घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 16: घरेलू हिंसा के मामले में प्रक्रिया
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) की धारा 28 अधिनियम में दिए गए प्रावधानों के संबंध में प्रक्रिया निर्धारित करती है। किसी भी अधिनियम को या तो मूल विधि कहा जाता है या प्रक्रिया विधि कहा जाता है।
जैसे कि भारतीय दंड संहिता एक मूल विधि है जो यह बताती है कि अपराध क्या है एवं दंड प्रक्रिया संहिता एक प्रक्रिया विधि है जो यह बताती है कि किसी अपराध में किसी व्यक्ति को दंडित कैसे किया जाएगा। इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 28 में इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है कि इस अधिनियम को प्रवर्तन में लाने के लिए किस प्रक्रिया को अपनाया जाएगा। इस आलेख के अंतर्गत धारा 28 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।
यह अधिनियम में प्रस्तुत मूल धारा है
धारा 28
प्रक्रिया
(1) इस अधिनियम में अन्यथा उपबन्धित के सिवाय धारा 12, धारा 18, धारा 19, धारा 20, धारा 21, धारा 22 और धारा 23 के अधीन सभी कार्यवाहियाँ और धारा 31 के अधीन अपराध, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के उपबन्धों द्वारा शासित होंगे।
(2) उपधारा (1) की कोई बात, धारा 12 के अधीन या धारा 23 की उपधारा (2) के अधीन किसी आवेदन के निपटारे के लिए अपनी स्वयं की प्रक्रिया अधिकथित करने से न्यायालय को निवारित नहीं करेगी।
धारा 28 (1) विनिर्दिष्ट रूप से यह प्रावधान करती है कि धारा 12 के अधीन सभी कार्यवाहियां दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के द्वारा शासित होगी, यह प्रकृति में निशेदात्मक है और दण्ड प्रक्रिया संहिता से प्रावधानों से कोई विचलन धारा 12 के अधीन संस्थित की गई कार्यवाही को दूषित नहीं करेगा। इसलिए यह न्यायालय यह अभिनिर्धारित करेगा कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 12 के अधीन कार्यवाही पर विचार करते समय न्यायालय यथासंभव दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों का पालन करेगी।
हालांकि दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों से किसी विचलन को इस तथ्य की दृष्टि में कार्यवाही को दूषित करने का प्रभाव नहीं होगा कि संविधि स्वयं न्यायालय के लिए धारा 12 के अधीन आवेदन के निस्तारण हेतु स्वयं अपनी प्रक्रिया को प्रतिपादित करने के लिए विनिर्दिष्ट रूप से प्रावधान करती है।
अधिनियम की धारा 28 (1) यह प्रावधान करती है कि अधिनियम के अधीन अधिकांश कार्यवाही दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों के द्वारा शासित होगी, फिर भी अधिनियम की धारा 28 (2) न्यायालय को अधिनियम की धारा 12 के अधीन मुख्य आवेदन के साथ ही साथ धारा 23 (2) के अधीन अन्तर्वतों आवेदन के निस्तारण के लिए स्वयं अपनी प्रक्रिया प्रतिपादित करने के लिए न्यायालय को पर्याप्त शिथिलता प्रदान करती है।
