लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 10: गुरुतर प्रवेशन लैंगिग हमले के लिए दंड

Update: 2022-06-27 04:39 GMT

लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) की धारा 6 गुरुतर प्रवेशन लैंगिग हमले के लिए दंड उल्लेखित करती है। धारा 5 में गुरुतर प्रवेशन लैंगिग हमले की परिभाषा प्रस्तुत की गई है और धारा 6 में इसके दंड का उल्लेख किया गया है। इस आलेख में धारा 6 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल रूप है

धारा 6 गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमले के लिए दण्ड

(1) जो कोई गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमला करेगा, वह कठिन कारावास से, जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम की नहीं होगी, किन्तु जो आजीवन कारावास, जिसका अभिप्राय उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास होगा, तक ही हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने का भी दायी होगा या मृत्यु से दण्डित किया जाएगा।

(2) उपधारा (1) के अधीन अधिरोपित जुर्माना न्यायोचित और युक्तियुक्त होगा और उसका संदाय, पीड़ित के चिकित्सा व्ययों और पुनर्गस की पूर्ति के लिए ऐसे पीड़ित को किया जाएगा।

पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमले के लिए दण्ड विहित करती है और यह धारा ऐसे अपराध के लिए कम से कम 20 वर्ष के कठोर कारावास का उल्लेख करती है। अर्थात अगर कोई व्यक्ति गुरुतर प्रवेशन लैंगिग हमले का दोषी पाया जाता है तो न्यायालय उसे कम से कम 20 वर्ष का कारावास तो देगा ही और अधिकतम मृत्यु दंड तक हो सकता है।

"दण्ड" का अर्थ

राजेश्वरी प्रसाद बनाम राम बाबू गुप्ता एआईआर 1961 के मामले में कहा गया है कि अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 की धारा 4 दण्ड का न कारावास का कथन करती है। न्यायालय उसे ऐसी किसी रीति में दण्डित नहीं करेगा, यदि तथ्यों पर यह समाधान हो जाता है कि धारा 4 में प्रगणित प्रकृति के अपराध के दोषी किसी विशिष्ट व्यक्ति को उसके बन्ध-पत्र प्रस्तुत करने पर निर्मुक्त किया जाना चाहिए। इसलिए शब्द दण्ड कारावास के दण्ड और जुर्माने के दण्ड दोनों को समझने के लिए पर्याप्त व्यापक होता है।

दण्ड का सामान्यतः तात्पर्य कुछ अपराध को भुगतना है, परन्तु यदि दण्ड के उस भाग, जिसने दण्डादेश शामिल होता है, का परिहार किया जाता है। दोषसिद्ध को अभी भी दुराचरण के कारण दण्डित किए जाने के लिए दायी अभिनिर्धारित किया जाना चाहिए। यदि उसे सुसंगत दुराचरण के लिए भारमुक्त न कर दिया गया हो और यदि उसकी उस आधार पर दोषसिद्धि दण्डादेश को हटाए जाने के बावजूद स्थित हो।

दाण्डिक मामले में उचित दण्ड के प्रश्न का निर्धारण दाण्डिक मामलों में दण्ड दोनों दण्डात्मक तथा सुधारात्मक होता है। प्रयोजन यह है कि अपराध कारित करने का दोषी व्यक्ति अपने दोष को महसूस करे और ऐसे कृत्यों को भविष्य में दुहराने से भयभीत हो सुधारात्मक पक्ष सम्बद्ध व्यक्ति को अपने कृत्य के लिए खेद और पश्चाताप व्यक्त करने के लिए तात्पर्यित होता है और स्वयं उसे समाज के लाभदायक सामाजिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार्य बनाता है। दाण्डिक मामले में उचित दण्ड के प्रश्न को निर्धारित करने में न्यायालय को अभियुक्त की अपराधिता की मात्रा, अन्य व्यक्तियों पर उसके प्रभाव तथा दण्ड की स्थिति में मामले में उदारता दर्शाने पर विचार करना है।

