घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 14: अन्य वादों और विधिक कार्यवाहियों में अनुतोष
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) की धारा 26 अधिनियम को एक विशेष शक्ति प्रदान करती है। शक्ति के अंतर्गत वादों पूर्व विधिक कार्यवाहियों के बीच मजिस्ट्रेट कोई आदेश या अनुतोष पारित कर सकता है इस आलेख के अंतर्गत धारा 26 की विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।
यह अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत की गई धारा के मूल शब्द है
धारा 26
अन्य वादों और विधिक कार्यवाहियों में अनुतोष
(1) धारा 18, धारा 19, धारा 20, धारा 21 और धारा 22 के अधीन उपलब्ध कोई अनुतोष, किसी सिविल न्यायालय, कुटुम्ब न्यायालय या किसी दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी को प्रभावित करने वाली किसी विधिक कार्यवाही में भी, चाहे ऐसी कार्यवाही इस अधिनियम के प्रारम्भ से पूर्व या उसके पश्चात् आरम्भ की गई हो, माँगा जा सकेगा।
(2) उपधारा (1) में निर्दिष्ट कोई अनुतोष, किसी अन्य अनुतोष के अतिरिक्त और उसके साथ-साथ जिसकी व्यथित व्यक्ति, किसी सिविल या दण्ड न्यायालय के समक्ष ऐसे बाद या विधिक कार्यवाही में वांछा करे, माँगा जा सकेगा।
(3) यदि इस अधिनियम के अधीन किसी कार्यवाही से भिन्न किन्हीं कार्यवाहियों में व्यथित व्यक्ति द्वारा कोई अनुतोष अभिप्राप्त कर लिया गया है, तो वह ऐसे अनुतोष को अनुदत करने वाले मजिस्ट्रेट को सूचित करने के लिए बाध्य होगा।
अधिनियम की धारा 26 अन्य बातों के साथ ही साथ यह प्रावधान करती है कि अधिनियम की धारा 18, 19, 20, 21 और 22 के अधीन उपलब्ध किसी अनुतोष की ईप्सा व्यथित व्यक्ति तथा प्रत्यर्थी को प्रभावित करते हुए सिविल न्यायालय, कुटुम्ब न्यायालय अथवा दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी विधिक कार्यवाही में भी की जा सकती है।
घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 26 यह प्रावधान करती है कि धारा 18, 19, 20, 21 और 22 के अधीन उपलब्ध किसी अनुतोष की ईप्सा व्यथित व्यक्ति तथा प्रत्यर्थी को प्रभावित करते हुए सिविल न्यायालय, कुटुम्ब न्यायालय अथवा दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी विधिक कार्यवाही में की जा सकती है, चाहे ऐसी कार्यवाही इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व अथवा पश्चात् संस्थित की गई हो।
पुनः ऊपर निर्दिष्ट किसी अनुतोष की मांग किसी अन्य अनुतोष के अतिरिक्त तथा उसके साथ की जा सकती है, जिसे व्यथित व्यक्ति सिविल अथवा दण्ड न्यायालय के समक्ष ऐसे बाद अथवा विधिक कार्यवाही में मांग कर सकता है। पुनः यदि व्यथित व्यक्ति के द्वारा कोई अनुतोष इस अधिनियम के अधीन कार्यवाही से भिन्न किसी कार्यवाही में प्राप्त किया गया हो, तब वह ऐसा अनुतोष प्रदान करने वाले मजिस्ट्रेट को उसे सूचित करने के बाध्य होगी।
घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 26 का परिशीलन यह इंगित करता है कि अधिनियम के अधीन अनुतोष उस अनुतोष के अलावा है, जो व्यथित व्यक्ति तथा प्रत्यर्थी को प्रभावित करते हुए सिविल न्यायालय, कुटुम्ब न्यायालय तथा दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी विधिक कार्यवाही में उपलब्ध हो सकता है।