धारा 28 की उपधारा (2) यह प्रावधान करती है कि उपधारा (1) में कोई बात न्यायालय को अधिनियम की धारा 12 के अधीन आवेदन के निस्तारण के लिए स्वयं अपनी प्रक्रिया प्रतिपादित करने से निवारित नहीं करेगी अधिनियम की धारा 28 की उपधारा (1) और (2) तथा नियमावली के नियम 6 (5) के संचयी वाचन के द्वारा यह प्रतीत होता है कि अधिनियम की धारा 28 को उपधारा (2) अधिनियम की विलक्षण प्रकृति को तथा अधिनियम की धारा 28 (1) के प्रावधान के सम्बन्ध में पूर्वोलिखित संदिग्धता के अस्तित्व को ध्यान में रखते हुए अधिनियमित की जानी प्रतीत होती है, परन्तु अब उस संदिग्धता को केन्द्रीय सरकार के द्वारा अधिनियम की धारा 37 के द्वारा प्रदान की गई अपनी शक्तियों के अधीन समाप्त कर दिया गया है।
प्रयोज्यता
धारा 23 की उपधारा (1) के अधीन कार्यवाही को, जो अन्तरिम आदेश पारित करने के लिए अनुमति देती है, धारा 28 (1) के परिणामस्वरूप दण्ड प्रक्रिया संहिता के उपबन्ध द्वारा शासित किया जाना चाहिए किन्तु एकपक्षीय आदेश की स्वीकृति के लिए कार्यवाही में सभी कार्य स्वयं न्यायालय द्वारा विरचित प्रक्रिया द्वारा, यदि कोई हो या ऐसे प्ररूप में, जैसा कि विहित किया जाय, शपथ-पत्र के आधार पर होगा।
अन्तिम निष्कर्ष एकपक्षीय आदेश की स्वीकृति के लिए होगा, मजिस्ट्रेट को आवश्यक रूप से दण्ड प्रक्रिया संहिता के उपबन्धों को लागू करने की आवश्यकता नहीं है किन्तु वह ऐसे प्ररूप में, जैसा कि विहित किया जाय, शपथ-पत्र के रूप में सामग्री के आधार पर या प्रक्रिया का, जिसे उसने विहित किया है (यदि कोई हो) अनुसरण करते हुए ऐसा आदेश पारित कर सकता था।
किन्तु जब मजिस्ट्रेट एकपक्षीय अनुतोष को प्रदान करने से इन्कार करता है और प्रत्युत्तरदाता (नोटिस के पूर्व) को अधिसूचित करता है, तो उसे सुना जाना चाहिए और ऐसे मामलों में धारा 28 (1) लागू होती है और दण्ड प्रक्रिया संहिता द्वारा विहित प्रक्रिया लागू होती है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की प्रयोज्यता घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 28 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों को, जहाँ तक यह धारा 12, 18, 19, 20, 21, 22 और 23 के अधीन सभी कार्यवाहियों तथा धारा 31 के अधीन अपराधों के लिए प्रयोज्यनीय है, प्रयोज्यनीय बनाती है। यह विनिर्दिष्ट रूप से घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के अधीन अथवा धारा 23 को उपधारा (2) के अधीन आवेदनों पर विचार करने वाले न्यायालयों को उसके निस्तारण के लिए स्वयं अपनी प्रक्रिया प्रतिपादित करने की विनिर्दिष्ट रूप से स्वतन्त्रता प्रदान करती है।
मामलों के विचारण के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता द्वारा विहित प्रक्रिया
वर्तमान मामले में, मजिस्ट्रेट ने प्रत्यर्थी द्वारा किये गये वाद पर अन्तरिम अनुतोष "एकपक्षीय" को प्रदान करने से इनकार किया था। मंजिस्ट्रेट ने याची पूर्व नोटिस जारी किया था और इसलिए आदेश धारा 23 को उपधारा (1) के परिक्षेत्र के अन्तर्गत आता है और यह धारा 23 की उपधारा (2) में निर्दिष्ट एकपक्षीय आदेश नहीं है।