दण्ड के प्रकार

दाण्डिक, चिकित्सीय और निवारक दृष्टिकोण किसी व्यक्ति के द्वारा कारित किए गये अपराध के लिए दण्ड के मामले में समस्या के अनेक दृष्टिकोण होते है। अपराध कारित करने पर तीन प्रकार की प्रतिक्रियाएं हो सकती है; सार्वजनिक प्रकृति की पारम्परिक प्रक्रिया, जिसे दाण्डिक दृष्टिकोण के रूप में कहा जाता है। यह अपराधी को ऐसे कुख्यात रूप में खतरनाक व्यक्ति के रूप में मानता है, जिस पर समाज को उसके आपराधिक हमलों से सरक्षित करने के लिए कठोर दण्ड अधिरोपित किया जाना चाहिए। अन्य दृष्टिकोण चिकित्सीय दृष्टिकोण है।

यह अपराधी को उपचार की अपेक्षा करने वाले बीमार व्यक्ति के रूप में मानता है, जबकि तीसरा निवारक दृष्टिकोण है, जो समाज से उन स्थितियों को समाप्त करने की ईप्सा करता है, जो अपराध के कारण के लिए उत्तरदायी हो।

जुर्माने के साथ आजीवन कारावास का दण्डादेश न्यायालय को सुधारात्मक सिद्धान्त और आनुपातिकता के सिद्धान्त के बीच सन्तुलन करना चाहिए। दण्डादेश की मात्रा पर विचार करते हुए, न्यायालय ने व्यापक रूप से मामले के विभिन्न पहलुओं जैसे अवयस्क असहाय लड़की की जिसके विरुद्ध बलात्संग का ऐसा जघन्य अपराध किया गया था. दुर्दशा के साथ अपराध के पुनः प्रभाव और समाज पर उसके प्रभाव पर विचार किया था इसलिए, 20.000 रु के जुर्माने के साथ आजीवन कारावास का दण्डादेश पूर्ण रूप से न्यायोचित था।

मृत्यु दण्ड की वैधता

उनन्हू किरार बनाम म.प्र. राज्य 2020 के मामले में मृत्यु दण्ड केवल तब अधिरोपित किया जा सकता है, जब कोई अन्य विकल्प नहीं है। अन्यथा आजीवन कारावास का अधिरोपण नियम है। यदि एक परिस्थिति का पक्ष लेती है, जिसके अन्तर्गत उसकी अल्प आयु है तो मृत्यु दण्ड न्यायोचित नहीं है। इस प्रकार वर्तमान मामला मृत्यु दण्ड के अधिरोपण को उचित बनाते हुए "विरल से शिवम मानले' के सबर्ग के अन्तर्गत नहीं आता। तद्नुसार मृत्यु दण्ड 35 वर्ष की वास्तविक के किसी परिहार के बिना) अभियुक्त के आजीवन कारावास में परिवर्तित किया गया था।

प्रेम बहादुर बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य 2016 के प्रकरण में गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमला राबूत यह अभिकथन था कि पीड़िता का अभियुक्त द्वारा लैंगिग रूप में शोषण किया जा रहा था। पीड़िता अनाथ होने के कारण अपने चाचा के रह रही थी। उसके चाचा के पास उसकी शिक्षा प्रदान करने का कोई साधन नहीं था इसलिए वह पीड़िता को अभियुक्त के पास छोड़ा गया था और अभियुक्त ने पीडिता को स्कूल प्रवेश दिलवाया था।

पीड़िता ने यह कथन किया था कि अभियुक्त प्रत्येक रात उसकी पिटाई करता था और उससे गलत कृत्य कारित किया करता था। पीड़िता का साक्ष्य अध्यापक और प्रधानाध्यापक के साक्ष्य से सपुष्ट हुआ था। अस्थि परीक्षण ने पीड़िता की आयु 9-10 वर्ष के बीच होना साबित किया था। चिकित्सीय रिपोर्ट ने पीड़िता के लैंगिक शोषण को साबित किया था। दोषसिद्धि उचित थी।