'पत्नी' पद 'पत्नी' का उन मामलों में भी शामिल करने के लिए व्यापक तथा विस्तारित निर्वाचन किया जाना चाहिए, जहाँ पुरुष और स्त्री युक्तियुक्त रूप से लम्बी समयावधि तक पति और पत्नी के रूप में रहे हैं और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन विवाह का कठोर सबूत भरण-पोषण के लिए पूर्ववर्ती शर्त नहीं होना चाहिए, जिससे कि धारा 25 के अधीन भरण-पोषण के फायदाप्रद प्रावधान की वास्तविक भावना तथा सार को पूरा किया सके।
अधिनियम के अधीन कार्यवाही
अधिनियम के प्रावधानों के अधीन कार्यवाही अपराध पर विचार करने के लिए तात्पर्यित नहीं होती है, हालांकि ऐसे अभिकथन किये गये हों। ऐसा अभिकथन घरेलू हिंसा के कोटि में आ सकता है, परन्तु उक्त कार्यवाही को अपराध के विचारण के रूप में नहीं कहा जा सकता है।
विधिक कार्यवाही घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के अधीन उपलब्ध किसी अनुतोष की मांग सिविल न्यायालय, कुटुम्ब न्यायालय अथवा दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी विधिक कार्यवाही में भी की जा सकती है, चाहे ऐसी कार्यवाही इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व अथवा पश्चात् प्रारम्भ हुई हो। यदि याचीगण के विद्वान अधिवक्ता के इस तर्क को स्वीकार किया जाना है कि अधिनियम प्रकृति में भविष्यवर्ती है, तब अधिनियम की धारा 18 से 22 के अधीन किसी अनुतोष का दावा करने का कोई प्रश्न अधिनियम के प्रारम्भ के पहले संस्थित किये गये बाद में उद्भूत नहीं होता है।
इसी प्रकार, उक्त प्रावधान से यह भी स्पष्ट है कि कोई अनुतोष, जो अधिनियम के अधीन प्रदान किया जा सकता है, की ईप्सा सिविल न्यायालय अथवा दण्ड न्यायालय के समक्ष वाद अथवा विधिक कार्यवाही में भी की जा सकती है धारा 26 की उपधारा (3) यह प्रतिपादित करती है कि व्यथित व्यक्ति अपने द्वारा घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के अधीन से भिन्न किसी कार्यवाही में प्राप्त किये गये अनुतोषों को मजिस्ट्रेट को सूचित करने के लिए बाध्य होगा।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की प्रयोज्यनीयता अधिनियम की धारा 26 सिविल न्यायालय, कुटुम्ब न्यायालय या दण्ड न्यायालय को, जहाँ कोई विधिक कार्यवाही लम्बित हो, उक्त अधिनियम की धारा 18 से 22 के अधीन उपलब्ध किसी अनुतोष को प्रदान करने के लिए अनुज्ञात करती है।
हालांकि अधिनियम की धारा 28 यह प्रावधान करती है कि धारा 12 और 18 से 23 के अधीन सभी कार्यवाही और उक्त अधिनियम की धारा 31 के अधीन अपराध दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों के द्वारा शासित होगा, धारा 28 को उपधारा (2) स्पष्ट रूप से यह प्रावधान करती है कि उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट कोई बात न्यायालय को उक्त अधिनियम की धारा 12 के अधीन अथवा धारा 23 की उपधारा (2) के अधीन आवेदन के निस्तरण के लिए स्वयं अपनी प्रक्रिया प्रतिपादित करने से निवारित नहीं करेगी।