यदि एकबार उपधारा (2) लागू नहीं है, तो इस धारा को उपधारा (1) और आवश्यक रूप से दंड प्रक्रिया सहिंता द्वारा विहित प्रक्रिया का अनुसरण किया जाना चाहिए। विधिक परिणाम यह हैं कि अपराध और विहित दण्ड की प्रकृति पर आधारित मामलों के विचारण के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता द्वारा विहित प्रक्रिया लागू होती है और उस प्रक्रिया का अनुसरण किया जाना चाहिए।
स्वतन्त्र और निष्पक्ष विचारण
निष्पक्ष विचारण की ईकारी अभियुक्त के प्रति इतना अन्याय है, जितना यह पीड़ित व्यक्ति और समाज के प्रति है। यह आवश्यक रूप से निष्पक्ष न्यायाधीश, निष्पक्ष अभियोजक और न्यायिक शांति के वातावरण के समक्ष विचारण को अपेक्षा करता है।
चूंकि विचारण का उद्देश्य न्याय प्रदान करना और दोषी व्यक्ति को दोषसिद्ध करना तथा निर्दोष व्यक्ति को संरक्षित करना है, इसलिए विचारण सच्चाई तलाशने के लिए, नकि तकनीकियों से उभरने के लिए होना चाहिए और इसे ऐसे नियमों के अधीन किया जाना चाहिए, जो निर्दोष व्यक्तियों को संरक्षित करेगा और दोषी व्यक्तियों को दण्डित करेगा। न्याय न केवल किया जाना चाहिए, वरन् किया गया प्रतीत होना चाहिए।
निष्पक्ष विचारण प्राप्त करने का अधिकार मूलभूत मौलिक अधिकार है
स्वतन्त्र और निष्पक्ष विचारण संविधान के अनुच्छेद 21 के लिए अपरिहार्य है। निष्पक्ष विचारण प्राप्त करने का अधिकार न केवल मूलभूत मौलिक अधिकार है, वरन् मानव अधिकार भी है। इसलिए निष्पक्ष विचारण में कोई बाधा संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघनकारी होगी।
सुनवाई का अवसर अधिनियम की धारा 28 को उपधारा (2) यह प्रावधान करती है कि न्यायालय को अधिनियम की धारा 12 के अधीन आवेदन अथवा धारा 23 की उपधारा (2) के अधीन आवेदन के निस्तारण के लिए स्वयं अपनी प्रक्रिया प्रतिपादित करने के लिए सशक्त किया गया है।
इसलिए अधिनियम की धारा 23 के अधीन अन्तरिम अनुतोष प्रदान करने के लिए पृथक आवेदन दाखिल करने की कोई अपेक्षा नहीं होती है तथापि एकपक्षीय अन्तरिम अथवा अन्तरिम अनुतोष प्रदान करने के प्रश्न पर विचार करते समय विद्वान मजिस्ट्रेट को अधिनियम की धारा 12 (1) के अधीन मुख्य आवेदन में इंप्सित अनुतोषों को प्रकृति पर विचार करना होगा, क्योंकि अधिनियम की धारा 23 के अधीन अन्तरिम अनुतोष मुख्य आवेदन में ईप्सित अन्तिम अनुतोष को सहायता में प्रदान किया जा सकता है।
दिये गये मामले में नियमावली द्वारा विहित प्ररूप तीन में शपथ पत्र के आधार पर मजिस्ट्रेट एकपक्षीय अन्तरिम अनुतोष प्रदान कर सकता है। तथापि अन्तरिम अनुतोष प्रदान करने के पहले प्रत्यर्थी को सुने जाने का अवसर प्रदान किया जाना है। प्रत्यर्थी सदैव शपथ-पत्र के लिए उत्तर दाखिल कर सकता है।
विचारण का स्थान
दाण्डिक अपराध के मामले में विचारण का स्थान सामान्यतः उस न्यायालय के समक्ष होता है, जिसकी प्रादेशिक सीमाओं के भीतर अपराध कारित किया गया था, अधिनियम की धारा 12 के अधीन आवेदन को स्वीकार करने के लिए फोरम प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट अथवा महानगर मजिस्ट्रेट, जैसी भी स्थिति हो, होता है, जिसकी स्थानीय सीमाओं के भीतर :