अवयस्क के साथ बलातांग का सबूत अभियोक्त्री और उसकी माँ के विद्रोही कथन को विशेष रूप में उस समय अभियोजन कहानी पर अविश्वास करने के आधार के रूप में नहीं समझा जा सकता है, जब अभिलेख पर उपलब्ध वैज्ञानिक अन्वेषण और सम्बद्ध साक्ष्य अभियुक्त को अपराध कारित करने से जोड़ते हो इसलिए अभियोजन के द्वारा प्रस्तुत किये गये मौखिक के साथ ही साथ दस्तावेजी साक्ष्य ने अभियुक्त के दोष को युक्तियुक्त संदेह से परे साबित किया है। इसलिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376(2)(च) और पॉक्सो अधिनियम, 2012 की धारा 6 के अधीन अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित अभिनिर्धारित की गयी।

हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम शाम लाल, 2017 कि लॉ. ज 4724 अभियोक्त्री के साथ ही साथ उसकी माता तथा पिता का अभिसाक्ष्य विश्वास प्रेरित नहीं करता है। ये कथन इस तरह से विश्वसनीय नहीं है, जिससे कि उन्हें अभियुक्त की दोषसिद्धि का आधार बनाया जा सके। अभिलेख पर ऐसी कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि अभियुक्त ने अजा और अजन (अत्याचार निवारण) अधिनियन की धारा 3(2) (v) अथवा पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के अधीन दण्डनीय अपराध कारित किया है। अभियोजन अपने मामले को युक्तियुक्त संदेह से परे साबित करने में समर्थ नहीं हुआ है।

मानिक भक्ती बनाम त्रिपुरा राज्य, 2021 के मामले में अभियुक्त (पीड़िता के पिता) ने अभिकथित रूप से पीड़िता पर बलात्संग कारित करने का प्रयत्न किया था, जब यह घर में अकेली थी। चिकित्सीय रिपोर्ट स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि पीड़िता के साथ अभियुक्त द्वारा बलात्संग किया गया था साक्ष्य से यह साबित किया गया या कि अपराध कारित करने के समय पीड़िता लगभग 15 वर्ष की थी किन्तु वर्ष से नीचे बलात्संग का तथ्य, जैसा कि घटना के तत्काल पश्चात् पड़ोसियों के समक्ष प्रकट किया गया था और उनके साक्ष्य को रेस जेस्टे के साक्ष्य के रूप में माना जाना चाहिये और साक्ष्य अधिनियम की धारा 6 के अधीन साक्ष्य में ग्राह्य है तात्विक भाग, कि अभियुक्त ने उसके कमर के नीचे तकिया रखा था और उसके साथ बलात्सग कारित किया था. पीड़िता के उसकी मुख्य परीक्षा में किये गये कथन द्वारा अधिकधित किया जाना और अभिपुष्ट किया जाना पाया गया था। इस प्रकार अभियुक्त इस तथ्य को साबित करने में असफल था कि उसने उसकी पुत्री पर बलात्संग कारित नहीं किया था। अत अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित निर्णीत की गयी थी।

अवयस्क बलात्संग और हत्या

राज्य बनाम करनदीप शर्मा 2018 के मामले में अभियुक्त ने अभिकथित रूप में पीड़िता को धार्मिक समारोह से फुसलाया था और उसके साथ उसकी मृत्यु में परिणामित बलात्संग कारित किया था। पीड़िता को आयु घटना के समय 5 वर्ष थी। अन्तिम बार देखे जाने का साक्षी के द्वारा था। चिकित्सीय साक्ष्य ने बलात्संग और आघात के कारण मृत्यु को पृष्ट किया था। न्यायालयिक विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट पीड़िता के कपड़ों पर तेल के नमूने और घटनास्थल से लिए गये नमूने से मिलती थी। अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित थी।

अवयस्क पर लैंगिगहमला / बलात्लांग

संजोक राय बनाम सिक्किम राज्य, 2017 क्रिमिनल लॉ जर्नल 3925 के प्रकरण में इतिलाकर्ता/ / पिता ने यह कहा था ने अभिकथित रूप में पीड़िता का व्यपहरण किया और उसके साथ था कि साथ बलात्संग कारित किया था। बचाव पक्ष का अभिवाक यह था कि पीड़िता घटना के समय अवयस्क नहीं थी। अभियोजन जन्म प्रमाण-पत्र पर विश्वास व्यक्त किया था।

