क्या Parole की अवधि को Actual Imprisonment में गिना जाना चाहिए ताकि सज़ा से पहले रिहाई मिल सके?

Update: 2025-04-16 13:53 GMT
क्या Parole की अवधि को Actual Imprisonment में गिना जाना चाहिए ताकि सज़ा से पहले रिहाई मिल सके?

सुप्रीम कोर्ट ने Rohan Dhungat v. State of Goa मामले में यह अहम सवाल उठाया कि क्या किसी दोषी (Convict) द्वारा Parole पर बिताया गया समय “Actual Imprisonment” (वास्तविक कारावास) की अवधि में गिना जा सकता है जब वह समय से पहले रिहाई (Premature Release) की मांग करता है? कोर्ट ने इस मामले में Parole के उद्देश्य, जेल नियमों की व्याख्या और सज़ा के दुरुपयोग की संभावना पर विचार करते हुए महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिए।

Parole का उद्देश्य और प्रकृति (Nature and Purpose of Parole)

Parole एक प्रकार की शर्तीय रिहाई (Conditional Release) होती है जो किसी कैदी को विशेष परिस्थिति में, सीमित समय के लिए जेल से बाहर रहने की अनुमति देती है। यह अनुमति सरकार द्वारा दी जाती है और इसके पीछे आमतौर पर मानवीय कारण (जैसे बीमारी, परिवार में संकट आदि) होते हैं।

Supreme Court ने स्पष्ट किया कि Parole स्थायी रिहाई नहीं होती और इसे “Actual Imprisonment” का हिस्सा नहीं माना जा सकता। Parole पर रहने के दौरान दोषी पूरी तरह स्वतंत्र होता है और जेल की निगरानी में नहीं होता, इसलिए इस अवधि को सज़ा का हिस्सा नहीं माना जा सकता।

नियमों की व्याख्या और कानूनी ढांचा (Interpretation of Rules and Statutory Framework)

Goa Prisons Rules, 2006 के Rule 335 के अनुसार, Parole और Furlough पर बिताया गया समय केवल “Remission of Sentence” (सज़ा में छूट) के रूप में गिना जाता है, न कि “Actual Imprisonment” के रूप में।

इसके अतिरिक्त, Rule 2(21) में "Imprisonment" को Indian Penal Code की धारा 53 और General Clauses Act के तहत परिभाषित किया गया है, जिसमें Parole की अवधि शामिल नहीं की गई है। इसलिए, नियमों की स्पष्ट भाषा के अनुसार Parole की अवधि को सज़ा का हिस्सा नहीं माना जा सकता।

पहले के सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का सन्दर्भ (Reference to Supreme Court Precedents)

दोषियों की ओर से Sunil Fulchand Shah v. Union of India और Avtar Singh v. State of Haryana जैसे पुराने फैसलों का हवाला दिया गया। परंतु Supreme Court ने कहा कि ये फैसले इस मामले में लागू नहीं होते।

Sunil Fulchand Shah का मामला COFEPOSA Act के तहत Preventive Detention से जुड़ा था, जो एक अलग कानूनी व्यवस्था है। उस फैसले में भी कहा गया था कि जब तक Parole की शर्तों में स्पष्ट रूप से न लिखा हो, तब तक Parole की अवधि को हिरासत (Custody) का हिस्सा नहीं माना जा सकता।

इसी प्रकार, Avtar Singh का मामला भी इस विशेष प्रश्न से संबंधित नहीं था, इसलिए Court ने उसे भी इस मामले में अनुपयुक्त (Irrelevant) माना।

सज़ा के उद्देश्य और Parole के दुरुपयोग की संभावना (Purpose of Sentence and Misuse of Parole)

Court ने यह आशंका जताई कि अगर Parole की अवधि को Actual Imprisonment का हिस्सा मान लिया जाए, तो प्रभावशाली (Influential) दोषी बार-बार Parole पर रहकर जेल में रहने से बच सकते हैं, जबकि तकनीकी रूप से वे 14 साल की सज़ा पूरी करने का दावा कर सकते हैं।

ऐसी स्थिति में न्यायिक सज़ा (Judicial Punishment) का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। इसलिए, कोर्ट ने साफ किया कि सज़ा की गिनती में सिर्फ वह समय जो दोषी ने जेल की चारदीवारी में बिताया है, वही “Actual Imprisonment” माना जाएगा।

Section 55, Prisons Act, 1894 का तर्क अस्वीकार (Rejection of Section 55 Argument)

दोषियों ने Section 55, Prisons Act, 1894 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि अगर कोई दोषी जेल से ले जाया जा रहा हो (जैसे कोर्ट, अस्पताल आदि), तो उसे अभी भी “Custody” में माना जाएगा।

परंतु Court ने यह तर्क खारिज कर दिया और कहा कि यह धारा उन मामलों में लागू होती है जहां कैदी को सरकारी नियंत्रण में जेल से बाहर ले जाया गया हो। Parole के मामले में दोषी स्वेच्छा से और अस्थायी रूप से बाहर होता है, और यह वैधानिक हिरासत (Legal Custody) में नहीं आता। इसलिए Section 55 इस संदर्भ में लागू नहीं होता।

दोषी के अधिकार और सार्वजनिक हित के बीच संतुलन (Balancing Prisoner Rights and Public Interest)

Supreme Court ने यह भी स्वीकार किया कि समय से पहले रिहाई (Premature Release) का उद्देश्य सुधार (Reformation) और पुनर्वास (Rehabilitation) है। लेकिन यह सुविधा सिर्फ उन्हीं दोषियों को दी जानी चाहिए जिन्होंने वास्तव में पर्याप्त समय जेल में बिताया हो।

Parole जैसी सुविधाओं का उद्देश्य मानवीय आधारों पर राहत देना है, लेकिन इसे सज़ा के वास्तविक क्रियान्वयन (Execution of Punishment) में बाधा नहीं बनने देना चाहिए।

अंतिम निर्णय (Final Verdict of the Court)

Supreme Court ने Bombay High Court at Goa के फैसले से पूरी तरह सहमति जताते हुए कहा कि Parole पर बिताया गया समय Actual Imprisonment में शामिल नहीं किया जाएगा।

इस फैसले से यह सुनिश्चित होता है कि दोषियों को सज़ा के दौरान वास्तविक जेल जीवन बिताना अनिवार्य है और वे Parole के सहारे सज़ा पूरी करने का दावा नहीं कर सकते।

Rohan Dhungat v. State of Goa का यह फैसला भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System) में स्पष्टता और अनुशासन लाता है।

यह निर्णय दर्शाता है कि Parole सिर्फ एक अस्थायी राहत है, न कि सज़ा का विकल्प। जब तक दोषी वास्तव में जेल में 14 साल नहीं बिताता, तब तक वह Premature Release का पात्र (Eligible) नहीं हो सकता।

Supreme Court का यह फैसला न केवल दोषियों के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता और समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारी को भी सुदृढ़ करता है।

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