(क) व्यथित व्यक्ति स्थायी रूप से अथवा अस्थायी रूप से निवास करता है अथवा व्यवसाय करता है अथवा नियोजित किया गया है अथवा
(ख) प्रत्यर्थी निवास करता है अथवा व्यवसाय करता है अथवा नियोजित किया गया है,अथवा
(ग) वाद हेतुक उद्भूत हुआ है।
अपराध का विचारण
अधिनियम, 2005 की धारा 18 मजिस्ट्रेट पर घरेलू हिंसा के विरुद्ध संरक्षण आदेश पारित करने के लिए शक्ति प्रदत करती है। धारा 19 निवास आदेश के लिए प्रावधान करती है। धारा 20 मौद्रिक लाभ के लिए प्रावधान करती है। धारा 21 बच्चों की अभिरक्षा के लिए प्रावधान करती है धारा 22 प्रतिकर के लिए प्रावधान करती है।
मुख्य अनुतोष उक्त अधिनियम की धारा 18 से 22 के अधीन प्रदान किया जा सकता है। उक्त अधिनियम का कोई प्रावधान भारतीय दण्ड संहिता अथवा किसी अन्य विधि के प्रावधानों के अधीन दण्डनीय अपराध को विचारित करने के लिए प्रावधान नहीं करता है।
घरेलू हिंसा की जांच अधिनियम की धारा 28 यह प्रावधान करती है कि अधिनियम की धारा 12 और 18 से 23 के अधीन सभी कार्यवाहियां तथा धारा 31 के अधीन सभी अपराध दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के द्वारा शासित होंगे।
इसलिए इससे यह समझा जाता है कि अपराधों की जांच से सम्बन्धित दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान अधिनियम के अधीन जांचों के लिए भी प्रयोज्यनीय होते हैं। अन्य शब्दों में जांचों और विचारणों से सम्बन्धित दण्ड न्यायालयों की अधिकारिता का वर्णन करने वाला दण्ड प्रक्रिया संहिता का अध्याय 13 अधिनियम के अधीन कार्यवाहियों को प्रयोज्यनीय होता है।
"जांच" और "विचारण" के बीच अन्तर न्यायालय के द्वारा 'जांच' आरोप पत्र अथवा परिवाद दाखिल करने के पश्चात् प्रारम्भ होती है और यह विचारण के पहले होती है, जबकि "विचारण" आरोप विरचित करने तथा साक्ष्य अभिलिखित करने पर प्रारम्भ होता है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट का मूलभूत प्रयोजन
प्रथम सूचना रिपोर्ट दाखिल करने का मूलभूत प्रयोजन दाण्डिक विधि को गतिमान बनाना, न कि उसमें सभी सूक्ष्म विवरणों का कथन करना है। यह अवेक्षित करना सुसंगत है कि छ: घृणित तथा नृशंस हत्याएं हुई हैं, जिसमें अग्न्यायुधों का प्रयोग किया गया था। जीवन की स्पष्ट वास्तविकता यह है कि व्यक्ति, जो भयानक घटना में अपने बन्धु तथा बान्धवों को खो देता है, बहुत आघात झेलने के लिए संभाव्य है और इसलिए विधि उससे अपनी प्रथम सूचना रिपोर्ट में या तो सूक्ष्म विवरणों को देने या धारा 161 के अधीन कथन करने की अपेक्षा नहीं करेगी।
प्रथम सूचना रिपोर्ट का प्रकार सामान्यतः प्रथम सूचना रिपोर्ट दो प्रकार की होती (1) धारा 154 (1) के अधीन सम्यक् रूप से हस्ताक्षरित प्रथम सूचना रिपोर्ट इत्तिलाकर्ता के द्वारा पुलिस अधिकारी को प्रदान की जाती है और (2) इत्तिलाकर्ता से भिन्न व्यक्ति के द्वारा प्राप्त की गई किसी सूचना पर स्वयं पुलिस के द्वारा रजिस्ट्रीकृत प्रथम सूचना रिपोर्ट।
विवाद्यक का विरचन