अन्य शब्दों में, हालांकि उक्त कार्यवाही में पालन की जाने वाली प्रक्रिया वह है, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन उपबन्धित की गई है, फिर भी मजिस्ट्रेट धारा 12 को उपधारा (1) के अधीन आवेदनों पर विचार करते समय अथवा अधिनियम की धारा 23 की उपधारा (2) के अधीन अन्तरिम अथवा एकपक्षीय अन्तरिम अनुतोष का आदेश प्रदान करने पर विचार करते समय स्वयं अपनी प्रक्रिया प्रतिपादित कर सकता है।
लिव-इन-रिलेशनशिप के मामलों में मौद्रिक अनुतोष
यदि अधिनियम, 2005 के अधीन लिव-इन-रिलेशनशिप के मामलों में मौद्रिक अनुतोष तथा प्रतिकर प्रदान किया जा सकता है, तब उन्हें दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन कार्यवाही में भी अनुज्ञात किया जाना चाहिए। वही विचार उक्त अधिनियम, 2005 की धारा 26 के द्वारा निश्चित है।
कुटुम्ब न्यायालय की अधिकारिता
इस धारा के अधीन, उसमें विनिर्दिष्ट धाराओं के अधीन मामलों को स्वीकार करने और पर विचारण करने की अधिकारिता कुटुम्ब न्यायालय को प्रदान की जाती है, तो इसे पूर्ण रूप से उन अनुतोषों के सम्बन्ध में प्रदान किया जाना चाहिए जो उपलब्ध है और जिनकी उक्त धारा में विनिर्दिष्ट धाराओं के अधीन अपेक्षा को जा सकती है।
विधान मण्डल ने इस धारा के अधीन अनुतोष का आश्रय लेते समय कोई शर्त अधिरोपित नहीं किया था। इसलिए "प्रत्यर्थी" का अर्थ इस अधिनियम की धारा 2 (4) से इस धारा के अधीन कार्यवाही के लिए उधार लिया जाना चाहिए। ऐसी योग्यता को जोड़ना और पढ़ना विधि के अवैध निर्वाचन के समान होगा।
निवास का अधिकार
अधिनियम, 2005 की धारा 26 का निर्वाचन ऐसी रीति में किया जाना है, जिससे कि अधिनियम के विशेष प्रयोजन और उद्देश्य को प्रभावी बनाया जा सके। जब तक अधिनियम, 2005 के द्वारा यथा अनुचिन्तित किसी आदेश की मांग करते हुए व्यथित व्यक्ति के द्वारा दावे का अवधारण सिविल न्यायालय के द्वारा विचारण से अभिव्यक्त रूप वर्जित न हो, तब तक यह न्यायालय सिविल न्यायालय के समक्ष किसी विधिक कार्यवाही में ऐसे किसी दावे के विचारण में रोक को पढ़ने का कष्ट नहीं करेगी।
जब न्यायाधीश, लघु वाद न्यायालय में वादी के द्वारा संस्थित की गयी कार्यवाही में अपीलार्थिनी को आनुग्रहिक अनुज्ञप्ति के पर्यवसान का अभिकथन किया गया था तथा अपीलार्थिनी को वादग्रस्त फ्लैट का प्रयोग करने से अवरुद्ध करने और उक्त फ्लैट में प्रवेश करने तथा प्रयोग करने से वादी को अवरुद्ध करते हुए प्रार्थना की जाती है, तब निवास का अधिकार, जैसा कि अपीलार्थिनी के द्वारा दावा किया गया है।
ऐसे अवधारण से अन्तर सम्बन्धित होता है और अपीलार्थिनी के दावे, जैसा कि उसके प्रतिदावे में उठाया गया था, पर विचारण की इन्कारी कुछ नहीं, वरन् अधिनियम, 2005 की धारा 26 के द्वारा यथा अनुचिन्तित दावे के विचारण को इन्कार होगी, जो कार्यवाही की बहुलता को अग्रसर करेगी, जो अधिनियम, 2005 का उद्देश्य तथा प्रयोजन नहीं हो सकता है।
इस प्रकार न्यायालय की विचारित राय यह है कि अपीलार्थिनी के द्वारा सिविल वाद संख्या 77, वर्ष 2013 में न्यायाधीश, लघु वाद न्यायालय के समक्ष दाखिल किया गया प्रतिदावा पूर्ण रूप से स्वीकार किए जाने योग्य था तथा अवर न्यायालयों ने ऐसे दावे पर विचार करने से इन्कार करने में त्रुटि कारित किया था।