्रेट पर यह बाध्यकारी बनाते हुए धारा 202 की उपधारा (1) संशोधन की माँग करता है कि अपनी अधिकारिता के परे निवास करने वाले अभियुक्त को समन करने के पहले वह स्वयं यह जानने के लिए मामले की जाँच करेगा अथवा पुलिस अधिकारी के द्वारा अथवा ऐसे अन्य व्यक्ति के द्वारा, जैसे वह उपयुक्त समझे, अन्वेषण के लिए निर्देशित करेगा कि क्या अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार था अथवा नहीं।

दुष्प्रेरण और षड़यंत्र:-

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 (ख) आपराधिक षड़यंत्र के लिए दंड का वर्णन करती है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 109 दुष्प्रेरण के लिए दण्ड का वर्णन करती है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 (ख), जो आपराधिक षड़यंत्र के लिए दण्ड का वर्णन करती है, जो स्पष्ट रूप में यह दर्शाती है कि दोषसिद्धि और दण्डादेश ऐसे मामले में प्रदान किया जाना है, जिसमें अभियुक्त के विरुद्ध षड्यंत्र से सम्बन्धित आरोप अभियोजन के द्वारा सशक्त और विश्वसनीय साक्ष्य के माध्यम से साबित होता है। इसी प्रकार, भारतीय दण्ड संहिता को धारा 302 ऐसे दुष्प्रेरण का वर्णन करती है, जिसके लिए दुष्प्रेरण के आरोप को अभियुक्त के साबित करने पर दोषसिद्धि और दण्डादेश प्रदान किया जाना हो।

इस अधिनियम की धारा 3 ( 1 ) (x) और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 509 के अधीन अपराध:-

इस अधिनियम की धारा 3 (1) (x) और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 509 के अधीन अपराध के मामले में, जहाँ अभियोजन अभियुक्त के द्वारा कथित कतिपय शब्दों पर स्थित था, जो वास्तव में, वे शब्द थे जो सर्वोपरि महत्व के होंगे। वे शब्द इसके बारे में सुझाव देंगे कि क्या अभियुक्त अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के उक्त सदस्य को अपमानित करने का आशय रखता था, अथवा, जैसी भी स्थिति हो, ऐसे सदस्य की लज्जा भंग करने का आशय रखता था। जब उन शब्दों से सम्बन्धित प्रकथन में गंभीर मतभेद हो, तब अभियोजन मामला अपेक्षाकृत संदेहास्पद हो जाता है। यह ऐसा नहीं है, मानो शब्द ऐसे हों, जिन्हें शब्दशः साबित किया गया जाना हो। तथापि, कम-से-कम अभियोजन को यह साबित करना चाहिए कि वास्तव में क्या कहा गया था और क्या जो वास्तव में कहा गया था, जाति के नाम से उसे अपमानित करने के विचार से किया गया था।

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन आवेदन की अनुज्ञेयता:-

राजेन्द्र सिंह बनाम स्टेट आफ उत्तराखण्ड, 2014 क्रि० लॉ ज० 1959 के मामले में यह तर्क किया गया कि हालांकि प्रथम सूचना रिपोर्ट की अंतर्वस्तुओं को सत्य होना स्वीकार किया गया था, फिर भी आवेदकगण के विरुद्ध अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3 (1) (x) का कोई आवश्यक तत्व प्रथम दृष्टया इस अर्थ में नहीं बनता था कि इत्तिलाकर्ता ने यह कहीं नहीं कहा कि अभियुक्तगण उन शब्दों का प्रयोग जानबूझ करके उसे अपमानित करने के आशय से किये थे कि वह अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के समुदाय से सम्बन्धित है।

आवेदकगण के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323, 504, 506, 120 ख के अधीन अपराध का आधार प्रस्तुत किया गया था, परन्तु धारा 3 (1) (x) के अधीन कोई मामला नहीं बनता है। इसलिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन आवेदन को धारा 3 (1) (x) के अपवर्जन की सोमा तक आंशिक रूप से अनुज्ञात किया गया।

आशय का निर्वचन:- क्या 'चमार' शब्द के प्रयोग द्वारा अपमानित करने या नीचा दिखाने का आशय था, निःसन्देह उस सन्दर्भ पर निर्भर करता है जिसमें इसका प्रयोग किया गया था।

अभियुक्त का आशय का विचारण:- जहाँ तक अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (x) के अधीन अपराध का सम्बन्ध है, यह उस अपराधी, जो अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति का सदस्य न हो, के द्वारा अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के सदस्य को सार्वजनिक दृष्टि के भीतर किसी स्थान में उसे अपमानित करने के आशय ये साशय अपमान अथवा अभित्रास को अपेक्षा करता है।

प्रथम सूचना रिपोर्ट 1 व्यक्तियों को इंगित करती है और यदि एक व्यक्ति को प्रकीर्ण वाद संख्या 497 वर्ष 2017 दाखिल करने को दृष्टि में अपवर्जित किया जाता है, तब इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। न्यायिक अवेक्षा कार्यालयीय समय के दौरान जिला विद्यालय निरीक्षक के स्टॉफ को उपस्थिति के सम्बन्ध में ली जा सकती है। अन्वेषण के अनुक्रम के दौरान अभिलिखित किए गये साक्षियों के कथन प्रथम सूचना रिपोर्ट में प्रकथित तथ्यों को सम्पुष्ट करते हैं। सभी साक्षीगण उन्हें साशय अपमानित तथा अभित्रासित करने के सम्बन्ध में कथन किए हैं और वे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यगण हैं।

याची के द्वारा 'कोली जाति' और 'बौरी' जैसे कुछ इत्तिलाकर्ताओं की विनिर्दिष्ट जाति के नामों का प्रयोग न करना थोड़ा अन्तर करता है। वह पाठ तथा संदर्भ, जिसमें भाषा का प्रयोग किए जाने का कथन किया गया है, प्रथम दृष्टया प्रयोग करने वाले व्यक्ति का इत्तिलाकर्तागण को अपमानित करने का आशय प्रदर्शित करता है।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :4 अधिनियम के अंतर्गत दण्डादेश की आनुपातिकता, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) और दोषमुक्ति के विरुद्ध पुनरीक्षण (धारा-3)

यदि कोई व्यक्ति भवन के भीतर अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के सदस्य को अपमानित करने के विचार से टिप्पणी अथवा प्रकथन करता है, तब वह अभियोजित किए जाने के लिए दायी होगा, परन्तु ऐसी टिप्पणियाँ अथवा प्रकथन या तो जनता को दृश्यमान हों या उन्हें श्रव्य हों।

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