सिविल कार्यवाही में दावे तथा उत्तर अथवा लिखित कथन का परिशीलन करने के पश्चात् विवाद्यक विरचित किये जाते हैं। विवाद्यक तब विरचित किये जाते हैं, जब तथ्य अथवा विधि की तात्विक प्रतिपादना को एक पक्षकार द्वारा अभिपुष्ट किया जाता है और अन्य पक्षकार के द्वारा इंकार किया जाता है।
विवाद्यकों को विरचित करने का उद्देश्य सिविल कार्यवाही में सुभिन्न भूमिका निभाता है और सम्पूर्ण उद्देश्य मुख्य प्रश्नों पर पक्षकारों का ध्यान आकर्षित करना है, जिन पर वे भिन्न होते हैं और उन्हें विवाद को सही तौर पर निर्णीत करने में बिन्दुओं को प्राप्त करने के प्रयोजन के लिए तथा वादकरण को अन्तिमता प्रदान करने के लिए विरचित किये जाते हैं।
जब तक उचित विवाद्यक विरचित न किये गये हों, तब तक वह पक्षकार, जो उचित विवाद्यकों पर आधारित न होने वाले निष्कर्षो के आधार पर निर्णय से झेलता है, को यह तर्क करने के लिए विधिमान्य शिकायत प्राप्त हो सकती है कि विवाद्यकों के ऐसे विरचण के कारण उसे सुसंगत तथ्यों का खण्डन करने के लिए उचित साक्ष्य प्रस्तुत करने के अवसर इंकार किया गया है। विवाद्यक विधि अथवा तथ्य के हो सकते हैं और विवाद्यकों को विरचित करना न्यायालयों का कर्तव्य होता है।
विवाद्यक अनुतोषों के आधार पर भी विरचित किया जा सकता है। हालांकि इस प्रकृति के मामलों में, जहाँ ऐसा कोई अभियोजन न हो, और आवेदन ईप्सित अनुतोषों का उल्लेख करके विहित प्ररूप में दाखिल किया गया हो, तब यह वांछनीय होगा कि न्यायालय दोनों पक्षकारों को सुनने के पश्चात् याची के द्वारा ईप्सित अनुतोषों के आधार पर विवाद्यकों को विरचित करता है, जिससे की प्रत्येक व्यक्ति को अन्य व्यक्ति का मामला प्राप्त हो सके और ऐसे अन्य व्यक्तियों के प्रतिपेषण से उपेक्षित किया जा सके।
यदि इस प्रक्रिया का पालन किया जाता है, तब किसी अनुतोष पर विचार न किये जाने तथा निर्णीत न किये जाने का कोई प्रश्न नहीं होता है, जैसा कि वर्तमान मामले में है। यह पक्षकारों के बीच विवाद को भी कम कर सकता है, यदि आवेदन में स्तम्भों का ऐसे मस्तिष्क का प्रयोग किये बिना उल्लेख किया गया हो।
आरोप की पोषणीयता
श्रीमती गीता बनाम श्रीमती राज बाला, 2009 (4) के मामले में पंजाब उच्च न्यायालय ने यह अभिलिखित किया था कि याचीगण को अधिनियम की धारा 12 और 19 से 23 के अधीन अपराधों के लिए समन किया गया था और मजिस्ट्रेट ने याचीगण को दिनांक 19 जुलाई 2006 को समन किया था, हालांकि अधिनियम दिनांक 26 अक्टूबर, 2006 से प्रवर्तन में आया था।
यह अभिनिर्धारित किया गया था चूंकि अधिनियम के विभिन्न धाराओं के अधीन याची अपराध कारित करने के लिए अभिकथित किया गया था, जो ऐसे कृत्य के तारीख पर प्रवर्तन में नहीं थी, इसलिए उसके विरुद्ध विरचित किया गया आरोप संविधान के अनुच्छेद 20 (1) में अन्तर्विष्ट प्रावधानों के दृष्टि में पोषणीय नहीं होगा।
वर्तमान मामले में प्रत्यर्थों के विरुद्ध दिनांक 26 अक्टूबर, 2006 को अधिनियम के प्रवर्तन में आने के पहले न तो कोई आदेश पारित किया गया था, न ही अधिनियम के प्रावधानों के अधीन कोई अपराध कारित करने के लिए समन किया गया था। इसलिए इस निर्णय की कोई प्रयोज्यनीयता नहीं है।