अभियुक्त के द्वारा जन्म प्रमाण-पत्र की प्रमाणिकता अथवा ग्राहयता के विरूद्ध कोई आपत्ति नहीं उठायी गयी थी। उपधारा यह थी कि लोक सेवक पीड़िता की जन्म-तिथि को सच्चाई का स्वय का समाधान करने के पश्चात सही रूप में प्रविष्ट किया था जन्म प्रमाण-पत्र पीड़िता को अवयस्क होने का कथन करता था। पीड़िता पाक्सो अधिनियम के अन्तर्गत बालक की परिभाषा के अधीन आती थी। अभियुक्त दोषसिद्ध किए जाने के लिए दायी था।

अवयस्क लड़की पर लैंगिग हमला का सबूत

सन्तोष गोरे बनाम राज्य, 2021 के मामले में अभियुक्त ने लैंगिक रूप से दो बार पीड़िता लड़की पर हमला किया था, जिस कारण वह गर्भवती हो गयी थी। पीड़िता लड़की को. जो तेरह वर्ष की आयु की थी. गर्भपात के आघात को सहन करना पड़ा था। पीड़िता के उसकी आयु के सम्बन्ध में साक्ष्य का समर्थन जन्म प्रमाण पत्र द्वारा किया गया था। पीड़िता लड़की का काय साक्ष्य स्पष्ट रूप से अभियुक्त को आलिप्त कर रहा था। गर्भपात किये गये भ्रूण का डी एन ए प्रोफाइल अभियुक्त के प्रोफाइल के अनुरूप है। इस प्रकार अपराध कारित करने में अभियुक्त की संलग्नता युक्तियुक्त सन्देह के परे साबित की गयी थी।

लैंगिग आक्रमण

हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम शाम लाल, 2017 के मामले में सबूत अभियुक्त अवयस्क अभियोक्त्री को अभिकथित रूप में अपने साथ एकांत स्थान पर ले गया था और उसे ठण्डा पेय पिलाया था और उसके साथ छेड़छाड़ किया था। अभियोक्त्री की माँ ने उसकी आयु का 15 वर्ष के रूप में अभिसाक्ष्य दिया था। या तो पुलिस या गांव के प्रधान के पास कोई शिकायत नहीं की गयी थी।

अभियोक्त्री ने घटना की शुद्ध तारीख तथा समय का उल्लेख नहीं किया था। घटना के घटने के बारे में अभियोक्त्री और उसकी माँ के कथनों में असंगतता थी। परिवाद फाइल न कराने के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था। अभियोजन अपना मामला युक्तियुक्त संदेह के परे साबित करने में विफल हुआ था। दोषमुक्ति उचित थी।

अवयस्क लड़की पर गुरुतरकारी प्रवेशन लैंगिक हमला का सबूत

अभियुक्त ने एक बार से अधिक लगभग 13 वर्षीया अवयस्क पीडिता लड़की पर लैंगिक हमला किया था। पीड़िता लड़की का साक्ष्य जो समक्ष प्राधिकारी से जन्म प्रमाण पत्र द्वारा समर्थित है, विश्वास उत्पन्न करता है और उस पर विश्वास न करने के लिये कोई कारण नहीं है। चूंकि अवयस्क पीड़िता लड़की का अभिसाक्ष्य पूर्ण विश्वास उत्पन्न करता है और ऐसे साक्ष्य को किसी ढंग में प्रतिकूल ढंग से प्रभावित नहीं किया गया है इसलिये किसी अभिपुष्टि का अवलोकन करने की आवश्यकता नहीं है। विधि यह नहीं है कि अभियोक्त्री के साक्ष्य पर कभी भी विश्वास नहीं किया जा सकता जब तक इसकी अभिपुष्टि नहीं की जाती।