मजिस्ट्रेट की अधिकारिता धारा 28 यह प्रावधान करती है कि अधिनियम में यथा अन्यथा उपबन्धित के सिवाय धारा 12, 18, 19, 20, 21, 22 और 23 के अधीन सभी कार्यवाहियां और धारा 31 के अधीन अपराध दण्ड प्रक्रिया संहिता के द्वारा शासित होंगे। धारा 28 की उपधारा (2) पुनः यह प्रावधान करती है कि उपधारा (1) में कोई बात न्यायालय को धारा 12 के अधीन अथवा धारा 23 की उपधारा (2) के अधीन आवेदन के निपटारे के लिए स्वयं अपनी प्रक्रिया प्रतिपादित करने से निवारित नहीं करेगी।
अधिनियम अथवा नियमावली में मजिस्ट्रेट को संरक्षण अधिकारी अथवा सेवा प्रदाता से घरेलू घटना की रिपोर्ट के अभाव में धारा 12 के अधीन एक अथवा अधिक अनुतोष की मांग करने के लिए आवेदन का संज्ञान लेने से निवारित नहीं करती है। अधिनियम का प्रयोजन व्यथित व्यक्ति को तत्काल अनुतोष प्रदान करना है।
इस प्रकार, किसी भी दृष्टिकोण से देखे जाने पर याचीगण के अधिवक्ता के इस तर्क में कोई बल नहीं है कि मजिस्ट्रेट को संरक्षण अधिकारी अथवा सेवा प्रदाता के द्वारा घरेलू घटना की रिपोर्ट के पहले धारा 12 के अधीन आवेदन का संज्ञान लेने की कोई अधिकारिता प्राप्त नहीं है।
मजिस्ट्रेट द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया अधिनियम की धारा 28 के निबन्धनों में मजिस्ट्रेट के द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया यह है, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता में विहित की गई है। अधिनियम की धारा 28 की उपधारा (2) यह प्रावधान करती है कि उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट कोई भी बात न्यायालय को अधिनियम की धारा 12 के अधीन आवेदन के निस्तारण के लिए स्वयं अपनी प्रक्रिया प्रतिपादित करने से निवारित नहीं करेगी।
मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की स्थानीय अधिकारिता
यह स्वीकृत तथ्य है कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की फाइल पर न तो आवेदक, न हो प्रत्यर्थीगण या तो म्यूजियम पुलिस थाना या वालियाथुरा पुलिस थाना, जो केवल ऐसे दो पुलिस थाना हैं, जो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, तिरुवनन्तपुरम की स्थानीय अधिकारिता के भीतर आते हैं, की स्थानीय सीमाओं के भीतर निवास करते हैं, अथवा व्यवसाय करते हैं अथवा नियोजित किये गये हैं। इसी तरह अभिकथित बाद हेतुक का कोई भाग पूर्वोक्त दोनों पुलिस थानों की स्थानीय सीमाओं के भीतर उद्भूत नहीं होता है।
यदि ऐसा है, तब मुख्य को अधिनियम के अधीन कोई जांच करने अथवा कोई संरक्षण अथवा अन्य आदेश पारित करने अथवा मंजूर करने की कोई अधिकारिता प्राप्त नहीं है। अवर न्यायालयों द्वारा प्रादेशिक अधिकारिता के प्रश्न पर पारित किये गये आदेश तदनुसार अपास्त किये जाते हैं और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, तिरुवनन्तपुरम को परिवाद अधिकारिता रखने वाले उचित न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए वापस लौटाये जाने के लिए निर्देशित किया जाता है।
मजिस्ट्रेट का आदेश
मजिस्ट्रेट से नियम 6 (5), सपठित अधिनियम की धारा 29 (1) के प्रावधानों का अनुपालन करना आवश्यक था और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन आवेदन के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में यथा प्रतिपादित प्रक्रिया का पालन किया जाना आवश्यक था। स्वीकृत रूप से उसे अनुसरित नहीं किया गया है। इस आधार पर आक्षेपित आदेश त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है।
मजिस्ट्रेट के आदेश की प्रकृतिविधि को अधिनियमित करने का प्रयोजन महिला का घरेलू हिंसा की पीड़िता होने से संरक्षण के लिए सिविल विधि में उपचार प्रदान करना और समाज में घरेलू हिंसा की घटना को निवारित करना था। इसी कारण से अधिनियम की योजना उपबन्ध करती है कि प्राथमिक रूप से, आदेश, जो व्यथित व्यक्ति द्वारा परिवाद पर मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया जायेगा, सिविल प्रकृति का होगा और यदि उक्त आदेश का उल्लंघन किया जाता है, तो यह आपराधिकता की प्रकृति को धारण करता है।
धारा 12 के अधीन आवेदन के निस्तारण के लिए प्रक्रिया
यह सत्य है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 और 202 के अधीन यथोपबन्धित कथनों को अभिलिखित करना नोटिस जारी करने के पहले आवश्यक नहीं है, क्योंकि अधिनियम की धारा 12 के अधीन आवेदन एक आवेदन, न कि परिवाद होता है हालांकि, मजिस्ट्रेट का यह कृत्य कार्यवाही को अभिखण्डित करने का आधार नहीं हो सकता है, क्योंकि अधिनियम की धारा 28 की उपधारा (2) के द्वारा यथोपबन्धित न्यायालय/मजिस्ट्रेट को अधिनियम की धारा 12 के अधीन आवेदन के निस्तारण के लिए स्वयं अपनी प्रक्रिया प्रतिपादित करने से निवारित नहीं किया गया है।
आवेदन का निस्तारण प्रत्यर्थी के द्वारा दाखिल किये गये आवेदन के निस्तारण के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन आवेदन के निस्तारण के लिये यथाप्रतिपादित प्रक्रिया को स्वीकार करना आवश्यक है। स्वीकृत रूप से उसे मजिस्ट्रेट के द्वारा अनुसरित नहीं किया गया है। इसलिए आदेश अपास्त किये जाने के लिए दायी हैं।
दण्ड
अधिनियम स्वयं द्वारा हिंसा गठित करने वाले किसी कृत्य, लोप अथवा आचरण को किसी कारावास, जुर्माना अथवा अन्य दण्ड से दण्डनीय नहीं बनाता है। इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन अधिनियम की धारा 3 में यथा परिभाषित घरेलू हिंसा का कृत्य कारित करने के लिए किसी व्यक्ति का कोई अभियोजन नहीं हो सकता है। किसी व्यक्ति को मात्र इस कारण से अधिनियम के अधीन दण्डित नहीं किया जा सकता है कि वह किसी महिला से हिंसा कारित करता है अथवा परेशान करता है।
उसे हानि अथवा क्षति कारित करता है अथवा उसे किसी दुरुपयोग, चाहे शारीरिक, लैंगिक, शाब्दिक, भावात्मक अथवा आर्थिक हो। किसी व्यक्ति को अधिनियम के प्रावधानों के अधीन उसके किसी महिला को साझी गृहस्थि में निवास करने के उसके अधिकार से वंचित करने के कारण अधिनियम के प्रावधानों के अधीन दण्डित नहीं किया जा सकता है।