निशिकान्त मारूति निम्बालकर बनाम महाराष्ट्र राज्य, 2018 क्रिमिनल लॉ जर्नल 403 प्रवेशन लैगिक हमला पीड़िता 9 वर्ष की लड़की वर्तमान मामले में अभियुक्त ने उसे खाने योग्य वस्तु क्रय करने के लिए धन देने के बहाने उसके घर से बुलाया था जब पीड़िता अभियुक्त के घर पहुंची थी तब उस पर लैंगिक रूप में आक्रमण किया गया था। पीड़िता का अभिसाक्ष्य विश्वसनीय सशक्त और विश्वस्त था और वह उसकी माँ तथा डॉक्टर जिसने उसकी जाच किया था के अभिसादय से संपुष्ट था इसलिए अभियुक्त दोषसिद्ध किए जाने के लिए दायी था।

लाल बहादुर कामी बनाम सिक्किम राज्य, 2018 के मामले में पीड़िता की आयु सबूत वर्तमान मामले में अभियोजन का अभिवाक यह था कि घटना के समय पीड़िता की आयु 17 वर्ष और 8 माह थी। अभियोजन मुख्य रजिस्ट्रार के द्वारा जारी किए गये जन्म प्रमाण-पत्र पर विश्वास व्यक्त किया था। अभियोजन के द्वारा कोई जन्म और मृत्यु रजिस्टर प्रस्तुत नहीं किया गया था।

साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 (छ) के अधीन अभियोजन के विरुद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निकाला जा सकता था जन्म प्रमाण-पत्र में प्रविष्टि उक्त रजिस्टर में की गयी प्रविष्टियों के द्वारा साबित नहीं हुई थी। पीड़िता की आयु साबितन होनी अभिनिर्धारित की गयी थी।

जन्म प्रमाण-पत्र की प्रविष्टि की मांग माता-पिता अथवा विधिक संरक्षकों के अनुदेश पर सदरूप में प्रविष्ट जन्म और मृत्यु रजिस्टर में की गयी प्रविष्टियों के द्वारा साबित किये जाने के लिए की जा सकती है। ऐसे रजिस्टर को अस्पष्टीकृत कारणों से विचारण न्यायालय के परिशीलन के लिए प्रस्तुत नहीं किया गया था। इस प्रकार प्रस्तुत किया गया साक्ष्य जन्म प्रमाण-पत्र के प्रभाणक मूल्य पर संदेह सृजित करता है, जो तद्द्द्वारा उसे विचारण के लिए अनुपयुक्त बनाता है।

पीड़िता की मानसिक निर्योग्यता का अभियाक वर्तमान मामले में निर्योग्यताओं से प्रस्त व्यक्तियों का प्रमाण-पत्र पीड़िता को 70 प्रतिशत सम्पूर्ण निर्योग्यता से ग्रस्त होना दर्शाता था डॉक्टर, जिसने पीडिता की जांच की थी की उसे मानसिक रूप में चुनौतीपूर्ण के रूप में वर्णित करने की असफलता थी। निर्योग्यता प्रमाण-पत्र को हस्ताक्षरित करने वाले तीनों डॉक्टरों की अपरीक्षा स्पष्ट थी। मानसिक निर्योग्यता साबित नहीं हुई थी।

एक मामले में कहा गया है कि न्यायालयिक रिपोर्ट यह प्रकट करती थी कि अभियुक्त और पीड़िता के अन्तःवस्त्रों पर कोई रक्तवीर्य अथवा अन्य तरल पदार्थ नहीं पाया गया था। डॉक्टर ने यह कथन किया था कि भगांजति मे लालिमा संक्रमण के कारण भी हो सकती है। अभियोजन की पीड़िता की अवयस्कता और मानसिक निर्योग्यता को साबित करने की असफलता थी। पीड़िता पर कोई बलपूर्वक लैगिक हमला साबित नहीं किया गया था। अभियुक्त दोषमुक्ति का हकदार था।

जमानत की मंजूरी मजिस्ट्रेट के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन पीड़िता लड़की के द्वारा किया गया कथन उसके प्रतिकूल है, जो परिवाद में कहा गया है। न्यायालयिक विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट पीड़िता लड़की के साथ कारित किये गये किसी हाल के लैंगिक समागम को प्रदर्शित नहीं करती है। इस प्रकार अभियुक्त को जमानत पर निर्मुक्त किये जाने के लिए आदेशित किया।

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